कहो कौन्तेय-२९ (महाभारत पर आधारित उपन्यास-अंश)

(हस्तिनापुर की द्यूत-सभा)

विपिन किशोर सिन्हा

भीम शत्रुओं के जाल में फंसते दीख रहे थे। हम पांचो भ्राताओं की चट्टानी एकता में एक छोटी सी दरार ही तो देखना चाहते थे कौरव। चार उंगलियां कभी मुष्टिका का निर्माण नहीं कर सकतीं। मुष्टिका के बिना शत्रु पर प्रहार असंभव होता है। सिर्फ उंगली उठाने से शत्रु का विनाश नहीं होता। हमारी शक्तिशाली मुष्टिका की सबसे महत्त्वपूर्ण उंगली विद्रोह को उद्यत थी। युधिष्ठिर को काटो तो खून नहीं। वे हतप्रभ, कभी भीम को, कभी मुझे और कभी सहदेव को देख रहे थे। मैंने समय नष्ट न करते हुए भैया भीम के दोनों हाथों को पकड़ उनका क्रोध शान्त करने की चेष्टा की –

“भैया भीमसेन! आपने कभी बड़े भैया के लिए इतनी अप्रिय बातें नहीं कही। क्रूरकर्मा शत्रुओं ने और इस विपत्ति की घड़ी ने आपकी धर्मविषयक गौरवबुद्धि को भ्रमित कर दिया है। आपके क्रोध से शत्रुओं की चिरदमित कामना सफल होगी। यह समय आपस में मतभेद का नहीं, एकता प्रदर्शित करने का है। बड़े भैया पर दोषारोपण न करें। उन्होंने पिताश्री स्वर्गीय महाराज पाण्डु के ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र की आज्ञा का पालन मात्र किया है। इस कपट द्यूत का षड्यंत्र उनकी सम्मति से दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने रचा था। हम किसी को क्षमा नहीं करने जा रहे। ईश्वर से प्रार्थना है कि इस अपमान का दंश, हम सभी के मस्तिष्क में, सदैव इसी रूप में जीवित रखे। स्त्री का अपमान करने वाले दुरात्मा, समाज और राष्ट्र को विनाश की खाई में डालते हैं। महाविनाश का क्षण शीघ्र ही उपस्थित होगा। हम गिन-गिन कर इन आतताइयों से पांचाली के अपमान का प्रतिशोध लेंगे – उनके शोणित से धरती की प्यास बुझाएंगे। उनके वध के पश्चात उनकी पत्नियां छाती पीट-पीट कर द्रौपदी से भी अधिक हृदय विदारक विलाप करेंगी। हम तो द्रौपदी के साथ सदैव रहेंगे, उनके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं बचेगा।

मेरे आदरणीय भ्राता! आप क्रोध का दमन करें, बड़े भैया को क्षमा कर दें और धैर्यपूर्वक महाविनाश की घड़ियों की प्रतीक्षा करें।”

मेरे कथन का भैया भीम पर मंत्रवत प्रभाव पड़ा। अपना मस्तक युधिष्ठिर की गोद में रख देर तक सिसकते रहे।

क्षण भर के लिए पूरे सभा कक्ष में श्मशान की शान्ति छा गई। दुशासन का बन्धन ढीला पड़ गया। पूरी सभा ने दुर्योधन के सगे भ्राता विकर्ण की मेघ गर्जना-सी वाणी ध्यान से सुनी – हाथ उठाकर उसने अपने से बड़े दुशासन को अधिकारपूर्ण स्वर में आदेश दिया –

“दुशासन! पांचाली के शरीर का स्पर्श भी मत कर। सभा में उपस्थित सभी तथाकथित श्रेष्ठ जन स्मरण रखें कि महारानी तपती, नलिनी, भूमिनी, सुदक्षिणा, विरजा, देवयानी, गंगा, सत्यवती, गांधारी, कुन्ती द्वारा सुशोभित राज सभा है यह। यहां राजस्त्री का अपमान करने का अर्थ है – मन्दिर में साक्षात देवी की प्रतिमा को पैरों तले रौंदना। वय में छोटा होकर भी, वृद्ध कहे जाने वाले पुरुष सिंहों से मैं पूछता हूं कि समरांगण में चमकने वाली उनकी तलवार में क्या जंग लग गया है? पितामह, महाराज, आचार्य, गुरुदेव, अमात्य, कृपाचार्य और सबको धर्मज्ञान देनेवाले तपस्वी ब्रह्मज्ञ, ऋषिजन आज पाषाण की भांति मूक क्यों हैं? मैं गान्धारीनन्दन विकर्ण कहता हूं कि एक पतिव्रता का क्रन्दन, विलाप और सिसकियां, इनका रौद्रभैरव संगीत लेकर बहनेवाले ये धधकते आंसू, गंगा की भयंकर बाढ़ का रूप धारण कर जब गरजते हुए आएंगे, तो यहां के जिन स्वर्णिम आसनों की अभिलाषा में आप सभी मौन धारण किए बैठे हैं, उनमें से एक भी आसन अपने स्थान पर टिका न रह सकेगा। पतिव्रता पर अन्याय का अर्थ है – मां दुर्गा पर अत्याचार। पतिव्रता का अपमान अर्थात पुरुषार्थ का अन्त।

