संजीव जी, ‘अंजाम’ हमें नहीं पता, आप बताएं.

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-पंकज झा

पंकजजी का मुझे संबोधित लेख प्रस्‍तुत है। प्रवक्‍ता पर बहुत विवाद हो गए। हम इस विवाद कांड को यही पर रोक रहे हैं। मेरी स्‍वयं की भी विचारधारा है, इसलिए सहज है कि मैं भी तमाम विचारधाराओं का विरोधी हूं लेकिन मेरे मन में वैचारिक विरोधी लेखकों के प्रति तनिक भी द्वेष नहीं है। पता चला है कुछ लोग प्रवक्‍ता की प्रगति से मर्माहत हैं। इससे मुझे कष्‍ट हुआ है। जो लोग वेबजगत के बारे में थोड़ा-बहुत भी जानते हैं, वे जानते होंगे कि कितनी मेहनत लगती है वैकल्पिक मीडिया को समर्पित वेबसाइट को चलाने में।  कोई काम जब शुरू होता है तो इस तरह की बाधाएं मार्ग में आती है। लेकिन हमें स्‍वामी विवेकानंद का वचन अच्‍छी तरह याद है कि ‘’हर एक बड़े काम को चार अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है: उपेक्षा, उपहास, विरोध और अंत में विजय।’’ यही वचन हमारा सम्‍बल है और आगे काम करने का हौसला मिलता है। वेबजगत में ही कई अच्‍छी वेबसाइटें सामने आईं लेकिन समय का थपेड़ा उन्‍हें लील गया। हम आदर्शवाद के हमसफर हैं और अपनी जिद्द के चलते लाभ-हानि के चक्‍करों से मुक्‍त होकर हिंदी की ध्‍वजा पूरे विश्‍व में फहराना चाहते हैं। हम चाहते हैं लोगों में नागरिक बोध प्रबल हो, वैज्ञानिक नजरिया पुष्‍ट हो और राष्‍ट्रवादी चेतना का विकास हो।

पंकजजी बार-बार एक ही सवाल खड़ा कर रहे हैं, ‘’यह समय सीधे तौर पर निष्कर्ष की मांग करता है…. क्या संपादक द्वारा किसी एक लेखक को ज़रूरत से ज्यादा जगह देना उचित है…’’ साथ में आपने यह भी पूछा है, ‘’बहस के किसी ठोस निष्कर्ष से हम पाठकों को ज़रूर अवगत कराएं’’ तो पंकजजी मैं कोई न्‍यायाधीश नहीं हूं कि सीधे-सीधे दो टूक फैसला दे दूं, यही तो सामंती और फासीवादी प्रवृत्ति का लक्षण है। और मनुष्‍य के बारे में बिना किसी बड़े कारण के दो टूक फैसला करना अन्‍याय होगा। हमारा मानना है कि हम प्रवक्‍ता पर जाति, मजहब, क्षेत्र, भाषा और लिंग के आधार पर विद्वेष फैलाने और हिंसा के लिए उकसाने वाले लेखों को स्‍थान नहीं देंगे। इसलिए मैं यही निवेदन करूंगा कि जगदीश्‍वरजी प्रतिदिन एक लेख लिख रहे हैं तो आप दो विचारशील लेख लिखिए।

प्रवक्‍ता के सभी पाठकों को दीपावली के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाओं सहित-

आपका, संजीव

आ. संजीव जी. आपने अपने चुनौतीपूर्ण लेख में मुझे यह कहा था कि मेरे ‘झूठ’ का अंजाम मैं जानता हूँ. तो इस झूठ की बुनियाद जनता के सामने है. हां… अंजाम मुझे नहीं पता लेकिन अंजाम तक इस बहस के रिश्ते को पहुंचना मुमकिन हो, ये इच्छा ज़रूर है. हम बिलकुल यह नहीं चाहते कि आप इस बहस को एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ दें. पंडित जी के शब्द उधार लेकर कहूँ तो आपको ‘आर या पार’ का फैसला करना चाहिए, प्रणाली चाहे आप जो भी अपनाएं.

