बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन ने भारत के ‘सेक्युलरिस्ट्स’ की नब्ज़ पर हाथ रख दिया है। उन्होंने सही कहा है कि भारत के ज्यादातर ‘सेक्यूलरिस्ट’ मुस्लिम-समर्थक और हिंदूविरोधी हैं। मेरी राय में सच्चा सेक्युलर वह है, जो सफेद को सफेद कहे और काले को काला! जो पूर्ण सत्यनिष्ठ हो, वही अपने आप को सेक्युलर कह सकता है।
सेक्युलर का अनुवाद धर्म-निरपेक्ष तो हो ही नहीं सकता। मेरी राय में सेक्युलर वही हो सकता है, जो स्वभाव से परम धार्मिक हो। जो अपने-पराए में भेद न करता हो। वह परमात्मा के अस्तित्व को माने या न माने, सब मनुष्यों के भाईचारे में दृढ़ विश्वास करता हो। जुल्म किस पर भी हो, हिंदू पर हो या मुसलमान पर और ब्राह्मण पर हो या शूद्र पर, वह सीना तानकर खड़ा हो जाता हो, वही असली सेक्युलर है।
क्या हमारे सेक्युलरों का जो गेंग या गिरोह बना हुआ है, उनमें ऐसे भी कोई हैं? हैं, लेकिन बहुत कम! मेरे मित्र हमीद दलवई और यू.आर. अनंतमूर्ति के नाम मुझे जरुर याद आते हैं। लेकिन आजकल जिन सेक्यूलरिस्ट के नाम उछलते रहते हैं, वे कौन हैं? मेरी राय में वे बौद्धिक काणे हैं। वे दब्बू और मरियल लोग हैं। उन्होंने अपने लिए तरह-तरह की नौकरियां, पदवियां, उपाधियां, सुविधाएं पटा रखी हैं, सरकारों से।
वे हमेशा झूठ बोलते हैं, ऐसा भी नहीं है। उनके द्वारा की गई सांप्रदायिकों की आलोचना कभी-कभी बहुत ठीक होती है लेकिन वह सत्य की रक्षा के लिए नहीं होती। वह होती है, अपनी माल-मलाई की सुरक्षा के लिए। यदि ऐसा नहीं है तो उस समय उनकी बोलती बंद क्यों हो जाती है, जब गैर-हिंदू संप्रदायों के लोग निंदनीय कार्य करते हैं? उन्होंने अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग नपैने बना रखे हैं। वे हिंदू-विरोधी हो जाएं तो उन्हें कोई नुकसान नहीं होता और यदि वे मुस्लिम-विरोधी हो जाएं तो उन्हें आरएसएस या विहिप का आदमी मान लिया जाता है।
यही दर्द तसलीमा नसरीन का है। उनके पक्ष में हमारे सेक्युलरिस्ट क्यों नहीं बोले?
हमारे देश के सबसे बड़े सेक्युलरिस्ट दो महापुरुष थे। एक संत कबीर और दूसरा महर्षि दयानंद सरस्वती! कबीर और दयानंद ने किसी को नहीं बख्शा! उन्होंने जो अपनों के लिए कहा, वही दूसरों के लिए भी कहा। हमारे सेक्युलरिस्टों की तरह इन दोनों महापुरुषों ने अपने कहे का फायदा उठाने की कभी इच्छा भी नहीं की। दयानंद ने तो अपने सेक्युलरिज़्म की कीमत अपने प्राणों की आहुति चढ़ाकर दी।