राहुल की ताजपोशी कितनी उचित?

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राकेश कुमार आर्य


कांग्रेस अपने ‘युवराज’ राहुल गांधी की ताजपोशी अगले माह करने की घोषणा कर चुकी है। बहुत दिनों से यह कयास चल रहे थे कि राहुल गांधी की ताजपोशी शीघ्र ही होने वाली है। सोनिया गांधी इस समय अस्वस्थ चल रही हैं। इसलिए उनकी भी इच्छा थी कि यथाशीघ्र राहुल को वह अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर दें।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की होने वाली ताजपोशी की कई लोगों ने प्रशंसा की है तो कई ने आलोचना की है। आलोचना करने वालों को यह कार्य भारत के लोकतंत्र में वंशवाद को बढ़ावा देने वाला लगता है, जो कि लोकतंत्र के लिए उचित नहीं माना जा सकता, जबकि प्रशंसा करने वालों को इसमें वंशवाद कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा, उन्हें यह शुद्घ लोकतांत्रिक लगता है। उनका मानना है कि जनता ही लोकतंत्र में नेता का चयन करती है और यदि जनता राहुल को पार्टी का अध्यक्ष के रूप में मान्यता दे रही है तो इसमें बुरा क्या है?
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कुल मिलाकर राहुल गांधी की ताजपोशी लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक के झूले में झूलती नजर आ रही है। इसी पर हम विचार करें तो यह सच है कि किसी भी पार्टी को अपना अध्यक्ष चुनने का पूरा अधिकार है। वह किसे अपना अध्यक्ष चुने?- यह उसका विशेषाधिकार है। पर यदि पूरी ईमानदारी से इस प्रकार के तर्कों पर विचार किया जाए तो इन तर्कों में सत्य को छिपाने की और लोकतंत्र को अपमानित करने की गंध आती है। किसी भी पार्टी को अपना नेता चुनने के लिए अपने नेताओं में जननायक बनने की और जनापेक्षाओं पर खरा उतरने की खुली और स्वस्थ परम्परा अपनानी चाहिए। प्रतिभाओं को निखारने का और मुखर होने का स्वस्थ अवसर उपलब्ध कराना चाहिए। जब नेता अपनी प्रतिभा को मुखर होकर जनता के बीच बिखेरने लगते हैं तो उससे जनता को अपना नायक चुनने में सुविधा होती है। लोकतंत्र का यह स्वस्थ और सुंदर ढंग है, जिसे अपनाया जाना अपेक्षित है।
इस ढंग पर यदि विचार किया जाए तो कांग्रेस ने कभी भी किसी भी व्यक्ति को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन करने का खुला और स्वस्थ लोकतांत्रिक मार्ग नहीं दिया। इसमें स्वतंत्रता पूर्व गांधीजी की पसंद ही पार्टी की पसंद होने की स्वस्थ लोकतांत्रिक तानाशाही थी, उसे ही कांग्रेस ने लोकतंत्र की जीत कहा और जीते हुए सुभाषचंद्र बोस को भी पार्टी छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया। कांग्रेस ने इसे लोकतांत्रिक परम्परा कहकर एक संस्कार के रूप में अपनाया। इसी संस्कार पर कार्य करते हुए नेहरू काल में कांग्रेस आगे बढ़ी। बाद में इंदिराकाल में यह संस्कार शुद्घत: ‘अलोकतांत्रिक तानाशाही’ में परिवर्तित हो गया, जब वह स्वयं ही पार्टी की अध्यक्ष और देश की प्रधानमंत्री बन गयीं। कांग्रेस के इसी संस्कार को सपा, बसपा और शिवसेना और कई अन्य राजनीतिक दलों ने भी अपनाया। इन दलों ने एक परिवार के किसी खास व्यक्ति को ही अपना नेता मानने की परम्परा को अपनाया और यह पूरा प्रबंध कर लिया गया कि कोई अन्य प्रतिभा पार्टी मेें सिर भी न उठा सके। यदि किसी ने सिर उठाने का प्रयास किया तो उसका सिर फोडक़र उसे बैठाने की भी कार्यवाहियां हुई, जो अब इन पार्टियों के इतिहास का एक अंग बन चुकी हैं।
‘लोकतांत्रिक तानाशाही’ और ‘अलोकतांत्रिक तानाशाही’ से सिर फोडऩे तक के खेल में जिन लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उन्होंने जनता की सोचने, समझने और निर्णय लेने की क्षमता को खतरनाक स्तर तक प्रभावित किया। जनता को इस बात के लिए विवश किया गया कि हमारे पास यही चेहरा है और तुझे इसी पर मोहर लगानी है। उत्तर प्रदेश में दो पार्टियां बारी-बारी शासन करती रहीं-उनके वही घिसे-पिटे चेहरे सामने आते रहे। हरियाणा में एक समय था जब ‘तीन लालों’ की तूती बोल रही थी। उन तीन से आगे चौथा कोई पनपने ही नहीं दिया गया।
