मकर संक्रांति का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

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श्रीनिवास आर्य

मुरारी शरण शुक्ल

मकर संक्रांति अकेला ही पश्चिम और अरब के सभी पर्वों पर भारी है: सूर्य की गति पर आधारित यह उत्सव भारत के लाखों वर्ष से खगोल विज्ञान का ज्ञाता होने का प्रमाण है।
(सबसे अंतिम पैराग्राफ में पढ़ें किस राज्य में किस नाम से मनाया जाता है यह उत्सव? और क्या क्या खाया जाता है इस मकर संक्रांति में?)
मकर संक्रांति में मकर शब्द आकाश में स्थित तारामंडल का नाम है जिसके सामने सूर्य के आने के दिन ही पूरे दिवस मकर संक्रांति मनाया जाता है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में लोहड़ी के नाम से यह उत्सव मनाया जाता है सूर्य के मकर राशी में प्रवेश से एक दिन पूर्व। यह उत्सव सूर्य के उत्तरायण में आगमन के स्वागत का उत्सव है। उत्तरायण का अर्थ है पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के सापेक्ष में स्थित आकाश का भाग अर्थात उत्तरी अयन। जब सूर्य उत्तरायण में आता है तो इसकी किरणें पृथ्वी पर क्रमशः सीधी होने लगती है। जिससे धीरे धीरे गर्मी बढ़ने लगती है। यह सर्दी के ऋतु का अंतकाल माना जाता है। इसीलिए इस उत्सव में सर्दी की बिदाई का भाव भी है। यह समय फसलों से घर भर जाने का है। फसलों से आई समृद्धि को मनाने का उत्सव है। ऋतु परिवर्तन के समय मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता घटती है। इसीलिए उसके बीमार होने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में उस प्रकार के पदार्थों का सेवन किया जाता है जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि हो।

भारत के बाहर झांके तो आपको दुनियाँ की किसी भी प्राचीन सभ्यता में ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों, उपग्रहों का विस्तृत ज्ञान नहीं मिलेगा। हमारे सनातन धर्मियों को लाखों वर्षों से सूर्य संक्रांति का ज्ञान था। साथ ही सूर्य ग्रहण का ज्ञान भी था। हम सैकड़ों वर्ष पहले ही अपनी गणितीय क्षमता से जान लेते थे कि सूर्य ग्रहण कब, किस दिन, कितने घटी, कितने पल और कितने विपल पर होगा? कितने क्षण में ग्रहण का स्पर्श होगा और कितने निमेष पर ग्रहण का मोक्ष होगा? हमें चंद्र ग्रहण का ज्ञान भी था। चंद्र ग्रहण का विस्तृत ज्ञान हम बहुत समय पूर्व ही कर लिया करते थे। सूर्य की बारह महीनों में बारह संक्रांति होती है। उनको मेष संक्रांति, वृष संक्रांति, मकर संक्रांति, मीन संक्रांति इत्यादि नामों से जाना जाता है। सभी बारह राशियों में सूर्य कितने घटी कितने पल पर प्रवेश करेगा यह हमें ज्ञात था लाखों वर्षों से। सूर्य एक राशी के सामने एक महीना रहता है फिर दूसरे महीने दूसरी राशि के सामने चला जाता है। इस प्रकार पूरे एक वर्ष में बारह महीनों में बारह राशियों का भ्रमण करते हुए सूर्य अपना एक वर्ष पूर्ण कर लेता है।
यूरोप वालों को बड़े लंबे प्रयोग के बाद, बड़ी लंबी साधना के बाद सूर्य की गति का बहुत थोड़ा ज्ञान हुआ तो उनलोगों ने अपने आठ महीने के ग्रेगोरियन कैलेंडर को ठीक करके पहले दस महीने का किया। बाद में दो महीने और जोड़कर बारह महीनों का किया। इतने लंबे समय तक कि पूरी यूरोपियन यात्रा में उनको इतना ही पता चल पाया कि सूर्य की पूरी परिक्रमा 365 दिनों की है। बहुत बाद में उनको पता चला कि 365 दिनों के अतिरिक्त भी 6 घंटे का और समय होता है एक सौर वर्ष में। तब उनको लिप ईयर की परिकल्पना हुआ। किन्तु हिंदुओं को तो लाखों वर्ष से यह ज्ञान था कि सूर्य 365 दिन साढ़े 15 घटी में अपना एक वर्ष पूर्ण करता है। इसमें एक घटी को आप घंटा मिनट में बदलेंगे तो एक घटी का अर्थ होगा 24 मिनट।