संजीव जी, यह समय अद्भुत है. इस समय की सबसे अच्छी उपलब्धि यह है कि इसने तकनीक के साथ ज्ञान को भी विकेंद्रीकित किया है. इस समय को कोई फतवा नहीं चाहिये, कोई पंडित नहीं चाहिए. इस समय ने अपना विवेक जगत खुद विकसित किया है. इस जगत को कोई इश्वर नहीं चाहिए. कोई पंडित नहीं चाहिए. यह समय, हर व्यक्ति, पेशा या समूह को शंका के नज़रिए से देखता है. तर्क की कसौटी पर कसता है. बुद्धि के तराजू पर तौलता है. यह समय विवेक के बाट का इस्तेमाल करना जानता है. यह समय ज्ञान-गरीबी-हरि-भजन, कोमल वचन अदोष, क्षमा शील संतोष की भाषा समझता है. इस समय को कोई अहंकारी नारेबाज नहीं चाहिए, इसे व्यावहारिकता की बात करने वाला, सीधे तौर पर सरल भाषा में संवाद करने वाला अपना आम आदमी चाहिए. यह समय ऐसे हर व्यक्ति को दुत्कारता है जो विचारधारा को कॉमन सेन्स से अलग करता हो. इस समय की नज़र में विचारधारा नान-सेन्स से तय नहीं हुआ करते. यह समय उसे आचरण में उतारने लायक बनना और बनाना चाहता है. यह समय जगत किसी को यह अधिकार नहीं देता कि वह उसे अविवेकी कह दे. यह समय बहस करता है, विमर्श में भागीदार होता है. तकनीक ने उसे एकतरफा संवाद या वकवाद झेलने की मजबूरी से मुक्ति दी है. इस समय ने हर व्यक्ति को सहभागी बनाया है. यह समय नयी मीडिया में भरोसा करता है. इस समय ने संवाद की अनेक़ विधा विकसित की है. यह समय मात्र 140 शब्दों की सीमा में देश की राजनीति और नेताओं के भविष्य को तय करने का हुनर जानता है. इस समय ने खुद नए तरह का तकनीकी समाज, अपना आभासीय मार्ग निर्मित किया है और उस पर यह समय सरपट दौड रहा है, दौड़ना चाहता है. यह समय लाख व्यस्तता के बावजूद अपने इस नए बनाए लोक में मदमस्त हो विहार भी करता है.

यह समय मीडिया के Interactive स्वरुप से प्यार करता है. यह समय बहस को केवल बुद्धि-विलास का साधन मात्र, खाए-अघाए लोगों का प्रलाप मात्र नहीं मानता है. यह समय सीधे तौर पर निष्कर्ष की मांग करता है. यह समय गलती बार-बार करता है, लेकिन समझ आने पर गलती को स्वीकार भी करता है. समय अनुसार तब्दीली भी करना जानता है. तो यह समय सीधे तौर पर आपके प्रवक्ता से भी कुछ आग्रह करता है, कुछ मांग करता है, आप चाहे तो इसे चुनौती भी समझ सकते हैं.

तो आ. संजीव जी, यह समय अद्भुत तो है, लेकिन कई मायनों में यह समय कठिन भी है. इस समय का सबसे बड़ा संकट भरोसे का है. यह समय आपसे न केवल ईमानदार होने अपितु ईमानदार दिखने की अपेक्षा भी करता है. अन्यथा यह समय तुरंत पारदर्शिता को नंगापन कहने में समय नहीं लेता. इस समय में हमें वैचारिक संघर्ष बनाम नूराकुश्ती, सार्थक बहस बनाम सस्ती लोकप्रियता के लिए प्रयास, मतभिन्नता बनाम मनभेद, विचार बनाम प्रोपगंडा आदि के मध्य की महीन रेखा को मोटी करना होता है. सीधे तौर पर हमें निष्कर्ष तक पहुचंने की जुगत भिड़ानी होती है. खैर.

