सुरक्षा का संकट

डॉ. ज्योति सिडाना

किसी भी सामाजिक व्यवस्था में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना, अपराधो को नियंत्रित करना, सबको न्याय उपलब्ध कराना तथा नागरिकों के जीने के अधिकार की रक्षा करना पुलिस एवं न्यायपालिका के मुख्य दायित्व हैं। परंतु पिछले अनेक वर्षों से भारतीय समाज में पुलिस की भूमिकाओं पर अनेक सवालिया निशान लगे हैं। पुलिस के द्वारा नागरिकों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार एवं शांतिपूर्ण आंदोलनों में पुलिस की जन-विरोधी भूमिका आम चर्चा का हिस्सा है। थर्ड डिग्री व्यवहार एवं फेक एनकांउटर के कारण जनता के बीच में पुलिस की छवि नकारात्मक है। हांलाकि अनेक अवसरों पर आन्तरिक सुरक्षा को स्थापित करने में पुलिस की सकारात्मक भूमिका से भी इन्कार नहीं किया जा सकता परंतु इससे नकारात्मक छवि में कोई बदलाव नहीं आया है।

तमिलनाडु के तूतीकोरिन में पुलिस कस्टडी में पिता और पुत्र (जयराज एवं फेनिक्स) की मौत का मामला पुलिस बर्बरता की शर्मनाक अभिव्यक्ति है। पुलिस के अनुसार मोबाइल फोन की दुकान को अनुमति के घंटों से अतिरिक्त समय तक खुला रखने के कारण 19 जून को उन्हें गिरफ्तार किया गया था। गवाहों का कहना है कि मामला यह नहीं था जो बताया जा रहा है बल्कि पीड़ित ने एक पुलिसकर्मी को इ.एम.आई. पर मोबाइल देने से मना कर दिया था जिसको लेकर उन दोनों में कहा-सुनी हुई जिसका सबक सिखाने के लिए पुलिसकर्मी ने पिता और पुत्र को पब्लिक के सामने मारा-पीटा, गिरफ्तार किया और उनका यौन शोषण भी किया जिसके चलते पिता और पुत्र की कथित रूप से पुलिस हिरासत में टॉर्चर के कारण मौत हो गई थी। यह एक केस नहीं है बल्कि कुछ दिन बाद ही तेनकाशी जिले में रहने वाले एक 25 साल के ऑटोरिक्शा ड्राइवर को पुलिसकर्मियों ने इस कदर पीटा की उसकी मौत हो गई। यह सभी घटनाएँ वे हैं जो कोविड-19 या लॉकडाउन के दौरान सामने आई हैं जबकि इस दौरान ऐसे अनेक मामले भी देखने और सुनने को मिले जब सब्जी के ठेले उलट दिए गए या मजदूरों पर डंडे बरसाए गए। यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ आए दिन संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों की खुले आम धज्जियां उड़ती नजर आती हैं। दूसरी तरफ अमेरिका जैसे राष्ट्रपति शासन वाले देश में पुलिस द्वारा अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की हत्या पर न केवल सारा अमेरिका प्रशासन के विरुद्ध लामबंद हो जाता है बल्कि पूरी दुनिया में आक्रोश फैल जाता है। आखिर यह अंतर क्यों इस पर गहन चिंतन की जरुरत है। हमारे देश में यह कोई इकलौती घटना नहीं है पिछले कुछ महीनों के समाचार पत्र उठाकर देख लीजिए बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, तमिलनाडू इत्यादि राज्यों में हुई ऐसी अनेक घटनाएं मिल जायेंगी जो पुलिस के अत्याचार की कहानी कहती नजर आती हैं।

मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सुहास चकमा के अनुसार प्रतिदिन देश में 5 कस्टोडीयल डेथ (हिरासत में मौत) होती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2005 से 2018 के बीच 500 लोगों की हिरासत में मौत हुई है जिनके लिए आज तक किसी भी पुलिसकर्मी को सजा नहीं मिली क्यों? इनके विरुद्ध चार्जशीट तो दाखिल होती है पर सजा नहीं मिलती। वहीं वर्ष 2018 में पुलिस हिरासत में मौत के 70 मामले सामने आए जिनमें से 12 मामले तमिलनाडू से और 14 मामले गुजरात से सम्बद्ध थे। साथ ही 70 में से केवल 3 केस में शारीरिक उत्पीडन सामने आया जबकि बाकी सभी केस में बीमारी, आत्महत्या, भागने का प्रयास, सड़क दुर्घटना को मौत का कारण बता दिया गया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में वर्ष 2019 में हिरासत में मौत के 117 मामले रिपोर्ट हुए। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि पुलिस को यह अधिकार किसने दिया कि वे राज्य/सिस्टम द्वारा दी गई शक्ति का इस तरह दुरूपयोग कर सके? 

मनोवैज्ञानिक और जाँचकर्ता इस तरह की घटनाओं के पीछे पुलिस कर्मी के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों, नौकरी में अत्यधिक दबाव, कार्यस्थल के अनुपयुक्त माहौल को जिम्मेदार मानते हैं। नौकरी में आने से पहले ही हर व्यक्ति को ज्ञात होता है कि उन्हें किस प्रकार के कर्तव्यों का निर्वहन करना है वे अपनी इच्छा से इस पेशे को चुनते हैं फिर तनाव कैसा? ऐसा कौन-सा पेशा या व्यवसाय है जिसमें तनाव या दबाव नहीं होता, जहाँ सीनियर अपने जूनियर का शोषण नहीं करते, जहाँ प्रतिबद्धता से काम करने वाले व्यक्ति को उसके अपने ही सहकर्मी प्रताड़ित या परेशान नहीं करते? उस पर काम का इतना बोझ डाल दिया जाता है कि वह या तो वहां से नौकरी छोड़ कर भाग जाए या फिर वह भी उनकी तरह नकारा बन जाए। यह मानव प्रवृति है कि वह किसी को तरक्की करते या खुश होते नहीं देख सकता। इसलिए पुलिसकर्मियों के द्वारा किए गए अवैधानिक अत्याचारों को किसी भी प्रकार से उचित या न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। एक मानवाधिकार संगठन के संयोजक बी.सी. मजूमदार के अनुसार पुलिस वालों को कानून का कोई खौफ नहीं होता, वह खुद को कानून से ऊपर समझते हैं। इसी मानसिकता की वजह से ऐसी घटनाओं पर अंकुश नहीं लग पा रहा है।