अरब वालों को चांद के आगे का ज्ञान ही नहीं था। सूर्य का थोड़ा ज्ञान हुआ भी तो बड़ा भ्रमपूर्ण ज्ञान था। उन्होंने चंद्रमा की गति के आधार पर अपना कैलेंडर बनाया। यह इंदु अर्थात चंद्रमा की गति पर आश्रित था। इसी इंदु से इदु और इदु से शब्द इद्दत बना। किन्तु वो गिनती में गड़बड़ कर गए। और चंद्रमा की गति के आधार पर ईद देखकर अर्थात इंदु देखकर अर्थात चांद देखकर महीना गिनने लगे। बारह महीनों की बात भारत के व्यापारियों से उनको पता चली थी तो उन्होंने चांद के बारह महीने गिन लिए। अर्थात 28×12=336 दिनों का वर्ष बना लिया।
परिणाम उनके वर्ष का तालमेल सूर्य से आज भी नहीं बैठ पाया। और हर सौर वर्ष में उनका त्योहार एक माह पीछे चला जाता है। क्योंकि उनका वर्ष है 336 दिनों का और सूर्य का वर्ष होता है 365 दिन 6 घंटों का। तो इस अनुसार उनका चांद्र वर्ष और पश्चिम के सौर वर्ष में 29 दिनों का अंतर आ जाता है।
किन्तु भारत के ऋषियों ने दोनो ही प्रकार के काल गणना को बड़े गहराई से समझा। तभी समझ लिया जब ईसाईयत और इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था। उनके लाखों वर्ष पूर्व ही समझ लिया। और जब सनातनी ऋषियों ने अपना कैलेंडर अर्थात अपना पञ्चाङ्ग बनाया तो उनलोगों न तो सौर पञ्चाङ्ग बनाया और न ही चांद्र पञ्चाङ्ग बनाया।

