कहो कौन्तेय-१७ (महाभारत पर आधारित उपन्यास)

(द्रौपदी-विवाह) 

विपिन किशोर सिन्हा

स्मृति पटल पर साकार हो उठती है – द्रौपदी से मिलन की प्रथम रात्रि – जैसे स्वर्ग शयन-कक्ष में सिमट आया हो। भार्यारूप में पांचाली कृष्णा, मेरे विजयगान की तरंगिणी, मेरे भाग्यसूर्य की प्रथम नवकिरण ने मेरे मरुभूमि सम जीवन शैली में सावन की रिमझिम की भांति प्रवेश किया। शयनागार को विशिष्ट ढंग से सज्जित किया गया था। विभिन्न प्रजातियों के पुष्प और कलिकाएं पर्यंक को आवेष्टित किए हुए थीं। उसका शयनकक्ष में आगमन मेरे हृदय में मन्दिर की रुनझुन घंटिकाओं के वादन का अनुभव कराने लगा। दूर कहीं राग भैरव का स्वर सुन मन आनन्द के सागर में गोते लगाने लगा। हृदय कह रहा था – पार्थ! इसी आंचल में तुम्हें परम शान्ति और प्रेम की प्राप्ति होगी।

द्रौपदी – उपर से नीचे तक रत्नों से आच्छादित – सबसे अनमोल रत्न तो वह स्वयं थी – सोने के धागे और पाट से बुनी हुई, श्वेत-स्वर्णिम आभा की साड़ी, उसी से मेल खाती हुई रत्न, अलंकार जटित कंचुकी, अमावस्या के झिलमिलाते तारों की छवि से युक्त नीलवर्ण की ओढ़नी – हीरे, नीलम के नूपुर के मधुर झंकारों से वातावरण को गुंजित करते हुए, उसने कक्ष में प्रवेश किया- सखियां उसे मेरे समीप छोड़ किवाड़ उढ़काकर चली गईं।

द्रौपदी की ओर ताका – वह नतमुख थी। उसे बांह थामकर बैठाया – वह संकुचित-सी हो उठी। द्रौपदी के मुख पर झीना पारदर्शी वस्त्र था, आवेष्ठन को हटाया तो पूर्णिमा की ज्योत्सना शयनकक्ष में आभासित हो उठी। माथे की केतकी, कर्णफूल, कण्ठहार, मुद्रिका, रत्नचूड़ी, नासाग्र के रत्ननक्षत्रों से अलंकृत याज्ञसेनी के अलौकिक सौन्दर्य का मैं एकाकी दर्शक था। मन समस्त सीमाएं तोड़ने के लिए आतुर था लेकिन सदा की भांति मस्तिष्क ने इस पर अपना नियन्त्रण स्थापित किया। विवेक ही तो मनुष्य को पशु से अलग करता है। भूख, प्यास, निद्रा, मैथुन, पशु और मनुष्य में एक जैसे होते हैं। पशु इन वृत्तियों के दास होते हैं। जो मनुष्य विवेक की छड़ी का प्रयोग कर इन्हें अपना दास बना लेता है, वह देवत्व को प्राप्त हो जाता है।

“द्रुपदनन्दिनी! तुम्हें पाकर मैं धन्य हूं।” अत्यन्त स्नेहपूर्वक मैंने अपने भाव प्रकट किए।

सलज्ज द्रौपदी का मधुर स्वर मेरे कानों में रस घोल गया –

“यही मेरे लिए भी सत्य है, प्रियतम!”

मैंने उसके करयुग्म अपने हाथों में ले लिए, आंखों में आंखें डाल, वार्त्तालाप की अगली शृंखला आरंभ की –

“प्रिये! अगर तुमने तेजस्वी कर्ण को लक्ष्यभेद से नहीं रोका होता, तो संभवतः मेरे स्थान पर उसे उपस्थित होने का सौभाग्य प्राप्त होता। तुमने उसे शरसंधान से क्यों रोका कृष्णे?”

