विश्वास ना निज स्वत्व में !



विश्वास ना निज स्वत्व में, 

अस्तित्व के गन्तव्य में;

ना भरोसा जाया है जो,

ले जाएगा ले दिया जो ! 

बुद्धि वृथा ही लगा कर,

आत्मा की बिन पहचान कर;

ना नियंता को जानते,

ना सृष्टि की गति चीन्हते !

आखेट वे करते फिरे,

आक्रोश में झुलसे रहे;

बिन बात दूजों को हने,

वे स्वयं के भी कब रहे !

राहों को वे मुश्किल किए,

राहत किसी को कब दिए;

चाहत किसी की कहँ लखे,

व्याहत हुए बिन रब तके !

‘मधु’ की महक औ ठुमक में,

रचना के रस की ललक में;

वे सहज हो पाए नहीं,

आ स्वयम्भू की गोद में !

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