हमारे ऋषियों ने जो पञ्चाङ्ग बनाया वह सौर पञ्चाङ्ग और चांद्र पञ्चाङ्ग का सम्मिलित स्वरूप है। दोनो का समन्वित स्वरूप है। दोनो का तालमेल ऐसा बिठाया है भारत के ऋषियों ने कि हिन्दू पञ्चाङ्ग के एक एक महीने का संबंध ऋतुओं से पूर्व निर्धारित सा प्रतीत होता है। केवल पृथिवी पर घट रही घटनाओं का ही समन्वय नहीं है तो ब्रह्मांड में घट रही घटनाओं का भी समन्वय है इसमें। सूर्य मकर राशी में प्रवेश कर रहा है आकाश में किन्तु उसकी भी गणना है भारतीय पञ्चाङ्ग में। सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण हो रहा है आकाश में किन्तु उन सब की गणना है भारतीय पञ्चाङ्ग में। चांद्र पञ्चाङ्ग और सौर पञ्चाङ्ग का साम्य बिठाने के लिए पञ्चाङ्ग में प्रत्येक दो वर्षों के उपरांत पुरुषोत्तम माह का प्रावधान भी किया गया जिसे मलमास भी कहा जाता है। इस माह को बहुत पवित्र कहा जाता है।
भारत में छः ऋतुओं की पूरी परिकल्पना आपको पञ्चाङ्ग में मिल जाएगा। तीन मौसम का ज्ञान तो पूरी दुनियाँ को हो गया है किंतु प्रकृति में घट रही एक एक घटना चाहे वो पृथिवी पर घटित हो या ब्रह्मांड में उन सब का विवरण मिलेगा आपको भारतीय पञ्चाङ्ग में। सूर्य के उत्सव अनेक हैं भारत में। चंद्रमा के उत्सव भी अनेक हैं भारत में। पूर्णिमा और अमावस्या का हिन्दू ज्ञान तो सर्वविदित है जो भारत के बाहर कहीं चर्चा भी नहीं होता। इसी आधार पर माह में दो पक्षों की बात भारतीय मनीषा ने कहा। और चंद्रमा की एक एक तिथि का व्रत आपको मिलेगा। एक एक दिन का राशिफल आपको मिलेगा। क्योंकि चंद्रमा एक नक्षत्र में एक ही दिन रहता है। और एक राशि में लगभग ढाई दिन। चंद्रमा की गति के आधार पर ही करवा चौथ होता है। चंद्रमा की गति के आधार पर ही तीज व्रत अर्थात हरितालिका व्रत होता है। चन्द्रायण व्रत तो बहुत कठिन साधना का अंग माना जाता है भारतीय पर्व परम्परा में।
भारत के बहुत बड़े हिस्से में इसे मकर संक्रांति कहा जाता है। इस दिन लोग पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान करते हैं। दान करते हैं। अन्न दान भी और द्रव्य दान भी। तिल और गुड़ से बने विभिन्न मिष्ठान्न का सेवन करते हैं। इसे पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में लोहड़ी के नाम से मनाया जाता है। इन क्षेत्रों में यह उत्सव एक सप्ताह का मनाया जाता है। मायके से पति के घर उपहार लेकर आती हैं बहुएँ इस दिन। इसी को कहते हैं लोहड़ी का आना। आसाम में इसे बिहू कहा जाता है। आसाम के कुछ क्षेत्रों में इसे माघ बिहू भी कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में इसे भोगाली बिहू भी कहा जाता है। दक्षिण में इसे पोंगल के नाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु में यह उत्सव चार दिनों का होता है। प्रथम दिवस इसे भोगी पांडीगई कहते हैं। दूसरे दिन थाई पोंगल कहा जाता है। तिसरे दिन माट्टू पोंगल के नाम से जाना जाता है तो चौथे दिन कानम पोंगल के नाम से मनाया जाता है। यह आंध्र में तीन दिन का उत्सव होता है।
कर्नाटक के किसानों का यह सुग्गी उत्सव है। कर्नाटक में इसे किछु हाईसुवुडडू के रूप में भी मनाया जाता है। हिमाचल प्रदेश में शिमला के आसपास इसे माघ साज्जि कहा जाता है। कुमाऊं क्षेत्र में इस उत्सव को घुघुटिया के रूप में मनाया जाता है और कौआ बुलाने की प्राचीन पद्धति के अवशिष्ट रूप में काले कौआ के आवाहन के गीत गाये जाते हैं। उड़ीसा में इसे मकर बासीबा कहकर मनाया जाता है। बंगाल में इसे मागे सक्राति के रुप में मनाते हैं। इस दिन तिल का सेवन स्वास्थ्य वर्द्धक होता है इसीलिए इसे तिल संक्रात भी कहते हैं। केरल में सबरीमाला पर मकर ज्योति जलाकर मकराविलाक्कू मनाया जाता है। गोआ में हल्दी कुमकुम मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दूसरे दिन को मंक्रात के रूप में भी मनाया जाता है।
कहीं तिल खाया जाता है तो कहीं खिंचड़ी खाने की प्रथा है। खिचड़ी के चार यार। दहि पापड़ घी अँचार। कई क्षेत्रों में तेहरी भी बनाया जाता है। कहीं गज्जक और रेवड़ी चखा जाता है तो कहीं पतंगबाजी का हुनर तरासा जाता है। कहीं गुड़ से बने अनेकानेक मिष्ठान्न खाये जाते हैं तो कहीं दहिं चूड़ा खाने की प्रथा है। तिल के लड्डू, तीसी के लड्डू, अलसी के लड्डू, धान का लावा तो कहीं जीनोर का लावा, मक्के का लावा, मूंगफली की पट्टी, बादाम की पट्टी, काजू की पट्टी, अखरोट की पट्टी खाया जाता है। अनेक क्षेत्रों में तिलकुट कूटा जाता है। खाने के अनेक व्यंजन विशेष रुप में इसी समय खाया जाता है। जितने भी प्रकार के व्यंजन इस समय बनाये जाते हैं उन सभी सामग्रियों का संबंध इस ऋतु विशेष में स्वास्थ्य रक्षा से है। कैसे इस समय में उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त किया जा सके? इस आयुर्वेदिक चिंतन पर आधारित हैं ये सभी व्यंजन। इतना समग्र चिंतन केवल और केवल भारत में मिलता है। जिसमें फसल चक्र से लेकर अर्थ चक्र और स्वास्थ्य चक्र से लेकर आयुषचक्र तक का चिंतन भी समाहित है। इस सम्पूर्ण वांग्मय के समक्ष पूरा विश्व बौना है। और भारतीय मनीषा हिमालय से ऊँची ऊँचाई को स्पर्श करता हुआ प्रतीत होता है।

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