अब ऊपरी अमूर्त बातों के बरक्स कुछ सीधी-साधी बातें. जब यह बहस शुरू हुई तो कहीं भी किसी तरह का व्यक्तिगत पूर्वाग्रह-दुराग्रह नहीं था. सीधे तौर पर कुछ मोटे-मोटे से सवाल थे जिसे आपने अपने लोकतांत्रिक निष्ठा का परिचय देते हुए अपनी एक टिप्पणी के साथ सीधे ‘लोक’ को अग्रेसित कर दिया. उस लोक को जिसका संग्रह आपने काफी मिहनत से किया है. उस लोक को जिस पर वास्तव में प्रवक्ता को गर्व है. उस लोक को जिसके बौद्धिक और वैचारिक होने से पंडित जी के अलावा किसी को भी इनकार नहीं है. उस लोक को जो आपकी, हमारी, हम सबकी थाती है. उस लोक को जो केवल टिप्पणीकार नहीं हैं. वह Examinee Is Better Then Examinar हैं. आपकी सबसे बड़ी सफलता यही है कि आपने ऐसा लोकमंच खड़ा किया जहां सभी विचारों का सम्मान है. इस पर आने वाले पाठक या टिप्पणीकार लेखक से कई गुना विद्वान-बुद्धिमान, सरोकार और संस्कारवान हैं.

तो इस विमर्श या लोकमत संग्रह ने सभी संबंधित लोगों को लाभान्वित ही किया है. हम जैसे नए लोगों को प्रेरित उत्साहित किया है. सैकड़ों नए लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है. सचिन जी जैसे वामपंथी रुझान वाले तो समन्वय जी जैसे राष्टवादी युवक को शानदार आलेख लिखने को प्रेरित किया है. माननीय टिप्पणीकारों द्वारा सभी लेखकों को सार्थकता भी प्रदान की गयी है. और तो और पंडित जी जैसे विद्वानों को भी पुनर्विचार करने का, अपनी शैली को थोडा बहुत बदलने का भी मौका दिया है. (यह इस बात से भी साबित होता है कि आ. जगदीश्वर जी अब दूसरे के लेखों पर टिप्पणी भी देने लगे हैं).

लेकिन यह तमाम लाभ इस बहस के उप-उत्पाद (By-Product) की तरह ही है. इसका असली साफल्य इस बात में होगा कि, बहस में उठाये गए सवालों का जबाब ढूंढ कर प्राप्त निष्कर्ष से हम पाठकों को अवगत कराया जाय. सवाल सीधे थे कि क्या संपादक द्वारा किसी एक लेखक को ज़रूरत से ज्यादा जगह देना उचित है? या लेखक से यह निवेदन किया जाय कि उन्हें जो भी कहना हो एक या दो लेखों में संक्षिप्त और सारवान रूप से कहें? क्या यह उचित है कि अगर ज़रूरत हो और जनमत इसके पक्ष में दिखे तो संपादक को भी अपनी संपादकीय नीति में थोडा-बहुत फेरबदल करने के लिए स्वतः-प्रेरित होना चाहिए…आदि-आदि.

तो संजीव जी, निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए पंडित जी को संबोधित लेख में इस पाठक ने संचार शोध के प्रचलित तरीकों के साथ निष्कर्ष तक पहुचने का आह्वान किया था. लेकिन उनका इस आह्वान पर भी क्या रुख है वह उनकी टिप्पणियों से साबित हो गया. लेकिन आप चूंकि लोकतंत्र में भरोसा करते हैं तो इन्ही तथ्यों को, प्राप्त आंकड़ों को मैं आपसे लोकतंत्र के नज़रिए से देखने की गुजारिश करता हूँ. उसी तरीके से आप निष्कर्ष तक पहुचें, हम पाठकों को बताएं, और अगर निष्कर्ष हमारे पक्ष में दिखे तो घोषित रूप से अपनी नीति में यदि रद्दोबदल ज़रूरी लगें तो करें भी. ऐसे स्वीकार्यता से आपका कद ही ऊंचा होगा. इन दोनों तरीकों के अलावा अगर निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए आप किसी अन्य माडल पर भी विचार करना चाहें तो वो भी करने को आप स्वतंत्र हैं.