हमें इस तथ्य से भी इन्कार नहीं करना चाहिए कि जटिल सेवा शर्तों, कार्य के अधिक घंटे, पुलिस बल की कम संख्या एवं आधुनिक प्रौद्योगिकी का अभाव ऐसे पक्ष हैं जिनके कारण मध्यम एवं निम्न स्तर का पुलिस बल अनेक कुंठाओें का शिकार हैं। इसके साथ ही उच्च अधिकारियों एवं कांस्टेबल के मध्य भेदभाव एवं असमानता का दमनकारी चरित्र साफ-साफ इनके व्यवहार में देखा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के प्रतिमानों के अनुसार भारत में लगभग 6,00,000 पुलिस कर्मियों का अभाव है। परन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि आप अपनी कुंठाओं या अधिक कार्यभार का गुस्सा आम निर्दोष जनता पर उतारे। पुलिस एवं भ्रष्टाचार लगभग समानार्थक हो गये हैं और यदि न्याय की आशा में पुलिस के सम्मुख पहुँचा कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार का साम्राज्य देखता है तो फिर उसके सामने सभी प्रकार की औपचारिक संस्थाओं के लिए वैधता का संकट उत्पन्न हो जाता है।  

गैर-सरकारी संस्था कॉमन कॉज एवं सीएसडीएस-लोकनीति द्वारा 21 राज्यों के 12000 पुलिस कर्मियों पर किये गए एक सर्वे में सामने आया कि 12% पुलिसकर्मी को कभी मानवाधिकार प्रशिक्षण नहीं मिलता। यह प्रतिशत अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न है जैसे बिहार में 38%, असम में 31%, उत्तर प्रदेश में 19%। और जिनको मिला भी है उनका कहना है केवल नियुक्ति के समय ऐसा प्रशिक्षण दिया जाता है। साथ ही अधिकांश पुलिस कर्मियों ने यह स्वीकार किया कि अपराधियों के विरुद्ध इस तरह का हिंसक व्यवहार उचित है। यह ब्रिटिश कालीन समाज नहीं है जहाँ पुलिस को प्रशिक्षण के दौरान भारतीय नागरिकों पर जुल्म करना सिखाया जाता हो। यह स्वाधीन भारत है जहाँ संविधान ने सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए हैं और उनका उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध कार्यवाही करना कानून के दायरे में आता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2017 में पुलिस हिरासत में 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। इनमें से 58 लोग रिमांड पर नहीं थे यानी उन्हें गिरफ्तार तो किया गया लेकिन अदालत में पेश नहीं किया गया। क्या पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षण के दौरान कानून नहीं सिखाया जाता कि सीआरपीसी की धारा 57 के तहत पुलिस किसी व्यक्ति को 24 घंटे से ज्यादा हिरासत में नहीं ले सकती है। अगर पुलिस किसी को 24 घंटे से ज्यादा हिरासत में रखना चाहती है तो उसको सीआरपीसी की धारा 56 के तहत मजिस्ट्रेट से इजाजत लेनी होगी और मजिस्ट्रेट इस संबंध में इजाजत देने का कारण भी बताएगा। कानून के मुताबिक गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की हर 48 घंटे के अंदर मेडिकल जांच होनी चाहिए। सीआरपीसी की धारा 55 (1) के मुताबिक गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की सुरक्षा और स्वास्थ्य का ख्याल पुलिस को रखना होगा। अगर उक्त किसी भी कानून का पुलिस पालन नहीं करती है तो उसकी गिरफ्तारी गैरकानूनी होगी और इसके लिए पुलिस के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है।

पुलिस की भूमिका को सामाजिक, राजनीतिक और राज्यों के दबाव से पृथक करके  नहीं देखा जा सकता। जब पुरुषसत्ता के द्वारा परिवार, जाति, धर्म संस्था में हिंसा को वैधता प्राप्त है तो फिर पुलिस कैसे थर्ड डिग्री हिंसा से अछूती रह सकती है? आखिर उनका समाजीकरण तो इन्ही संस्थाओं में होता है। क्या जाति, धर्म एवं परिवार में होने वाली हिंसा थर्ड डिग्री के अत्याचार में शामिल नहीं है? और तो और राज्य भी तो पुरुषसत्तात्मक है इसलिए संभवतः राज्य द्वारा पुलिस व्यवस्था में सुधार के प्रयास नहीं किये जाते। होना तो यह चाहिए कि हाशिए पर खड़े लोगो को यह लगे कि उनकी सहायता के लिए पुलिस एवं न्यायपालिका है। यदि ऐसा नहीं होता है तो किसी भी समय लोकतंत्र के प्रति अनास्था के स्वर देश के सम्मुख अनेक संकटों को जन्म दे सकते हैं। अमेरिका में अश्वेत नागरिक की हत्या पर जनता का वैश्विक स्तर पर सामूहिक प्रतिरोध इसका एक संकेत है। इसलिए अपराधी में भय और आमजन में विश्वास के नारे को पुलिस के संदर्भ में यथार्थ रूप दिये जाने की आवश्यकता है।

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