स्‍वाभिमानी राष्‍ट्र गुलामी के कलंकों को बर्दाश्‍त नहीं करते : आर्नोल्‍ड टॉयन्‍बी

आर्नोल्‍ड टॉयन्‍बी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्‍ठ इतिहासज्ञ माने गये। वर्ष 1960 में वे भारत आये तथा उन्‍होंने तीन भाषण दिये। इन भाषणों में उन्‍होंने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया कि काशी और मथुरा के जन्‍मस्‍थलों पर अभी भी मस्जिद बनी हैं तथा उन्‍हें हटाने का कोई प्रयास भी नहीं हुआ है। हम उनके भाषणों पर आधारित यह लेख यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

काशी की ज्ञानवापी मस्जिद, कृष्‍ण जन्‍मभूमि पर बनी ईदगाह तथा देश के मंदिरों को तोड़कर बनाई गई हजारों मस्जिदें राष्‍ट्रीय अपमान और गुलामी की प्रतीक हैं। औरंगजेब को काशी और मथुरा में मस्जिद बनाने के लिए और भी काफी स्थान थे। बाबर को भी मस्जिद बनाने के लिए पूरी अयोध्‍या थी लेकिन उसने श्रीराम-जन्‍मभूमि मंदिर को ध्‍वस्त कर उसी स्थान पर मस्जिद का ढांचा खड़ा करने की कोशिश की। इसी तरह औरंगजेब ने भी ज्ञानवापी मंदिर तथा श्रीकृष्‍णजन्‍मभूमि मंदिर के स्थान पर ही मस्जिदें बनवाई। स्पष्ट है कि ये मस्जिदें विदेशी हमलावरों की विजय और भारत की हार और अपमान के स्मारक हैं। कोई भी स्वाभिमानी और स्वतंत्र राष्ट्र गुलामी की निशानियों को सहेजकर नहीं रखता, बल्कि उन्‍हें नष्ट कर देता है।

रूसियों ने चर्च को ध्‍वस्‍त किया

भारत के शासकों की स्वाभिमान-शून्‍यता और निर्लज्‍जता ऐसी है कि वे इन शर्मनाक-स्मारकों की सुरक्षा में जुटे हुए हैं। वर्तमान सत्ताधीशों की सत्ता लोलुपता तो देखिए कि काशी और मथुरा के कलंकों की सुरक्षा के लिए उन्‍होंने कानून तक बना दिये हैं। यही नहीं काशी-विश्वनाथ में जलाभिषेक होता है तो सारे सेकुलर-सियार हू-हू करना शुरु कर देते हैं। मथुरा में यज्ञ करने की बात आती है तो आसमान सर पर उठा लिया जाता है। पूरी केन्‍द्र सरकार हरकत में आ जाती है, केन्‍द्रीय मंत्री मथुरा में पहुंच जाते हैं, जबकि इन मंत्रियों को कश्मीरी विस्थापितों की सुध लेने की याद तक भी नहीं आती है। एक ओर भारत के हुय्मरानों की यह ‘आत्‍म-गौरवहीनता’ है तो दूसरी ओर ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जिन्‍होंने गुलामी के निशानों को जड़ सहित मिटा दिया।

आर्नोल्ड टॉयन्‍बी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ इतिहासकार माने जाते हैं। सन 1960 में श्री टॉयन्‍बी ‘अब्‍दुल कलाम आजाद स्मृति व्याख्यानमाला’ में बोलने के लिए दिल्ली आये। ‘भारत और एक विश्व’ विषय पर उनके तीन भाषण हुए। ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ ने ये तीनों भाषण एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किये हैं। श्री टॉयन्‍बी ने अपने भाषण में पोलैंड का एक उदाहरण दिया कि किस प्रकार पोलैंड ने स्वतंत्र होते ही रूसियों द्वारा बनवाया गया चर्च ध्‍वस्त कर दिया। श्री टॉयन्‍बी के शब्‍दों में,

