जो केवल शुद्ध समाज के लिए बनें हो, जो केवल अपने लिए नही अपितु अपनों (संपूर्ण समाज) के लिए जीतें हो। जिसका जीवन निःश्रेयस (जो यश की इच्छा न करें) होता है। जो कभी यश नहीं चाहता, जो कभी मेहनताना नही मांगता और कभी समाज पर विपदा आती है तो इस बात का इंतजार भी नहीं करते की विपदा के समय कोई उनसें सहायता मांगनें के लिए आए तभी हमें सहायता के लिए जाना है। इस प्रकार के देव दुर्लभ लोगों का निर्माण खुले आसमान के नीचे विश्व के सबसे बड़े गैर पंजीकृत संगठन “राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ” की साल के 365 दिन चलने वाली एक घंटे की दैनंदिनी शाखा में होता है। उस एक घंटे की शाखा में जब खेल के दौरान जो टीम विजयी होती है, तो वहां किसी व्यक्ति विशेष की जयघोष नही होता। अगर जयघोष का उदघोष लगाया जाता है तो केवल भारत माता की जय का। इसी रोजाना एक घंटे के लिए दैनिक सहज मिलने-जुलने से अकाट्य संस्कार स्वंयसेवकों में मन पर अमिट छाप छोडतें है। जिसके बाद अपनी दैनिक क्रिया में वो जो भी कार्य करतें है तो राष्ट्र को केंद्र में रखकर करते हैं। जिससे उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नही मिलता और समाज भी जिनका अनुशरण करता है। रोजाना के घंटे भर के कार्यक्रम में एक सह संपद और सम्यक करवाते-करवाते कब समाज को सम्यक करवानें लगते हैं इस बात का उन्हें भी नहीं पता लग पाता। अंत में सारे कार्य़क्रम पूरे हो जाते है तो शाखा विकिर के दौरान जब प्रार्थना होती है तो उसमें भी ऱाष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकर्ता भगवान से इस प्रकार वंदना करतें है।
“हे सर्व शक्तिमय परमेश्वर! हम हिन्दुराष्ट्र के अंगभूत घटक । तुझे आदर पूर्वक प्रणाम करते है। त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं(तेरे ही कार्य के लिए हमने कमर कसी है ) अपने इस राष्ट्र को परम वैभव पर हम ले जा सकें और इसके अंत में फिर भारत माता की विश्व भर में जय कर सकें।“
इस शाखा की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 1925 विजय दशमी संस्थापना के प्रथम दिन से ही संस्थापक “डा केशव राव बलिराम हेडगेवार” ने देश प्रथम इस बात को स्वंयसेवकों के जहन में उतार दिया था। यानि संगठन से भी बडा है तो वो देश है। जिसका आजतक भी शाखा में सख्ती से पालन होता है।
इसी पद्धति से देशभक्ति से ओतप्रोत कार्यकर्ता अपने अंदर सही गुणों का निर्माण कर संघ के स्वंयसेवक समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समाज परिवर्तन के कार्य में लगे हुए हैं।
केवल नारों से नही प्रत्यक्ष कार्य करते है स्वंयसेवक
केवल भारत माता की जय कहनें से जय नहीं होती। इसके लिए प्रत्यक्ष कार्य भी करना पड़ता है। जिसका वें प्रत्यक्ष उदाहरण देश और समाज के सामनें प्रस्तुत कर चूके हैं। इसमें चाहे 1962 के भारत-चीन का युद्ध हो य़ा फिर 1965 और 71 का युद्ध पाकिस्तान के साथ हो। इसमें संघ के स्वंयसेवकों ने अग्रणी भूमिका निभाई है। 1965 के युद्ध के समय तो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल के समय दिल्ली की ट्रैफिक व्यवस्था का संचालन भी संघ के स्वंयसेवकों ने किया था।
ऐसी ही एक घटना भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के सामने की है। जो खुले मंचों से कहते थे कि आरएसएस के लोगों के लिए पूरे भारत में भगवा ध्वज लगाने के लिए सूईं की नोंक जितनी जगह भी नही दूंगा लेकिन 1962 के युद्ध में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की सेवा और समर्पण देखकर 26 जनवरी 1963 की सेना की परेड के साथ 3500 पूर्ण गणवेशधारी स्वंयसेवकों की टुकडी को परेड में हिस्सा लेने की अनुमति भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु ने ही दी थी। जिसका कई कांग्रेसी नेताओं ने नेहरु के सामनें इस बात का विरोध भी किया था कि आरएसएस के लोगों को परेड में क्यों शामिल किया जा रहा है। देशभक्ति से ओतप्रोत घटना तो इतनी है कि अगर उस पर लिखा जाए तो कई पुस्तकें लिखी जा सकती है।
संघ को समझनें के लिए खूले आसमान के नीचे दैनिक लगनें वाली एक घंटे की शाखा में जाना पडेगा क्योंकि वहीं पर बाल, तरुण और युवकों को दैनंदिनी शाखा में संस्कार निर्माण की गतिविधिया चलती है।