आ. संपादक जी. आपका दायित्व निश्चय ही काँटों के ताज जैसा है. व्यक्तिगत रूप से आपकी निष्ठा पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है. लेकिन बहस के बाद से ही कई लोगों ने व्यक्तिगत बातचीत-लिखचीत में इस बहस को प्रोपगंडा साबित करने की कोशिश की है. तो अब जब यह विमर्श एक उबाऊ रूप लेता जा रहा है लेकिन बावजूद उसके चीज़ें वही की वही हैं. अभी भी पंडित जी पूर्ववत धुरछार लगातार पोस्टियाते जा ही रहे हैं और साथ-साथ बहस भी चल रहा है कि ऐसा होने दिया जाय कि नहीं. खैर.

हम जैसे कनिष्ठ लोगों को इतना महत्व देकर बहस को इतना रोचक बनाने के लिए सभी टिप्पणीकारों-पाठकों-लेखकों एवं आ. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के साथ-साथ आपके प्रति भी अनन्य-अशेष आभार प्रकट करता हूँ. साथ ही यह विनम्र निवेदन दुहरा भी रहा हूँ कि बहस के किसी ठोस निष्कर्ष से हम पाठकों को ज़रूर अवगत कराएं. यह अन्य चीज़ों के साथ हम सबके विश्वसनीयता के लिए भी आवश्यक है….धन्यवाद एवं सादर….आपका ही.

15 COMMENTS

  1. यह जान लेने के बाद कि श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी जो कुछ लिखते हैं, वह कूड़ाघर से अधिक कुछ भी नहीं है, किसी को भी उनके कारण स्वयं को निर्वासित नहीं करना चाहिये। श्री चतुर्वेदी चूंकि ईमानदार चिंतक नहीं है, सिर्फ कम्यूनिस्म की एडवर्टाइज़िंग एजेंसी हैं, उनके लिखे हुए कचरे को लेकर चिंतित क्यों हुआ जाये?

  2. कमाल है प्रवक्ता पर ऐसा भी हो चुका है? येह तो सरासर तानाशाही और फासीवाद है कि आप सम्पादक से अपनी मर्झी का निश्कर्श चाह्ते है

  3. आदरणीय संजीव जी,
    मै प्रवक्ता का नया पाठक हू| आज पंकज जी ,चतुर्वेदीजी और आपके इन प्रसंगों को पढ़ा ,बहुत दुःख हुआ |हिंदी में एसे ही बहुत कम साईट है उसमे भी बिना वजह की टिप्पणिया|मुझे समझ मै नहीं आता,आखिर हम एक सार्थक बहस के माध्यम से देश को आगे इस जड़ता से ले जाना चाहते है या कुछ और ……

    ईमानदारी से लिख रहा हू ,चतुर्वेदी जी के लेखो मे आलोचना के सिवा कुछ नहीं है |मैंने उनके लेखो को पढ़ा ,लेकिन टिप्पणी नहीं दी,क्योकि इनको उपैझित करना ही ठीक है,इस देश मे जिसको देखो आलोचना मे लगा है |हिम्मत है तो सुधारो न ,किसने रोका है |केवल केकड़ा संस्कृति को ही जीवित रखना है तो फिर ठीक है.

  4. “आप में से अधिकतर लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं.फलस्वरूप आप लोग यथार्थ को देख ही नहीं पाते.इसी श्रेणी में पंकजजी जी भी आते हैं.जगदीश्वर चतुर्वेदीजी भी आते हैं.श्री मीणा और डाक्टर कपूर भी मेरे विचार से इसी श्रेणी में आते हैं.”

    श्री आर सिंह जी, सकारात्मक आलोचना के लिए धन्यवाद!