”सन् 1914-15 में रूसियों ने पोलैंड की राजधानी वार्सा को जीत लिया तो उन्‍होंने शहर के मुख्य चौक में एक चर्च बनवाया। रूसियों ने यह पोलैंडवासियों को निरन्‍तर याद करवाने के लिए बनवाया कि पोलैंड में रूस का शासन है। जब पोलैंड 1918 में आजाद हुआ तो पोलैंडवासियों ने पहला काम उस चर्च को ध्‍वस्त करने का किया, हालांकि नष्ट करने वाले सभी लोग ईसाई मत को मानने वाले ही थे। मैं जब पोलैंड पहुंचा तो चर्च ध्‍वस्त करने का काम समाप्‍त हुआ ही था। मैं एक चर्च को ध्‍वस्‍त करने के लिए पोलैंड को दोषी नहीं मानता क्‍योंकि रूस ने वह चर्च राजनीतिक कारणों से बनवाया था। उनका मन्‍तव्‍य पोल लोगों का अपमान करना था।‘’

उसी भाषण में श्री टॉयन्‍बी ने आगे कहा कि, ‘इसी सिलसिले में मैं काशी और मथुरा की मस्जिदों का जिक्र करना चाहूंगा। औरंगजेब ने अपने दुश्मनों को अपमानित करने के लिए जान-बूझकर इन मंदिरों को मस्जिदों में बदल डाला, उसी दुर्भावना के कारण जिसके कारण कि रूसियों ने वार्सा में चर्च बनाया था। इन मस्जिदों का उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि हिन्‍दुओं के पवित्रतम स्थानों पर भी मुसलमानों की हुकूमत चलती है।”

श्री टॉयन्‍बी के अनुसार पोलिश लोगों ने समझदारी का काम किया क्‍योंकि चर्च ध्‍वस्त करने से रूस और पोलैंड के बीच की शत्रुता की भावना समाप्‍त हो गई। वह चर्च पोल लोगों को रूस के आक्रमण की याद दिलाता रहता था। आर्नोल्ड टॉयन्‍बी ने इस बात पर खेद प्रकट किया कि हिन्‍दुस्थान के लोग हिन्‍दू और मुस्लिमों में तनाव की जड़ इन मस्जिदों को हटा नहीं रहे हैं। उन्‍होंने यह कह कर अपनी बात समाप्‍त की कि, ‘’भारत की इस सहिष्‍णुता से मैं स्‍तभ्भित हूं साथ इससे मुझे अपार पीड़ा भी हुई है।‘’

नास्तिक रूसियों ने मूर्तियां स्‍थापित कीं

यह उन दिनों की घटना है जब रूस में साम्यवाद अपने उफान पर था। सन 1968 में भारत के सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल लोकसभा के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष नीलम संजीव रेड्डी के नेतृत्‍व में रूस गया। रूसी दौरे के समय सांसदों को लेनिनग्राद शहर का एक महल दिखाने भी ले जाया गया। वह रूस के ‘जार’ (राजा) का सर्दियों में रहने के लिए बनवाया गया महल था। महल को देखते समय संसद सदस्यों के ध्‍यान में आया कि पूरा महल तो पुराना लगता था किन्‍तु कुछ मूर्तियां नई दिखाई देती थीं। पूछताछ करने पर पता लगा कि वे मूर्तियां ग्रीक देवी-देवताओं की हैं। सांसदों में प्रसिद्ध विचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी भी थे। उन्‍होंने सवाल किया कि, ‘आप तो धर्म और भगवान के खिलाफ हैं, फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की मूर्तियों को फिर से बनाकर यहां क्‍यों रखा है?’ इस पर साथ चल रहे रूसी अधिकारी ने उत्तर दिया, ‘इसमें कोई शक नहीं कि हम घोर नास्तिक हैं किन्‍तु महायुद्ध के दौरान जब हिटलर की सेनाएं लेनिनग्राद पर पहुंच गई तो वहां हम लोगों ने उनसे जमकर संघार्ष किया। इस कारण जर्मन लोग चिढ़ गये और हमारा अपमान करने के लिए उन्‍होंने यहां की देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां तोड़ दी। इसके पीछे यही भाव था कि रूस का राष्ट्रीय अपमान किया जाये। हमारी दृष्टि में हमें ही नीचा दिखाया जाये। इस कारण हमने भी प्रणा किया कि महायुद्ध में हमारी विजय होने के पश्चात् राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना करने के लिए हम इन देवताओं की मूर्तियां फिर से स्थापित करेंगे।

