देश के छद्म धर्म निरपेक्षियों ने देश में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह मान लिया है कि हिन्दू का विरोध करो और अन्य संप्रदायों की साम्प्रदायिक मान्यताओं का समर्थन करो। नेताओं की इस घटिया सोच का परिणाम यह निकला कि हिन्दू त्यौहारों को भी राजनीतिज्ञों ने कम करके आंकना आरंभ कर दिया। यह तो भला हो इस देश की न्यायपालिका का कि वह हमारे नेताओं को समय-समय पर वैसे ही ‘पर कैच’ करती रहती है जैसे एक माली अपने बगीचे की समय-समय पर कटनी-छंटनी करता रहता है। यदि न्यायालय अपने इस धर्म का निर्वाह ना करे या उसके कानून और न्याय को भी नेताओं की राजनीति की तरह धर्मनिरपेक्षता का पाला मार जाए तो निश्चय ही देश की स्थिति और भी दयनीय हो जाएगी। अभी पिछले दिनों मुहर्रम के अवसर पर पश्चिम बंगाल के उच्च न्यायालय को दुर्गा की मूत्र्तियों के विसर्जन पर राज्य सरकार के द्वारा शाम चार बजे तक के किये गये समय निर्धारण के ‘तुगलकी आदेश’ को निरस्त करना पड़ा और न्यायालय ने कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए सरकार को कड़ी फटकार लगायी। न्यायालय का कहना सही था कि कानून व्यवस्था बनाना राज्य सरकार का काम है ना कि किसी की आजादी को प्रतिबंधित करना। पश्चिम बंगाल सरकार ने मुहर्रम के ताजियों के दृष्टिगत हिंदुओं को अपनी मूत्र्तियों के विसर्जन का 4 बजे तक का समय दिया था। यह आदेश एक प्रकार से हिंदुओं की आजादी में खनन डालने जैसा ही था।
अब आते हैं-एक दूसरी बात पर। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इस बार का दशहरा दिल्ली ना मनाकर लखनऊ में मनाया और वहां एक गैर राजनीतिक ओजस्वी भाषण भी दिया। इसको लेकर उनके विरोधियों ने उन पर प्रहार करना आरंभ कर दिया कि प्रधानमंत्री ने दिल्ली से अलग लखनऊ जाकर बड़ा ‘पाप’ कर दिया है और उससे भी अधिक भारी पाप उन्होंने अपने भाषण में ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष करके कर दिया। जिन लोगों ने मोदी के इस कार्य को राजनीति और धर्म की खिचड़ी पकाने की कार्यवाही माना है और इसकी आलोचना की है उन्हें तनिक यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब इस देश में ‘रोजा इफ्तार पार्टी’ चलती है तो उस पर वह मौन क्यों लगाते हैं? दशहरा इस देश की क्षात्र परंपरा का प्राचीनतम पर्व है, जिसे यह देश अत्यंत प्राचीनकाल से मनाता आया है और इस दिन समाज से हर प्रकार के अत्याचार आतंक या जुल्म को समाप्त करने का संकल्प इस देश का क्षत्रिय समाज प्राचीनकाल से ही लेता आया है। आज भी प्रतीक रूप में हम इस दिन अन्याय और अत्याचार के प्रतीक रावण को जलाकर अपने संकल्प को दोहराते हैं कि हमें किसी भी प्रकार का आतंक या अत्याचार सहन नही करना है। भारत की इस परंपरा को कांग्रेसी सरकारों ने चाहे कमजोर किया हो पर आज यदि मोदी ने लखनऊ में जाकर अपनी प्राचीन क्षात्र परंपरा को पुनर्जीवित कर दिया है या उस ओर एक अच्छा कदम बढ़ाया है तो इससे आतंकवाद के विरूद्घ लडऩे की हमारा क्षमताएं और बलवती हुई हैं। पी.एम. के भाषण के ऐसे आलोचकों को ध्यान रखना चाहिए कि 1965 के युद्घ के समय भी हमारे सैनिकों ने दशहरा के दिन ही पाकिस्तान के टैंकों की होली जलाई थी और हमारे संबंधित सैन्याधिकारी ने सुबह-सुबह अपने सैनिकों को यह कहकर ही प्रोत्साहित किया था कि-चलिए आज का दशहरा कुछ अलग नये अंदाज में मनाते हैं। तब हमारे वीर सैनिकों ने अपने अधिकारी का आदेश मानते हुए पाक की धरती पर जाकर उसे भारी क्षति देकर अपना दशहरा मनाया था। आज भी हमारी सेना दशहरा के दिन अपने हथियारों की साफ सफाई करती है। ऐसे में अपनी सेना को नई ऊर्जा यदि देश का पी.एम. दशहरा पर नहीं देगा तो क्या इन कांग्रेसियों के ‘वेलेंटाइन-डे’ पर देगा? सचमुच अकल का दिवाला निकल गया है कुछ लोगों का।
जहां तक पी.एम. के भाषण में आतंकवाद के विरूद्घ आयी गर्मजोशी का प्रश्न है तो इसमें गलत क्या है? यदि पी.एम. आतंकवाद से जूझते और सीमाओं के पार हो रही युद्घ की तैयारियों के बीच देशवासियों को ‘गर्म’ नहीं करेगा या इसी विषय पर बात नहीं करेगा तो क्या उसे ऐसे अवसरों पर केवल एक दूसरे से यही पूछना चाहिए कि आपके घर में क्या सब्जी पकी है और आपके बच्चे किस क्लास में पढ़ रहे हैं? समय युद्घ का है और इस समय केवल युद्घ की या जोशीली बातों से ही काम चलेगा। ‘श्रंगार रस’ की बातें करते-करते हम अपने सैनिकों के बहुत सिर कटा चुके हैं अब बड़ी मुश्किल से सिर काटने का समय आया है जिसे देशवासी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहते। यहां तक कि देश के मुस्लिमों ने भी मुहर्रम के अवसर पर मेरठ जैसे शहर से ‘आतंकवाद तेरा नाश हो’ का नारा लगाकर यह संकेत दे दिया है कि वे भी अपने पी.एम. के साथ हैं। तब जिन लोगों के या राजीतिज्ञों के पेट में मोदी के भाषण को लेकर बेकार में ही दर्द हो रहा है उन्हें किस स्तर का प्राणी माना जाए? जहां तक पी.एम. के लखनऊ जाकर रामलीला देखने की बात है तो पी.एम. के लिए यही उचित है कि वह देश के अलग-अलग क्षेत्र में जाकर अपनी सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा दें। वैसे भी लखनऊ से रामायण का पुराना संबंध है क्योंकि यह नगरी रामजी के भाई लक्ष्मण ने लक्ष्मणपुर के नाम से बसायी थी। बात साफ है कि ‘जटायु’ यदि आतंकवाद के विरूद्घ लडऩे वाला पहला सिपाही था तो वह आज भी हमारे बीच जीवित है। भारत आज भी जटायु को पूजता है क्योंकि वह जटायु को मरने देना नहीं चाहता।