  5. परिस्थितियाँ कुछ ऐसी रही की प्रवक्ता से इधर बहुत दिनों से दूर रहा,पर अब जब पुराने अंकों को अवलोकन करने चला हूँ तो पाता हूँ की इसी बीच बहुत कुछ हो चूका है और काफी कुछ बदल गया है.मैंने पहले भी लिखा है और आज भी दुहरा रहाहूं की आप में से अधिकतर लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं.फलस्वरूप आप लोग यथार्थ को देख ही नहीं पाते.इसी श्रेणी में पंकजजी जी भी आते हैं.जगदीश्वर चतुर्वेदीजी भी आते हैं.श्री मीणा और डाक्टर कपूर भी मेरे विचार से इसी श्रेणी में आते हैं.आप सज्जन यह क्यों सोच लेते हैं की आप जो कह रहे हैं वही सही है,मेरी तो समझ यही कहती है की आप के तर्क या मत में ऐसी ताकत होनी चाहिए जिससे आप दूसरे से उसको मनवा सके.अपनी लिखने या बोलने की ताकत के बल पर तो लोग अपने विरोधियों को पछाड़ने में हमेशा कामयाब रहे हैं.एक दूसरे से गाली गल्लौज या एक दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयत्न से तो कुछ होने वाला नहीं.रह गयी बात संजीवजी की चतुर्वेदीजी का पक्ष लेने की बात तो मुझे तो यही समझ में आता है की एक तो संजीव जी अभी युवा हैं और साम्यवाद से प्रभावित हो सकते हैं.चतुर्वेदीजी को ज्यादा महत्व देने का कारण चतुर्वेदीजी की लोकप्रियता या अलोकप्रियता भी हो सकती है.यह तो आप सब मानेंगे की चतुर्वेदीजी को लोग सबसे ज्यादा पढ़ते हैं कोई भी सम्पादक ऐसे लोगों को वरीयता देगा.चतुर्वेदीजी के बारे में तो मेरा यही कहना है की बदनाम हुए हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ?अतः आप सब महानुभावों से यही अनुरोध है की आप लोग अपनी भाषा और विचारों में पैनापन तो लाइए और अपनी विचारधारा को आगे बढाने में तर्कों का इस्तेमाल कीजिये,एक दूसरे के व्यकिगत रूप से विरोधी मत बन जाइये.

  6. किसी भी विचार की अति वो भी कान आंख बंद करके बौध्दिक विमर्श नहीं बल्कि निरा प्रचार ही होता है अपनी विचार धारा का..और वे तो उस चीज के बारे मैं लिख रहे हैं जिसका कखग भी उन्हें पता नही….याने राष्ट्रवाद ….और उसकी भी सिर्फ आलोचना आलोचना और आलोचना बिना सुने समझे…बिना खङे किये सवालों का जवाब दिये…..वे मार्कस्वाद के बारे मैं लिखें तो जायज है…….और वैसे भी ब्लोग कोई अखबार या पत्रिका नहीं है….यहां यदि आप जवाब नहीं दे रहें है तो आपको लिखना बंद कर देना चाहिये….अपने ज्ञान की उल्टी की सङांध आप दूसरे लोगों के लिए छोङकर नहीं जा सकते….आप को जवाब देना होता है….पर नहीं वे फिर हो हाजिर होते हैं वही पुरानी संघ और राष्ट्रवाद विरोधी धुरी लेकर …..ये बौध्दिक विचार विमर्श नहीं बल्कि बौद्धिक धूर्तता है….और प्रवक्ता इसके जाल मैं फंस रहा है….

  7. किसी लेख को प्रवक्ता में शामिल करने और न करने के पैमाने क्या हैं? जहाँ तक मैं समझता हूँ वामपंथी लेख, जो प्रवक्ता में प्रकाशित हो रहे हैं समाज में विश ही फैला रहे हैं.
    संजीव द्वारा पंकज पर की गई टिपण्णी गरिमा के अनुरूप नहीं है. ऐसे तो यदि ये फ्री माध्यम हैं तो इस्लामी चरमपंथियों के पक्ष में लेख भी इसमें प्रकाशित होनी चाहिए. और संजीव को हर प्रकार का नियंत्रण समाप्त कर देने की घोषणा कर देनी चाहिए.
    वामपंथी लेखक बस प्रवक्ता के पाठकों को भटका रहा है और स्वस्थ जनमत के निर्माण में बाधक है. ऐसे वामपंथी लेखकों के भाव लोकतान्त्रिक सोच के सर्वथा प्रतिकूल है.
    संजीव क्यों कर ऐसे असभ्य लेखक के बचाव में उतर आये हैं ये समझ के परे है? मेरी जहाँ तक समझ है चतुर्वेदी जी जैसे लेखकों के लेख के प्रति संजीव जी को अधिक सतर्कता से देखने की जरुरत है. क्या उनके लेख समाज के लिए घातक तो नहीं है? क्या ऐसे लेख सस्ती लोकप्रियता के लिए या पैसे में बिक कर तो नहीं लिखे जा रहे हैं?
    मेरी और प्रवक्ता के अधिकाँश पाठकों की समझ संजीव जी के समझ से मेल नहीं खाती. ये सचाई है.
    संजीव जी प्रवक्ता को चलने का ये तरीका आपको भारी न पड़ जाए समय रहते संभल जाइये.
    पंकज जी के समर्थन में मैं भी अपनी टिपण्णी प्रवक्ता में तब तक नहीं दूंगा जब तक की वे वापस न लौट जाएँ. धन्यवाद.
    हाँ मैं सिर्फ इस विवाद से जुडी टिपण्णी दूंगा.

