निस्वार्थ सेवा ही असली सेवा है

– डॉ0 कुलदीप चंद अग्निहोत्री

मध्यकालीन भारतीय दश गुरु परम्परा के आठवें गुरु श्री हरकिशन जी के जीवन का एक प्रसंग है। उनके जीवन काल में प्लेग का प्रकोप हुआ था। प्लेग अपने आप में भयावह बीमारी है और उन दिनों तो प्लेग को मृत्यु का पर्यायवाची ही माना जाता था। लोग अपने घर बार छोडकर भाग रहे थे। जो रोग की चपेट में आ गए थे उनके सगे सम्बंधी उनको वैसी ही हालत में छोडकर पलायन कर रहे थे। मृत्यु से सभी भयभीत रहते हैं। चारों ओर हाहाकार था। रोगी निःसहाय और निराश्रित पडे थे। श्री हरकिशन जी का रोगियों की पुकार से हृदय विचलित हुआ। किसी दूसरे को संकट में देखकर कैसे भागा जा सकता है? वह संकट चाहे आसन्न मृत्यु का संकट ही क्यों न हो। गुरुजी दिन रात रोगियों की सेवा -सुश्रूषा में जुट गए। आस -पास के लोग घबराए। कही लोग गुरु जी को ही न पकड ले? परन्तु गुरु जी को अपनी चिंता नहीं थी। उनको चिंता आर्तनाद कर रहे उन रोगियों की थी जिनको पानी पिलाने वाला भी नहीं बचा था। उनकी यह सेवा निस्वार्थ भाव की सेवा थी। शास्त्रों में जिक्र है कि निस्वार्थ भाव की सेवा ही प्रभु भक्ति का उत्कृष्ट नमूना है। जो सेवा स्वार्थ भाव से की जाए तो स्वार्थपूर्ती होते ही उस सेवा का फल भी समाप्त हो जाता है। गुरु जी इसी निस्वार्थ सेवा के जीवन्त प्रतीक थे।

इसी परम्परा का भाई कन्हैया ने पालन किया। वे रणभूमि में सभी घायलों को समान भाव से पानी पिलाते थे। इस बात की चिंता उन्हें नहीं थी कि कौन सा घायल शत्रु पक्ष का है और कौन सा घायल अपने पक्ष का है। सेवा की असली अवधारणा को न समझने वाले कुछ लोग शिकायत लेकर दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी के पास गए। उनकी शिकायत थी कि भाई कन्हैया शत्रु पक्ष के सैनिकों को भी पानी पिलाते हैं। नहीं जानते थे कि कन्हैया जी सेवा के उस धरातल पर पहुंच गए हैं जहों सेवा करने वाले का अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। यदि वे केवल अपने पक्ष के घायल सैनिकों को पानी पिलाते फिर तो इसमंे उनका स्वार्थ आ जाता। स्वार्थ यही कि अपने पक्ष का सैनिक बच जाए और शत्रु पक्ष का सैनिक घायल होने के कारण मर जाए। उनके इस भाव से पानी की सेवा के कारण शायद अपने पक्ष के कुछ घायल बच भी जाते और पानी न मिलने से शत्रु पक्ष के कुछ घायल सैनिक मर भी जाते। तब स्वार्थ सिद्धि होते ही भाव की अलौकिक भूमि अपने आप गायब हो जाती। श्री गोविंद सिंह जी तो सेवा के मर्म को जानते थे। उन्होंने हंसकर भाई कन्हैया को बुलाया और शिकायत बताई। भाई कन्हैया ने उत्तर दिया कि रणभूमि में मुझे तो कोई पक्ष या विपक्ष दिखाई नहीं देता। मुझे तो सब घायलों में एक ही मूर्ती दिखाई देती है। निस्वार्थ सेवा का इससे उत्कृष्ट उदाहरण और क्या हो सकता है। कहते हैं गुरु जी ने कन्हैया जी को मलहम भी दे दी और कहा कि सभी घायलों को मलहम भी लगाया करो।