अब पुन: कांग्रेस पर ही आते हैं। कांग्रेस ने पिछले कई वर्ष से राहुल गांधी को भारतीय राजनीति में स्थापित करने के लिए भारी धनराशि व्यय की है। उसे यह जिद रही है कि पार्टी की कमान एक ही व्यक्ति को दी जानी है और वह राहुल गांधी हैं। मां के बाद बेटा ही राजगद्दी को संभाले यह पूरी व्यवस्था की गयी। इसीलिए उन्हें ‘युवराज’ कहकर सम्बोधित करने वाले लोग इस समय देश में पर्याप्त हैं।
राहुल गांधी वंशवादी व्यवस्था में अलोकतांत्रिक ढंग से सत्ता पर काबिज होने की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने पिछले कुछ समय से अपने भीतर के छिपे हुए नेता को मुखरित करने का प्रयास भी किया है-यह एक अच्छी बात है। हम यह भी मानते हैं कि मोदी जैसे विशाल व्यक्तित्व से वह लड़ रहे हैं और मैदान में टिके हैं-यह भी उनके लिए अच्छी बात हो सकती है, परन्तु वह जिस रास्ते से अध्यक्ष बन रहे हैं, वह उचित नहीं है? उन्होंने कांग्रेस में ये स्थिति बनायी है कि कोई भी चुनाव के लिए मुंह न निकाल सके, और अब जब यह सुनिश्चित हो गया है कि कोई भी उन्हें चुनौती देने की स्थिति में नहीं है तो सोनिया गांधी ने उनकी ताजपोशी का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। यदि सोनिया गांधी इसी काम को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के एक दम बाद करतीं तो क्या होता? सबको पता है।
इस समय हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव चल रहे हैं। कांग्रेस पार्टी की यद्यपि गुजरात में बढ़त बतायी जा रही है, परन्तु फिर भी वह अपनी निर्णायक जीत के प्रति आश्वस्त नही ंलगती। उसे डर है कि यदि वह गुजरात में भी हार गयी तो उसके बाद राहुल गांधी की ताजपोशी में दिक्कतें आतीं। इसीलिए सोनिया गांधी के प्रबंधकों ने इन दोनों प्रदेशों के चुनाव परिणाम से पूर्व ही यह कार्य कर लेना उचित समझा।
जब किसी बड़े व्यक्तित्व की कृपा से ही सब कुछ तय होने लगता है तो पार्टी रसातल को जाने लगती है। भाजपा को प्रयास करना चाहिए कि वह अपने आप को कांग्रेस की कार्बन कॉपी न बनाये, अन्यथा ‘युवराजों’ को ही या ‘कृपापात्रों’ को ही नेता बनाने की बीमारी का कुसंस्कार उसे वैसे ही ले डूबेगा जैसे कभी कांग्रेस गांधी-नेहरू व इंदिरा गांधी की कृपा से या स्वेच्छाचारिता से अपने अध्यक्षों का मनोनयन कर रही थी तो वह अपने दुर्भाग्य को स्वयं ही आमन्त्रित कर रही थी। आज कांग्रेस का वह दुर्भाग्य सार्वजनिक रूप से नंगा नाच कर रहा है। इस नंगे नाच में भी कांग्रेस ने पुन: अपना इतिहास दोहरा दिया है और एक महिला की अध्यक्ष मनोनयन की शक्ति के सामने झुककर अपना अध्यक्ष चुन लेना चाहती है। कांग्रेस के लोकतंत्र को नमस्कार। निश्चित रूप से उसका यह अपना घरेलू विषय है कि वह किसे अपना अध्यक्ष बनाये?- पर जब किसी के विशेषाधिकार से देश के अधिकार और देश का भविष्य जुड़ा हो तो उसे आप यह कहकर नजरन्दाज नहीं कर सकते कि यह तो उसका अपना घरेलू मामला है। लोकतंत्र को इन जुमलों से और पाखण्डी वाक्यों से बचाकर चलने की आवश्यकता है। कांग्रेस को ऐसा व्यक्ति चुनकर जनता को देना चाहिए था जो मोदी से इक्कीस होता। मोदी सरकार की भूलों या कमजोरियों से राहुल गांधी देश के नेता बन जाएं तो अलग बात है पर अभी वह सामने वाले की टक्कर के नेता नहीं हैं, फिर भी उनकी नई भूमिका और नई जिम्मेदारी के लिए हम भी उन्हें अपनी अग्रिम शुभकामनाएं देते हैं।

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