  8. पंकज झा जी को सादर वंदे !!!
    मैं पिछले २ वर्षों से आपके लेख को नियमित पढ़ रहा हूँ ! (अन्यों के लेख को भी नियमित पढता हूँ) विभिन्न विषयों पर राष्ट्रवादी चिन्तन को आपने समय समय पर प्रस्तुत किया है ! जिससे राष्ट्रवाद के बारे में बहुत जानकारी हमें प्राप्त हुई है , इसकी आवश्यकता भी महसूस हो रही थी !

    मैं आपसे एक छोटा सा प्रश्न पूछना चाह रहा हूँ कि क्या राष्ट्रवादी चिंतन पर जब वामपंथी कोड़े बरसा रहे होंगे तो आप मात्र इसलिए चुप बैठे रह जायेंगे कि किसी ने आपको फासीवादी कहा है? ये आपको कहाँ तक उचित लगता है?

    जहाँ तक संजीव जी या संपादक मंडल का प्रश्न है तो उन्होंने अपनी निति स्पष्ट कर दी है कि ये खुला मैंदान है जहाँ पर सभी विचार वाले अपने लेख लिख सकते हैं ! जहाँ तक सस्ती लोकप्रियता कमाने कि बात है तो एक बात हमें समझ लेनी चाहिए कि वेबसाइट और चैनल लोकप्रियता से ही चलते हैं ! चाहे ये सस्ती हो या महंगी ! क्या आप प्राइवेट चेनल को प्रवक्ता से अच्छा मानते हैं जहाँ सभी विचार वाले लोग बहस करने जाते हैं? जिसमे संघ समेत सभी दल के के प्रतिनिधि हिस्सा लेते हैं!

    राष्ट्रवादी चिंतन के घोर विरोधी समाचार पत्र में यदि कोई स्वयंसेवक लेख लिखेगा तो आप उसे क्या कहेंगे?

  9. पंकज जी आपके लेख को पढ़ कर अत्यंत दुःख हुआ आखिर वामपंथी अपनी चालों में सफल हो ही गए और संजीव जी आपकी जिद का तो मुझे कोई कारण नहीं समझ आता अगर आप चतुर्वेदी जी के लेखों पर आने वालें पाठकों और उनपर किये जाने वाले टिप्पणियों की संख्या से प्रभावित है तो ये जान ले कि ज्यादातर टिप्पणिया उनके विरोध में ही आती है क्योंकि उनकी लेखो का शीर्षक और उसमे लिखी गयी अनर्गल बातें राष्ट्रवादियों को उत्तेजित कर देती है और उनके लेखो कि टीआरपी बढ़ जाती है और सामान्य विषयों पर उनके लिखे गए लेखों पर कोई टिप्पणी भी नहीं करता मैंने तो पहले ही करना छोड़ दिया था
    सभी राष्ट्रवादियों से हार्दिक अनुरोध है कि कोलगेट टूथपेस्ट का विरोध करने से उसकी बिक्री रुक नहीं जाएगी दुकानदार अपने हितों को ध्यान में रखकर ये हमेशा ही कहता रहेगा कि जब तक बाज़ार में मांग है उसे सभी तरह के उत्पादों को रखना ही पड़ेगा इसलिए जरूरत है कोलगेट का बहिष्कार करने की न की केवल विरोध

  10. पंकजजी, असहमति के बगैर लोकतंत्र निष्‍प्राण हो जाएगा। इतना स्‍पेस तो आप देंगे ही कि मैं अपनी समझ मुताबिक आपकी आलोचना कर सकूं।

    गत 6 वर्षों से आपको जानता हूं। आप बड़े भावुक हैं। बताइए, ज़रा सी बात पर कोई अपना घर छोड़ कर जाता है क्या?