रूसी अधिकारी ने आगे कहा कि, ‘हम तो नास्तिक हैं ही किन्‍तु मूर्ति भंजन का काम हमारा अपमान करने के लिए किया गया था और इसलिए इस राष्‍ट्रीय अपमान को धो डालने के लिए हमने इन मूर्तियों का पुनर्निर्माण किया।‘

ये मूर्तियां आज भी जार के ‘विन्‍टर पैलेस’ में रखी हैं और सैलानियों के मन में कौतुहल जगाती हैं।

दक्षिण कोरिया की कैपिटल बिल्डिंग

दक्षिण कोरिया अनेक वर्षों तक जापान के कब्‍जे में रहा है। जापानी सत्ताधारियों ने अपनी शासन सुविधा के लिए राजधानी सिओल के बीचों-बीच एक भव्य इमारत बनाई और उसका नाम ‘कैपिटल बिल्डिंग’ रखा। इस समय इस भवन में कोरिया का राष्ट्रीय संग्रहालय है। इस संग्रहालय में अनेक प्राचीन वस्तुओं के साथ जापानियों के अत्‍याचारों के भी चित्रा हैं।

वर्ष 1995 में दक्षिण कोरिया को आजाद हुए पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। अत: वहां की सरकार आजादी का स्‍वर्ण जयंती वर्ष’ धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रही है। इस स्वतंत्राता प्राप्ति की स्‍वर्णा जयंती महोत्‍सव का एक प्रमुख कार्यक्रम होगा ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को ध्‍वस्त करना। दक्षिण कोरिया की सरकार ने इस विशाल भवन को गिराने का निर्णय ले लिया है। इसमें स्थित संग्रहालय को नये बन रहे दूसरे भवन में ले जाया जायेगा। इस पूरी कार्रवाई में 1200 करोड़ रुपये खर्च होंगे।

यह समाचार 2 मार्च 1995 को बी.बी.सी. पर प्रसारित हुआ था। कार्यक्रम में ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को भी दिखाया गया। इस भवन में स्थित ‘राष्ट्रीय वस्तु संग्रहालय’ के संचालक से बीबीसी संवाददाता की बातचीत भी दिखाई गई। जब उनसे इस इमारत को नष्ट करने का कारण पूछा गया तो संचालक महोदय ने बताया कि, ‘इस इमारत को देखते ही हमें जापान द्वारा हम पर लादी गई गुलामी की याद आ जाती है। इसको गिराने से जापान और दक्षिण कोरिया के बीच सम्‍बंधों का नया दौर शुरु हो सकेगा। इसके पीछे बना हमारे राजा का महल लोगों की नजरों से ओझल रहे यही इसको बनाने का उद्देश्‍य था और इसी कारण हम इसको गिराने जा रहे हैं।‘

दक्षिण कोरिया की जनता ने भी सरकार के इस निर्णय का उत्‍साहपूर्वक स्‍वागत किया। (यह भवन उसी वर्ष ध्‍वस्‍त कर दिया गया।)

पांच सौ साल पुराने गुलामी के निशान मिटाये कुछ वर्ष पहले तक युगोस्‍लाविया एक राज्‍य था जिसके अन्‍तर्गत कई राष्‍ट्र थे। साम्‍यवाद के समाप्‍त होते ही ये सभी राष्‍ट्र स्‍वतंत्र हो गये तथा सर्बिया, क्रोशिया, मान्‍टेनेग्रो, बोस्निया हर्जेगोविना आदि अलग-अलग नाम से देश बन गये। बोस्निया में अभी भी काफी संख्‍या में सर्ब लोग हैं। ऐसे क्षेत्रों में जहां सर्ब काफी संख्‍या में हैं, इस समय (सन् 1995) सर्बियाई तथा बोस्निया की सेना में युद्ध चल रहा है। इस साल के शुरु में सर्ब सैनिकों ने बोस्निया के कब्‍जे वाला एक नगर ‘इर्वोनिक’ अपने अधिकार में ले लिया।