कौरवों तथा अन्य भूमिपालो! आपलोगों ने पांचाली के प्रश्न पर किसी प्रकार के विचार प्रकट नहीं किए। न करें। मैं इस विषय में जो न्यायसंगत समझता हूं, वह कहता हूं –

अन्धे और मूर्ख सभासदो! राजाओं के चार दुर्व्यसन बताए गए हैं – शिकार, मदिरापान, द्यूत तथा विषय-भोग में आसक्ति। इन दुर्व्यसनों में आसक्त मनुष्य धर्म की अवहेलना करके मनमाना आचरण करने लगता है। ये पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर द्यूतरूपी दुर्व्यसन में अत्यन्त आसक्त हैं । इन्होंने धूर्त, कुटिल जुआरियों से प्रेरित होकर, द्रौपदी को दांव पर लगा दिया है। सती साध्वी द्रौपदी समान रूप से समस्त पाण्डवों की पत्नी है, केवल युधिष्ठिर की नहीं है। इसके अतिरिक्त पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर पहले अपने आप को हार चुके थे, इसके बाद इन्होंने द्रौपदी को दांव पर रखा। इसका इन्हें बिल्कुल भी अधिकार नहीं है। धर्म-अधर्म, परिस्थितिजन्य साक्ष्य, द्यूत के नियम और तथ्यों पर सम्यक विचारोपरान्त, मैं द्रुपद कुमारी कृष्णा को विजित नहीं मानता।”

सभाकक्ष में सन्नाटा फिर पसर गया। कुछ क्षणों मे धीमी फुसफुसाहटें पुनः आरंभ हो गईं। अधिकांश सभासदों की आंखों में विकर्ण के लिए प्रशंसा के भाव थे। मुझे आशा की एक किरण दृष्टिगत हुई। दुर्योधन अवाक था, दुशासन हतप्रभ। अचानक विषैले नाग की तरह फुफकारता हुआ कर्ण अपने आसन से उठा, विकर्ण की बांह पकड़ बलपूर्वक उसके आसन पर बैठाया और विषबुझी वाणी में सभा को संबोधित करने लगा –