    प्रवक्‍ता के हमसफर प्रवक्‍ता की नैया मझधार में छोड़कर नहीं जा सकते, यह हमारा अटूट विश्‍वास है।

  11. आ. संजीव जी.
    जैसा कि आप जानते हैं कि प्रवक्ता से अपना भी जुड़ाव इसके शुरुआती दौर से ही रहा है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो वेब पर नियमित लेखन अपना प्रवक्ता से ही शुरू हुआ था. तो मिळकियत ये भले ही आपका या भारत जी का रहा हो लेकिन मुझे भी यह हमेशा अपना ही लगा. जब कई बार आपने अपने उचित सरोकारों के कारण मेरा लेख पोस्ट करने से इनकार भी किया तो भी आपका संपादकीय विशेषाधिकार समझ, फैसले को शिरोधार्य किया. लेकिन इस बार आपसे चाहे गए फैसले को सीधे तौर पर आपने फासीवाद और सामंतवाद कह दिया. हम फ़िर इस बात को दुहरा रहे हैं कि अगर इस बहस का कुछ सार नहीं निकला तो लोग इसे ‘प्रोपगंडा’ ही समझेंगे, क्योंकि हमारे लिए विश्वसनीय ‘होने’ के अलावा ‘दिखना’ भी ज़रूरी है. तो आपसे उम्मीद खत्म हो जाने पर मैं अपनी तरफ से एक पहल कर रहा हूँ. यह मेरे और प्रवक्ता की विश्वसनीयता कायम रखने के लिए शायद उपयोगी हो.
    आज से मैं एक लेखक और टिप्पणीकार के रूप में इस साईट से स्वयं को निर्वासित करता हूँ. यह साबित करने के लिए कि यह बहस महज़ बुद्धिविलास या सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का उपक्रम नहीं था, मेरे लिए यह ज़रूरी है. निश्चित ही मुझे प्रवक्ता से काफी प्यार है, अपने आ. टिप्पणीकारों,पाठकों, मार्गदर्शकों के प्रति अत्यधिक अनुग्रहित भी महसूस करता हूँ. निश्चित ही मैं अपने रूटीन की तरह प्रावाका पर आता भी रहूँगा. अपने प्रिय लेखकों, आ. टिप्पणीकारों को पढता भी रहूँगा. लेकिन जब-तक आप इस बहस का कोई निष्कर्ष सार्वजनिक नहीं करेंगे (हालांकि आप नहीं करेंगे यह आपने बता दिया है) तब-तक एक लेखक के रूप में अब इस साईट से खुद को निकाला दे रहा हूँ. सदा की तरह प्रवक्ता के लिए अनन्य-अशेश शुभकामना….आपको धन्यवाद.

  12. प्रवक्‍ता को लेकर हम बार-बार कहते रहे हैं कि प्रवक्‍ता लोकतांत्रिक विमर्शों का मंच है, जहां विभिन्‍न पक्षों के लोग एक साथ विचार-विमर्श करते हैं। लेकिन अभी ऐसी स्थिति उत्‍पन्‍न कर दी गयी है कि विभिन्‍न पक्षों के बीच कटुता का प्रसार हो रहा है। यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है। लोकतांत्रिक दायरे में रहकर कोई लेखक अपनी बात कहता है तो क्‍या उस पर रोक लगा दी जानी चाहिए? फिर यह तो सरासर अभिव्‍यक्ति की आजादी पर हमला है। लोकतांत्रिक ढांचे में इस तरह की प्रवृति के लिए कोई स्‍थान नहीं होता। बेवजह किसी भी लेखक या रचना पर रोक लगाना या सेंसरशिप की कैंची चलाना, निश्चित ही फासीवाद का लक्षण है। और जब हमें लगा कि अमुक लेख प्रवक्‍ता पर प्रकाशित नहीं करना चाहिए तो हमने प्रकाशित नहीं की, जिसमें पंकजजी आपके और जगदीश्‍वरजी के लेख भी शामिल हैं। ध्‍यान रहे कि इंटरनेट एक मुक्‍त माध्यम है, यहां किसी को रोकना संभव नहीं है। पंकजजी, मेरा आक्रमण बार-बार आपकी तरफ इसलिए है क्‍योंकि आप बार-बार प्रवक्‍ता पर सवाल उठा रहे हैं। आपसे निवेदन है कि प्रवक्‍ता पर तथ्‍यपरक और तार्किक बहस को आगे बढ़ाइए बजाए किसी पर बेवजह दोषारोपण के।