इर्वोनिक की एक लाख की आबादी में आधे सर्ब हैं और शेष मुसलमान। सर्ब फौजों के कब्‍जे के बाद मुसलमान इस शहर से भाग गये तथा बोस्निया के ईसाई यहां आ गये। ब्रंकों ग्रूजिक नाम के एक सर्ब नागरिक को शहर का महापौर भी बना दिया गया। महापौर ने सबसे पहले यह काम किया कि नगर के बाहर बहने वाली ड्रिना नदी के किनारे बनी एक टेकड़ी पर एक ‘क्रास’ लगा दिया। महापौर ने बताया कि, ‘इस स्‍थान पर हमारा चर्च था जिसे तुर्की के लोगों ने सन् 1463 में ध्‍वस्‍त कर डाला था। अब हम उस चर्च को इसी स्‍थान पर पुन: नये सिरे से खड़ा करेंगे।‘ श्री ग्रूजिक ने यह भी कहा कि तुर्कों की चार सौ साल की सत्ता में उनके द्वारा खड़े किये गये सारे प्रतीक मिटाये जाएंगे। उसी टेकड़ी पर पुराने तुर्क साम्राज्‍य के रूप में एक मीनार खड़ी थी उसे सर्बों ने ध्‍वस्‍त कर दिया। टेकड़ी के नीचे ‘रिजे कॅन्‍स्‍का’ नाम की एक मस्जिद को भी बुलडोजर चलाकर मटियामेट कर दिया गया।

यह विस्‍तृत समाचार अमरीकी समाचार पत्र हेरल्‍ड ट्रिब्‍युन में 8 मार्च 1995 को छपा। समाचार लाने वाला संवाददाता लिखता है कि उस टेकड़ी पर पांच सौ साल पहले नष्‍ट किये गये चर्च की एक घंटी पड़ी हुई थी। महापौर ने अस्‍थायी क्रॉस पर घंटी टांककर उसको बजाया। घंटी गुंजायमान होने के बाद महापौर ने कहा कि, ‘मैं परमेश्‍वर से प्रार्थना करता हूं कि वह क्लिंटन (अमरीकी राष्‍ट्रपति) को थोड़ी अक्‍ल दे ताकि वह मुसलमानों का साथ छोड़कर उसके सच्‍चे मित्र ईसाइयों का साथ दे।

सोमनाथ का कलंक मिटाया गया

भारत में जब तक सत्ता की भूख नेताओं के सर पर सवार नहीं हुई थी, गुलामी के प्रतीकों को मिटाने का प्रयत्‍न किया गया। नागपुर के विधानसभा भवन के सामने लगी रानी विक्‍टोरिया की संगमरमर की मूर्ति आजादी के बाद हटा दी गई। मुम्‍बई के काला घोड़ा स्‍थान पर घोड़े पर सवार इंग्‍लैंड के राजा की प्रतिमा हटाई गई। विक्‍टोरिया, एंडवर्ड और जार्ज पंचम से जुड़े अस्‍पताल, भवन, सड़कों आदि तक के नाम बदले गये। लेकिन जब सत्ता का स्‍वार्थ और चाहे जैसे हो सत्ता में बने रहने की अंधी लालसा जगी तो दिल्‍ली की सड़कों के नाम अकबर, जहांगीर, शाहजहां तथा औरंगजेब रोड तक रख दिये गये।

भारत के आजाद होते ही सरदार पटेल ने सोमनाथ का जीर्णोद्धार कराया। उस स्‍थान पर बनी मस्जिदों व मजारों को ध्‍वस्‍त कर भव्‍य मंदिर का निर्माण कराया गया। मंदिर की प्राण-प्रतिष्‍ठा के समारोह में सेकुलरवादी पं. नेहरु के विरोध के बावजूद तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद सम्मिलित हुए। उस समय किसी ने मुस्लिम भावनाओं की या मस्जिदें नष्‍ट न करने की बात नहीं उठाई। इसलिए कि उस समय सरदार पटेल जैसे राष्‍ट्रवादी नेता थे और देश की जनता में भी आजाद के आंदोलन का कुछ जोश बाकी था। (पाथेय कण)

8 COMMENTS

  1. राजेश कपूर जी श्रीराम तिवारी जैसे झोलाछाप लोगों पर
    प्रतिक्रिया देकर अपना अमूल्य समय नष्ट न किया करें.
    ———

  2. @रमेश चंद्र….हमें टायनबी को इसलिए उद्घ्रित करना पङा कि अब तो अङोसी पङोसी भी कहने लगे हैं ….अब तो जागो….