“वह मुझे जीतकर दुर्योधन को अर्पित कर देता। श्रीकृष्ण के पास विश्वस्त गुप्तचरों से प्राप्त यह असंदिग्ध सूचना थी। उन्होंने मुझे नेत्र संकेत द्वारा कर्ण को रोकने के लिए निर्देश दिए थे। विवाह-संबंध तो जन्म ग्रहण करते ही स्वर्ग में तय हो जाते हैं। तुम पांचों भ्राता मेरे पति बनोगे, इसका निर्णय तो भगवान् शंकर ने मेरे पूर्वजन्म में ही कर डाला था। विधि का विधान अटल है, उसे कौन बदल सकता है?”

“तुम अलौकिक सौन्दर्य के साथ अगाध ज्ञान की भी स्वामिनी हो।” मेरे स्वर फूटे।

उसका सान्निध्य, उससे संभाषण – ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे सावन की संध्या में नील गगन में इन्द्रधनुष के दर्शन हो रहे हों, सातों सुरों के साथ कोयल-सी मीठी आवाज में कोई गीत सुना रहा हो। अचानक मस्तिष्क के एक कोने में कुछ हलचल सी हुई – हृदय ने दुख और अवसाद के लक्षणों की अनुभूति की। उसके साथ तो मेरे चरम आनन्द के क्षण तो बीत चुके थे। रंगमण्डप से लेकर कुम्हार के घर तक हम दोनों एक साथ पद-यात्रा करके आए थे। अग्रज युधिष्ठिर और भीम एक निश्चित दूरी पर आगे-आगे चल रहे थे एवं नकुल-सहदेव पीछे-पीछे। उस समय पांचाली सिर्फ मेरी थी, सिर्फ मेरी – वही थे मेरे जीवन के श्रेष्ठतम क्षण। अब तो अवशिष्ट जीवन ही मेरे हाथ रहेगा – धर्म रक्षा हेतु – मर्यादा रक्षा हेतु – संस्कृति रक्षा हेतु – राष्ट्र रक्षा हेतु – समाज रक्षा हेतु। स्वयंवर सभा से वनमार्ग होते हुए जब उसके साथ लौट रहा था, तब कौन जानता था कि वह सिर्फ मेरी होकर नहीं रह सकेगी। उन क्षणों में, मैं स्वयं को पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, सबसे बड़ा पराक्रमी वीर अनुभव कर रहा था। सोचा था – सूर्य और चन्द्र की रश्मियां भी अगर उसे कष्ट पहुंचाएं, तो मैं सूर्य-चन्द्र को भी हटा दूं। अगर हमारे पाले हुए हिरण, शुक, सारिका भी अनजाने में उसका आलिंगन कर लें, तो उनका भी शिरच्छेद कर दूं। उसके आभूषणों द्वारा उसके विभिन्न अंगों का स्पर्श भी मुझे सहनीय नहीं था। लेकिन विगत पर पश्चाताप करने से क्या लाभ? जो होना था, वह हो चुका था। कुछ क्षणों के लिए ही सही, उसे पूर्ण रूप से ’निज’ के रूप में पाया था। क्या यह कम सौभाग्य की बात थी?

मैं आवश्यकता से अधिक भावुक हो रहा था, स्वयं पर नियंत्रण किया। वह मेरे मुखमण्डल के भावों पर सतर्क दृष्टि रखे हुए थी। शीघ्र भाव परिवर्तन कर हंसते हुए उससे कहा –

“जानती हो तुमसे विवाह की आकांक्षा मेरे मन में क्यों जगी थी?”

“क्यों?” एक छोटा सा प्रश्न किया उसने।

“अलौकिक सौन्दर्य की स्वामिनी होने के अतिरिक्त, तुम एक सहृदया कवयित्री तथा महान विदुषी हो।” मैंने उत्तर दिया।

अपनी प्रशंसा सुन वह लजा गई। मेरे प्रशस्त वक्षस्थल में अपना आनन छिपा लिया।

क्रमशः

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

3 COMMENTS

  1. बिपिन किशोर सिन्हा— जी
    आपके सूक्ष्म विष्लेशण से, सही सही समझ पाया। बहुत बहुत धन्यवाद।
    एक दृष्टिकोण : इससे एक संकेत मस्तिष्क में मंडरा रहा है। क्या आप – भैरव राग के इस वर्णन को आपके लेखन में, (आप-लेखक का दृष्टिकोण ) बीचमें( interject ) गूंथ कर –कुछ करने की संभावना लगती है? किन्तु यह मुझे भी, अब पता चल रहा है।
    शायद इसके कारण, वर्णन की रंजकता पर क्या परिणाम होता? इसका मैं ठीक अनुमान नहीं कर पा रहा।
    कलसे, अगले, १२ दिन प्रवास पर हूँ। वार्तालाप शायद ही कर पाउं।
    पर, आपकी शब्दावलि से मैं प्रभावित हूँ। जानता नहीं, आज कल इस शैली का प्रयोग कितने लेखक करते हैं?

