राजनीति के अपराधीकरण का काला सच

अरविंद जयतिलक

उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर जिले के चैबेपुर के बिकरु गांव में अपराधी तत्वों द्वारा आठ पुलिसकर्मियों की निर्मम हत्या न सिर्फ अपराधी तत्वों के बुलंद हौसले को इजहार करता है बल्कि इस घटना ने राजनीति के अपराधीकरण की सच्चाई को भी नंगा कर दिया है। हत्या के लिए जिम्मेदार जिस शख्स का नाम सामने आ रहा है उसे सपा और बसपा जैसे राजनीतिक दलों का हद भर संरक्षण प्राप्त था। अब जब हत्यारे की काली करतूत दुनिया के सामने आ गयी है तो ये राजनीतिक दल एकदूसरे को जिम्मेदार ठहरा खुद को दूध का धुला साबित करने में लगे हैं। यह पहली बार नहीं है जब उत्तर प्रदेश में सियासी दलों द्वारा संरक्षित अपराधी का हिंसात्मक चेहरा सामने आया है। उत्तर प्रदेश में ऐसे बहुतेरे आपराधिक चेहरे हैं जिन्हें सियासी दलों का संरक्षण और वरदहस्त प्राप्त है। यदा-कदा उनकी काली करतूतें सामने आती भी रहती हैं। जब भी चुनाव आता हैं सियासी दलों द्वारा ऐसे सैकड़ों आपराधिक लोगों को चुनावी मैदान में डटा दिया जाता है। वे चुनाव जीतकर आते भी हैं। गौर करें तो यह रवायत सिर्फ उत्तर प्रदेश राज्य तक ही सीमित नहीं है। देश के तकरीबन सभी राज्यों में ऐसा ही चिंतित करने वाला परिदृश्य है। विडंबना यह है कि राजनीति का अपराधीकरण कम होने के बजाए बढ़ता जा रहा है। नतीजा संसद और विधानसभाओं से लेकर पंचायतों तक आपराधिक किस्म के लोगों की नुमाइंदगी बढ़ती जा रही है। आंकड़ों पर गौर करें तो 2014 में दागी सांसदों की संख्या 34 फीसद थी जो कि 2019 में बढ़कर 46 फीसद हो गयी। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2014 में कुल 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे। इसमें लोकसभा के 184 और राज्यसभा के 44 सांसद शामिल थे। इनमें महाराष्ट्र के 160, उत्तर प्रदेश के 143, बिहार के 141 और पश्चिम बंगाल के 107 विधायकों पर मुकदमें लंबित थे। सभी राज्यों के आंकड़े जोड़ने के बाद कुल संख्या 1581 थी। जबकि 2019 आमचुनाव में जीतकर आए दागी सांसदों की संख्या 2014 के मुकाबले बढ़ गयी है। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 542 सांसदों में से 233 यानी 43 फीसद सांसद दागी छवि के हैं। इन सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमें लंबित हैं। हलफनामों के हिसाब से 159 यानी 29 फीसद सांसदों के खिलाफ हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे संगीन मुकदमें लंबित हैं। गौर करें तो सभी राजनीतिक दलों से दागी सांसद चुनकर आए हैं। आंकड़ों के मुताबिक सबसे अधिक दागी सांसद बिहार और बंगाल से चुनकर आए हैं। याद होगा गत वर्ष पहले सर्वोच्च अदालत ने दागी माननीयों पर लगाम कसने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री एवं राज्य के मुख्यमंत्रियों को ताकीद किया था कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दें क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। तब सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा था कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है और संविधान की संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे। लेकिन विडंबना देखिए कि अदालत के इस नसीहत का पालन नहीं हो रहा है। दरअसल इसका प्रमुख कारण यह है कि सर्वोच्च अदालत ने दागी सांसदों और विधायकों को मंत्री पद के अयोग्य मानने में हस्तक्षेप के बजाए इसकी नैतिक जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दिया है। उसने व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। इसका संवैधानिक पहलू यह है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों का अपना मंत्रिमंडल चुनने का हक संवैधानिक है और उन्हें इस मामले में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। यहां ध्यान देना होगा कि दागी माननीयों को लेकर सर्वोच्च अदालत एक दो बार नहीं अनगिनत बार सख्त टिप्पणी कर चुका है। लेकिन हर बार यहीं देखा गया कि राजनीतिक दल अपने दागी जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए कुतर्क गढ़ते नजर आए। याद होगा गत वर्ष पहले जब सर्वोच्च अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए दोषी सांसदों व विधायकों की सदस्यता समाप्त करने और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगायी तो राजनीतिक दलों ने किस तरह वितंडा खड़ा किया। अभी गत माह पहले सर्वोच्च अदालत ने राजनीति में अपराधीकरण पर गंभीर चिंता जताते हुए उसे रोकने के लिए चुनाव आयोग से रुपरेखा पेश करने को कहा। सर्वोच्च अदालत ने यह आदेश उस वक्त दिया जब चुनाव आयोग द्वारा कहा गया कि उम्मीदवारों का आपराधिक ब्योरा प्रकाशित कराने के अदालत के आदेश पर अमल के बावजूद भी राजनीति में आपराधिकरण रुक नहीं रहा है। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने गत वर्ष 25 सितंबर, 2018 को दिए अपने आदेश में राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर चिंता जाहिर करते हुए संसद से राजनीति में अपराधियों का प्रवेश रोकने के लिए कड़ा कानून बनाने को कहा था। साथ ही उम्मीदवार के आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रचार के बारे में भी दिशानिर्देश दिए थे ताकि मतदाताओं को उनके बारे में वास्तविक जानकारी मिल सके। तब अदालत ने आदेश दिया था कि उम्मीदवार कम से कम तीन बार अखबार और टीवी चैनल में प्रचार कर अपनी अपराधिक पृष्ठभूमि को सामने लाए। न्यायालय के आदेश के बाद चुनाव आयोग ने इस बारे में एक अधिसूचना जारी की लेकिन इसके बावजूद भी राजनीति में अपराधिकरण नहीं रुका। उसके बाद याचिकाकर्ता द्वारा चुनाव आयोग पर आरोप लगाया गया कि आयोग द्वारा जारी अधिसूचना में यह नहीं बताया गया कि किन-किन अखबारों में उम्मीदवार ये प्रचार करेंगे और कौन-कौन से न्यूज चैनलों पर किस टाइम प्रचार करेंगे। उसका परिणाम यह हुआ कि उम्मीदवार किसी भी छोटे-छोटे अखबार में ब्यौरा देकर खानापूर्ति करने में सफल रहे और यह जनता के संज्ञान में नहीं आया। यही नहीं वे टीवी चैनल में समय तय न होने के कारण देर रात इस बारे में प्रचार किए और उसे जनता देख नहीं पायी। अब चुनाव आयोग द्वारा अदालत से मांग की गयी है कि वह खुद राजनीतिक दलों को निर्देश दे कि वे अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को चुनाव लड़ने के लिए टिकट ही न दे। लेकिन सवाल लाजिमी है कि क्या राजनीतिक दल सर्वोच्च अदालत के निर्देश को मानेंगे। अकसर राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक मंचों से मुनादी पीटा जाता है कि राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए घातक है। वे इसके खिलाफ कड़ा कानून बनाने और चुनाव में दागियों को टिकट न देने की भी हामी भरते हैं। लेकिन जब उम्मीदवार घोषित करने का मौका आता है तो दागी ही उनकी पहली पसंद बन जाते हैं। दरअसल राजनीतिक दलों को विश्वास हो गया है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही बड़ी गारंटी है। गौर करें तो पिछले कुछ दशक से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। हैरान करने वाली बात यह कि दागी चुनाव जीतने में सफल भी हो रहे हैं। लेकिन यह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है। यहां ध्यान देना होगा कि इसके लिए सिर्फ राजनीतिक दलों और उनके नियंताओं को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता भी बराबर की कसूरवार है। जब देश की जनता ही साफ-सुथरे प्रतिनिधियों को चुनने के बजाए जाति-पांति और मजहब के आधार पर बाहुबलियों और दागियों को चुनेगी तो स्वाभाविक रुप से राजनीतिक दल उन्हें टिकट देंगे ही। नागरिक और मतदाता होने के नाते जनता की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह ईमानदार, चरित्रवान, विवेकशील और कर्मठ उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि चुने। यह तर्क सही नहीं कि कोई दल साफ-सुथरे लोगों को उम्मीदवार नहीं बना रहा है इसलिए दागियों को चुनना उनकी मजबूरी है। यह एक खतरनाक सोच है। देश की जनता को समझना होगा कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के आचरण का बदलते रहना एक स्वाभावगत प्रक्रिया है। लेकिन उन पर निगरानी रखना और यह देखना कि बदलाव के दौरान नेतृत्व के आवश्यक और स्वाभाविक गुणों की क्षति न होने पाए यह जनता की जिम्मेदारी है। देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तरक्की के लिए जितनी सत्यनिष्ठा व समर्पण राजनेताओं की होनी चाहिए उतनी ही जनता की भी। दागियों को राजनीति से बाहर खदेड़ने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों के कंधे पर डालकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता।

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