“विकर्ण! तू मूर्ख है, अल्पज्ञानी है। इस जगत में बहुत सी वस्तुएं विपरीत परिणाम उत्पन्न करनेवाली देखी जा सकती हैं – जैसे अरणि से उत्पन्न हुई अग्नि उसी को जला डालती है। ठीक उसी प्रकार कोई-कोई मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है, उसी का विनाश करनेवाला बन जाता है। रोग यद्यपि शरीर में ही उत्पन्न होता है, पलता है, फिर भी वह शरीर की ऊर्जा का ही विनाश करता है। पशु घास को चरते हैं, उसी से जीवन पाते हैं, फिर उसी को पैरों तले रौंद डालते हैं। तुम कुरुकुल में उत्पन्न होकर भी, अपने ही पक्ष को हानि पहुंचाना चाहते हो। सभागृह में द्रोण, भीष्म, कृप, अश्वत्थामा, महा बुद्धिमान विदुर, महाराज धृतराष्ट्र तथा महारानी गान्धारी, सभी तो उपस्थित हैं। ये तुमसे अधिक बुद्धिमान हैं। द्रौपदी के बार-बार प्रेरित करने के बाद भी, ये सभासद मौन हैं। यह जानकर भी गला फाड़-फाड़ कर तू ऐसे चिल्ला रहा है जैसे धर्म की धूरी अकेले तेरे कंधे पर हो। तुम बालक होकर वृद्धों जैसी बातें कर रहे हो और अपनी मूर्खता के कारण आप ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हो। दुर्योधन के अनुज! तुम्हें धर्म के विषय में यथार्थ ज्ञान नहीं है। तुम विजिता द्रौपदी को स्वतंत्र बता रहे हो, इससे तुम्हारी मन्द बुद्धि होने का परिचय मिलता है। पतिव्रता, पतिव्रता कहकर तू बार-बार चिल्लाकर जिसका उल्लेख कर रहा है, वह कदापि पतिव्रता नहीं है। देवताओं ने स्त्री के लिए एक ही पत्नी का विधान किया है, परन्तु यह द्रौपदी अनेक पतियों के अधीन है। एक ही देह से पांच पतियों से रमण करनेवाली पांचाली विलासिनी है, कलंकिनी है, कुलटा है, वेश्या है। ऐसी स्त्री पांच के साथ सहवास करे या एक सौ पांच के साथ, कोई अन्तर नहीं पड़ता। दासी की इतनी लज्जा होती है कि वस्त्र पहने रहती है। उसमें विनम्रता होती है लेकिन वेश्या में यह सब नहीं होता। उसका सभा में लाया जाना कोई अनोखी बात नहीं है। एकवस्त्रा हो या नंगी हो, तो भी यहां लाई जा सकती है। दुशासन! यह विकर्ण अत्यन्त मूढ़ है, फिर भी विद्वानों जैसी बातें बनाता है। अब बहुत दिखावा हो चुका है। तुम्हारे समक्ष पांच पाण्डवों के रूप में पांच नूतन दास बैठे हैं। इन्हें वस्त्रहीन कर, इनकी वास्तविक स्थिति का ज्ञान करा दो। अभी भी दर्प से भरी, पतिव्रता का ढोंग करती हुई द्रौपदी सभा को भ्रमित करने का प्रयास कर रही है। यह सांवली, सुगंधिता सुन्दरी अब तुम्हारी दासी है। आचरण से यह एक वेश्या है, अतः भरी सभा में इसे निर्वस्त्र करने में कुछ भी बुराई नहीं है। बिना विलंब किए तुम इसे भी निर्वस्त्र कर दो।”

ऐसा लगा जैसे पिघला हुआ सीसा किसी ने मेरे कानों में डाल दिया हो। कर्ण के वक्तव्य का एक-एक शब्द मेरे हृदय को प्राणघाती बाणों की भांति घायल कर रहा था। युद्ध में अपने बाणों का प्रभाव वह देख चुका था। द्रौपदी स्वयंवर के पश्चात प्रत्यक्ष युद्ध में उसके बाणों को अपने पास फटकने भी नहीं दिया था मैंने। मेरे बाणों से घायल होकर वह रणभूमि से पलायन के लिए विवश हुआ था। आज उसी का प्रतिशोध, शब्दों के विषबुझे बाणों के द्वारा ले रहा था। मेरे लिए जीवन के सर्वाधिक अपमान के क्षण थे वे। पूरे शरीर का लहू उबलकर जैसे बाहर निकलना चाह रहा था। मेरा कर्ण प्रदेश, कपोल, मस्तिष्क – सब तप्त लोहे की अनुभूति दे रहे थे। मनुष, मनुष्य को इतना अपमानित कर सकता है – अकल्पनीय! किस जन्म का पाप, आज अपमान और प्रतिशोध के रूप में फूट रहा था। मैंने, हम पाण्डवों ने कौन सी ऐसी अमर्यादित अनुचित महत्वाकांक्षा पाल ली जो ब्रह्मा को नहीं सुहाई, लिख दिया उसने विधिलेख में इतना दुर्दम अपमान! इतिहास के पृष्ठों से यह घटना कभी मिटाई नहीं जा सकेगी। आनेवाली सन्ततियां बार-बार कौरव राजसभा में, पांच पतियों की परिणीता, पांचाली के साथ हुए अन्याय-अत्याचार की गाथा दृष्टान्त के रूप में सुनाएंगी। भविष्य प्रश्नाकुल मुद्रा में हमारे वंशजों से पूछेगा कि पांच पतियों और न्याय विशारदों, देवव्रती भीष्म, नीति निर्धारकों के सामने एक नारी का सार्वजनिक अपमान हुआ, उसे भरी सभा में घसीटा गया, अपशब्दों और शारिरिक बल प्रयोग से उसकी आत्मा और देह को रौंदा गया – और आप मूक दर्शक मात्र रहे। कितनी हास्यास्पद बात है कि महानता की विरुदावली गाने वाले हतबुद्धि की भांति बैठे रहे और कुलवधू अपमानित होती रही।

क्रमशः 

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