  2. यह कैसा योगायोग है, कि मेरी टिप्पणी और आपकी टिप्पणी एक ही समय आ रही है। यह “अहो रूपं अहो ध्वनि” ना माना जाए।
    वैसे आज के आपके द्रौपदी के श्रृंगार वर्णन में उचित संतुलन सहित संस्कृतनिष्ठ शब्द लालित्य बहुत भाया।संस्कृत भाषा की ऐसी गरिमा मुझे क. मा. मुनशी जी के गुजराती उपन्यासो में दिखाई देती है। हिन्दी साहित्य मैं ने विशेष पढा नहीं है। । संस्कृत शब्द शैली मुझे ऊंची उडा ले जाती है।
    पर आज आपने “भैरव” का शब्द प्रयोग किया है, शायद श्रृंगार व्यक्त करने के लिए? संदर्भ समझ ना पाया।
    श्रृंगार व्यक्त करने के लिए मैंने मेरी गुजराती कविताओ में “बागेशरी” और “खमाज” रागों को, प्रयोजा है।
    आपकी संस्कृत प्रचुर भाषा से मैं प्रभावित हूँ।

    • मधुसूदन जी! आपकी बात बिल्कुल सही है। शृंगार रस की मधुर और कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए राग बागेश्वरी और राग खमाज ही अधिक उपयुक्त है। लेकिन अर्जुन के मन में द्रौपदी से प्रथम-मिलन की रात्रि में उठने वाली भावनाएं मधुर और कोमल अवश्य हैं परन्तु अर्जुन के मूल स्वभाव के प्रतिकूल भी नहीं हैं।
      अर्जुन स्वभाव से धीर, गंभीर,कर्त्तव्यनिष्ठ, तेजोमय, दानी, समाधानी और दृढ़ निश्चय का व्यक्ति है। ये सारे भाव राग भैरव में अभिव्यक्त होते हैं। भगवान शंकर को यह राग विशेष रूप से प्रिय है। अर्जुन का भी यह प्रिय राग है। उस क्षण अगर कोई राग बागेश्वरी में भी तान छेड़ता, तो अर्जुन को वह भैरव राग ही प्रतीत होता। भैरव राग में ऋषभ तथा निषाद स्वर कोमल लगते हैं जो आरोह में प्रयुक्त होता है। अवरोह में सातो स्वर का प्रयोग होता है।
      कहो कौन्तेय-१७ के प्रथम प्रस्तर में अर्जुन के स्वभाव के विषय में राग भैरव के माध्यम से संकेत किया गया है, जिसे प्रस्तर-३ में स्पष्ट कर दिया गया है — “……….मन समस्त सीमाएं तोड़ने ले लिए आतुर था लेकिन सदा की भांति मस्तिष्क ने इसपर अपना नियंत्रण स्थापित किया। विवेक ही तो मनुष्य को पशु से अलग करता है। भूख, प्यास, निद्रा, मैथुन, पशु और मनुष्यों में एक जैसे होते हैं। पशु इन वृत्तियों के दास होते हैं। जो मनुष्य विवेक की छड़ी का प्रयोग कर इन्हें अपना दास बना लेता है, वह देवत्व को प्राप्त हो जाता है।”
      द्रौपदी से प्रथम मिलन की रात्रि के मधुर और मादक क्षणों में ऐसे विचार सिर्फ अर्जुन के मस्तिष्क में आ सकते हैं। इसलिए वहां राग भैरव के माध्यम से अर्जुन के मन में आ रहे भावों का संकेत दिया गया है। आशा है, मेरे स्पष्टीकरण से आप संतुष्ट होंगे।

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