कम मानसून और मौसम वैज्ञानिकों की अटकलें

-प्रमोद भार्गव-
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प्रत्येक मई-जून माह में मानसून आ जाने की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। यदि औसत मानसून आये तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आये तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाइयां देखने में आती हैं। इस बार मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियों से ऐसा लग रहा है कि मानसून की मानसून पिछले वर्ष की औसत की तुलना में 50 फीसदी कम रहेगा। बावजूद कोई जरूरी नहीं कि मानसून का अनुमान सटीक बैठे ? कहो तो मानसून ऐसा आए की तबाही मचा दे, अथवा ऐसा आए कि सूखा पड़ जाए। मानसून की इस लीला के आंखमिचौनी खेल की पड़ताल आधुनिक तकनीक से समृद्ध मौसम विभाग आखिर ठीक समय पर क्यों नहीं कर पाता और क्यों तबाही के मंजर में सैंकड़ों लोगों की जान और अरबों-खरबों का नुकसान देश को उठाना पड़ता है…? भारत की अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर है। हालांकि खेती का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 13 फीसदी है लेकिन इस पर निर्भर देष की 70 फीसदी आबादी है। लिहाजा जरूरी है कि मौसम की भविष्यवाणियां सटीक हों।
आखिर हमारे मौसम वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान आसन्न संकटों की क्यों सटीक जानकारी देने में खरे नहीं उतरते? क्या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधन कम हैं, अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं…? मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब, उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्ध से भूमध्य रेखा के निकट से हवाएं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धरती की परिक्रमा सूरज के गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाएं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल हरियाणा और पंजाब तक बरसती हैं। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाएं आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाएं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसात के रूप में भारतीय धरती पर गिरता है।
महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्डल की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्न-भिन्न ऊंचाइयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिये कम्प्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आंकड़ें इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है।

हमारे देश में 1875 में मौसम विभाग की बुनियाद रखी गई थी। आजादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधनों का निरंतर विस्तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भू-वेधशालाएं, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो पवन वेधशालायें, 11 तूफान संवेदी और 8 तूफान सचेतक रडार केन्द्र हैं, 8 उपग्रह चित्र प्रेषण और ग्राही केन्द्र हैं। इसके अलावा वर्षा दर्ज करने वाले 5 हजार पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले केन्द्र, 214 पेड़ पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्पीकरण को मापने वाले, 35 तथा 38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधशालाऐं हैं। अब तो अंतरिक्ष में छोड़े गये उपग्रहों के माध्यम से सीधे मौसम की जानकारी कम्प्यूटरों में दर्ज होती रहती है।

बरसने वाले बादल बनने के लिये गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापें तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे पाया गया। यही परत धु्रव प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है। और तापमान शून्य से 50 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपॉज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथ्वी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और बर्षा के रूप में धरती पर टपकना शुरू होते हैं।
दुनिया के किसी अन्य देश में मौसम इतना विविध, दिलचस्प, हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है जितना कि भारत में, इसका मुख्य कारण है भारतीय प्रायदीप की विलक्षण भौगोलिक स्थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी है और ऊपर हिमालय के शिखर। इस कारण हमारे देश का जलवायु विविधतापूर्ण होने के साथ प्राणियों के लिये बेहद हितकारी है। इसीलिये पूरे दुनिया के मौसम वैज्ञानिक भारतीय मौसम को परखने मंे अपनी बुद्धि लगाते रहते हैं। इतने अनूठे मौसम का प्रभाव देश की धरती पर क्या पड़ेगा, इसकी भविष्यवाणी करने में हमारे वैज्ञानिक क्यों अक्षम रहते हैं, इस सिलसिले में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. राम श्रीवास्तव का कहना है कि सुपर कम्प्यूटरों का बड़ा जखीरा हमारे मौसम विभाग के पास होने के बावजूद सटीक भविष्यवाणियां इसलिये नहीं कर पाते क्योंकि हम कम्प्यूटरों की भाषा ’अलगोरिथम’ नहीं पढ़ पाते। वास्तव में हमें सटीक भविष्यवाणी के लिये दो सुपर कम्प्यूटरों की जरूरत है, लेकिन हमने करोडों रुपये खर्च करके एक्सएमजी के-14 कम्प्यूटर आयात किये हैं। अब इनके 108 टर्मिनल काम नहीं कर रहे हैं, क्योंकि इनमें दर्ज आयातित भाषा अलगोरिथम पढ़ने में हम अक्षम हैं। कम्प्यूटर भले ही आयातित हों लेकिन इनमें मानसून के डाटा स्मरण में डालने के लिये जो भाषा हो, वह देशी हो, हमें सफल भविष्यवाणी के लिये कम्प्यूटर की देशी भाषा विकसित करनी होगी। क्योंकि अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिमालय भारत में है, अमेरिका अथवा ब्रिटेन में नहीं। लिहाजा जब हम बर्षा के आधार श्रोत की भाषा पढ़ने व संकेत परखने में सक्षम हो जाऐंगे तो मौसम की भविष्यवाणी सटीक बैठेगी। बहरहाल यही कारण है कि तकनीकी रूप से सक्षम होने के बावजूद हम मौसम का मिजाज जानने में अक्सर धोखा खा जाते हैं।

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