  3. Lekhak ko apna naam awashya likhna chahiye taki pata chal sake ki ghulami ke kalankon ko sahen na kar paney ki seekh kaon sa widwan lekhak de raha hai.Nam prakashit karte kyon sharm aati hai. Waise shri ram Tiwari ji ne apni uprokt pratikirya men is lekh ke likhne wale ko spasht aaina dikha diya है. लेखक महोदय राष्ट्र मंडल खेलों के विषय में भी कुछ ऐसा ही लिखते तो अच्छा होता.

  4. बचपन से कह्कावत सुनता आ रहा हूँ, ”आटा गूंधते हुए हिलती क्यों है.” जिन्हें नकारात्मक कहने, सोचने के आदत पडी हो वे हर बात में कमी निकाल ही लेते हैं. प्रशंसा के स्वर उनसे निकलते ही नहीं, ख़ास कर तब जब भारत की महानता की कोई बात कही गई हो ; तब तो कुछ अधिक ही तिलमिला उठते हैं.
    – जिस विचार धारा के प्रणेता ही विदेशी हों, उसके अनुयायी ऐतराज़ करते हैं कि विदेशी विद्वान टायनबी को क्यों उधृत किया. असल ऐतराज़ तो ये है कि भारत में फैलाई जा रही राष्ट्र विरोधी लहर में ये विचार बाधक हैं, ढोंगी पंथ निरपेक्षता का भेद खोलने वाले हैं.. अतः किसी न किसी बहाने इन्हें गलत तो कहना ही है.

  5. ऐसे लेख हैं जो लोगों को सही दिशा में सोचने की सामर्थ्य प्रदान करते हैं. अगर पूर्वाग्रहों के बिना उपरोक्त लेख के तथ्यों को समझा जाये तो फिर बाबर की ही नहीं, गुलामीकीऔर निशानियों को मिटाने में भी देश गौरव अनुभव करेगा. और इसका विरोध करने वाले देश के दुशमन नहीं तो और कौन होंगे ?

  6. तो नौबत यहाँ तक आ पहुंची की अब हमें -अर्नाल्ड टायनबी को उद्धृत करते हुए राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना सुनिश्चित करनी पड़ेगी ? ये मथुरा ,काशी.अयोध्या ही क्यों देश के हर गाँव -शहर -हमारे सांस्कृतिक -आध्यात्मिकता की दृष्टी से आहात हैं …अर्नाल्ड टायनबी को पेश करने के बजाय आप पढ़ें -शहीदों का स्थाई पता ….मेरे ब्लॉग पर सर्च करें ..www janwadi .blogspot .com भारत का पाँच सौ साल का इतिहास -और उसपर मुझे किसी ऐसे व्यक्ति को उद्धृत करने की जरुरत नहीं पड़ी जो स्वयम उसी आक्रान्ता वर्ग से है और भारत की गंगा जमुनी सांस्कृतिक चेतना के कारन ही उन्हें ये देश छोड़ना पड़ा था .वे श्वेत प्रभु क्यों न च्हेंगे की हम हिदुस्तानी
    उसी तरह से आपस में लड़ मरें-जिस तरह पंचतंत्र की कथा के अनुसार चालाक लोमड़ी के सामने वन्य जीव .
    इस आलेख के लिखे जाने के वर्तमान में निहतार्थ क्या हैं ?जबकि कांग्रेस भाजपा ,संघ परिवार koi bhi apne patte नहीं khol raha .udhar muslim jamaat में
    bhi bhaichaare और aman के liye duaayen की ja rahin हैं .इतिहास का gyan sbko है uske wahi tatw anukarneey हैं जो sarv dharm sambhav को pusht करते हैं .

    • यही तो दुर्भाग्य है कि हम अपनी राष्ट्रीयता को भूल गये हैं और मार्क्स- मेकाले पुत्रों द्वारा जो राष्ट्र के बारे में बताया गया उसी अवधारणा को मान कर गुलामी के कलंकों को ढो रहे हैं । हमें ऐसा करना चाहिए था कि टायनबी को यह कहने की जरुरत ही नहीं पडती । काश हम उसके कहने से पूर्व ही इन गुलामी के कलंकों को मिटा देते । टायनबी को कहने का मौका ही नहीं मिलता । शायद यह बढिया होता ।

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