    और हां, मुझे नसीहत देने के लिए कि, यह आप जाने या आपका काम, आपको साधुवाद।

  13. संजीव जी आपका एक सम्पादक के नाते हम आदर करते हैं परन्तु पिछले कुछ दिनों से चल रहे घटनाक्रम से वाकई में दुःख हुआ है! पहले मैं अपने मित्रों को प्रवक्ता की मिसाल दिया करता था और इसमें छपने वाले सुन्दर लेखों की चर्चा किया करता था परन्तु अब मुझे कुछ संदेह हो रहा है और ऐसा स्पष्ट भी है की लेखों की quantity बढती जा रही है और quality घटती जा रही है !

    पंकज जी के कुछ लेखों को पढ़कर ही मैं प्रवक्ता की तरफ आकृष्ट हुआ था और अब बात चतुर्वेदी जी पर आ कर अटक गई है ये बात तो स्पष्ट है की अगर दोनों लेखकों में से चुनाव करने को कहा जाए तो ९६% लोग पंकज की का ही चुनाव करेंगे क्यूंकि जो लोग प्रवक्ता पर आते हैं और अपना वक्त देते हैं वो कबाड़ पढने के लिए नहीं आते हैं!

    किसी विवादस्पद स्थिति में पहुँचने से पहले आपको एक संपादक होने के नाते सही कदम उठाने चाहिए ताकि प्रवक्ता.कॉम की साख और पाठकों की आशाओं को झटका न लगे!
    धन्यवाद!!!

  14. निर्णय तो संजीव जी के हाथ में है और जनमत स्पष्ट है .आप अपने ब्लॉग को किस ऊचाई तक ले जाना चाहते है ये आप के हाथ में है .

  15. निष्कर्ष तो दे दिया आपने संजीव जी. आपको आपका सरोकार एवं निष्कर्ष मुबारक. अब इससे बड़ा कोई न्यायाधीश क्या फैसला दे सकता है कि ”यही तो सामंती और फासीवादी प्रवृत्ति का लक्षण है”. यानी मेरे द्वारा उठाये सभी सवाल फासीवादी लेकिन आप और आपके पंडित जी सही. आश्चर्य यह है कि इस बहस में हस्तक्षेप करते हुए हमेशा आपका आक्रमण केवल मेरी तरफ ही रहा. पंडित जी का पक्ष हमेशा आपको सही लगा. किसी बहस को निष्कर्ष तक पहुचाने की मांग करना ‘फासीवाद’ और ‘सामंतवाद’ है. वाह क्या सुन्दर तर्क गढ़ा है आपने. संजीव जी, फासीवाद या सामंतवाद कभी ‘फैसले की मांग’ नहीं करता, वह ‘फैसला करता’ है. फैसले की मांग करना विशुद्ध लोकतांत्रिक पद्धति है. आपको मेरे सवाल में ‘द्वेष’ दिखा यह भी अपने-आपमें अजूबा है. खैर.
    जिस लोकतंत्र की बात आप हमेशा करते रहते हैं, उस ‘लोक’ का आशीर्वाद मुझे मिला. इसी आशीस एवं समर्थन को मैं अपना प्राप्य समझता हूँ. आपने प्रवक्ता के इस प्रकल्प के द्वारा जो ‘लोक संग्रह’ किया है वह निस्संदेह तारीफ़ की मांग करता है. और उस ‘लोक’ से मुझे मिले स्नेह ने कृतग्य किया है मुझे. हां अपने जिद्द के चलते आप रत्ती भर भी अपने जगह से हिलना नहीं चाहते हैं तो यह आप जाने या आपका काम. बहुत धन्यवाद पुनः आपको….सादर.

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