संस्कार की शुभ गति निरखि,
आभोग को कबहू परखि;
मम मन गया सहसा चहकि,
कबहुक रहा था जो दहकि !
झिझके झुके झिड़के जगत,
भिड़के भयानक युद्ध रत;
हो गए जब संयत सतत,
भव बहावों से हुए च्युत !
बाधा व्यथा तब ना रही,
धुनि समर्पण की नित रही;
चाहत कहाँ तब कोई रही,
जो मिल गया भाया वही !
भावों में भुवनेश्वर रमा,
ईशत्व में स्वर को समा;
ऐश्वर्य में उर प्रस्फुरा,
आलोक लख लुप्तित धरा !
घन-श्याम में हर लहर तकि,
ब्रज धाम गोपी रस थिरकि;
‘मधु’ परसि प्राणों की झलक,
प्रभु की धरा पाए कुहक !