निस्वार्थ सेवा को ऐसा ही एक बेजोड उदाहरण पिछली सदी मे देखेने में आया है। लेकिन इस बेजोड उदाहरण में एक मौलिक अंतर भी दिखाई देता है। अमृतसर में भाई पूर्णसिंह पिंगलवाडा में अनाथों, विकलांगों, विक्षिप्तों की निस्वार्थ भाव से सेवा करते थे। लोग स्वयं ही उनको दान देने के लिए पहुंचते थे। भगत पूर्णसिंह ने पिंगलवाडा के किसी भी आश्रित से कभी यह नहीं पूछा कि उसका मजहब क्या है। और न ही उन्होंने यह कोशिश की कि ये निराश्रित पिंगलवाडा में रह रहे हैं और मुझी पर आश्रित हैं इसलिए मैं इन्हेें अपने मजहब में दीक्षित कर लूं। उनका ध्येय तो निराश्रितों की निस्वार्थ भाव से सेवा करना था। और उन्होंने अपना जीवन इसी निस्वार्थ सेवा को अर्पित कर दिया। पिछली सदी में ही युगोस्लाविया की मूल निवासी टेरेसा ने भारत में रहकर सेवा का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया था। शायद इसी सेवा के कारण लोगों ने टेरेसा को मदर टेरेसा कहना शुरु कर दिया था। उसके मन मंे निराश्रितों और अनाथों के लिए बहुत ही प्यार था वह उनकी पीडा से व्याकुल हो जाती थी। लेकिन सेवा से पहले वह उनका मजहब परिवर्तित करके उन्हे इसाई सम्प्रदाय में मतांतरित कर लेती थी। सेवा भगत पूर्ण सिंह भी कर रहे थे और सेवा मदर टेरसा भी कर रही थी। लेकिन दोनों की सेवा में एक मौलिक अंतर था। भगतपूर्ण सिंह निस्वार्थ भाव से सेवा कर रहे थे लेकिन मदर टेरेसा निराश्रितो को इसाई सम्प््रादाय मंे मतांरित करने के लिए सेवा कर रही थी। यहां मदर टेरेसा को संशय का लाभ दिया जा सकता है कि सेवा वह सेवा भाव से ही करती थी। परन्तु निराश्रितों को इसाई सम्प्रदाय मंे दीक्षित कर लेती थी। यानी उसकी सेवा सशर्त थी। क्या सशर्त सेवा को निस्वार्थ सेवा कहा जा सकता है? भगतपूर्ण सिंह की सेवा न सशर्त थी और न वे किसी आश्रित को किसी दूसरे मजहब में दीक्षित करते थे। प्रश्न है कि दोनों ही सेवा कर रहे थे लेकिन दोनों के सेवा भाव में यह अंतर कैसे आया? इसका उत्तर है कि भगतपूर्ण सिंह जिन संस्कारों में और जिस परम्परा का प्रतिनिधित्व करते थे वहां निस्वार्थ सेवा ही सेवा मानी जाती है। लेकिन जिस परम्परा से मदर टेरेसा आयी थीं वहा निस्वार्थ सेवा की कल्पना शायद नहीं है और सशर्त सेवा को ही शायद सेवा माना जाता है। यही कारण है कि मदर टेरेसा द्वारा चलाए गए आश्रम मतांतरण के बहुत बडे अड्डे बन गए और भगतपूर्ण सिंह का पिंगलवाडा एक ऐसे अलौकिक आश्रम में तब्दील हो गया जिसमें सेवा का दिव्य प्रकाश आलोकित होता है। लेकिन आज शायद सेवा की आड में स्वार्थ पूर्ती करने वालों का ही बोलबाला है इसलिए मदर टेरेसा को नोबल पुरस्कार मिला और भगतपूर्ण सिंह को भुला दिया गया।

4 COMMENTS

  1. Author Dr Kuldeep Chand Agnihotri has revealed a startling information, in last para of the article, that Mother Teresa used to convert the needy to Christian religion, as a condition precedent, for rendering them service. On account of this practice, Ashrams runs by Mother Teresa were converted to centers for conversion to Christian religion. She was honored with Nobel Prize for fulfillment of her selfish motive of conversion to Christian religion.

  2. बिलकुल सही फ़रमाया की निस्वार्थ सेवा का कोई विकल्प नहीं .फिर ये उम्मीद हमें क्यों करना
    चाहिए की शहीदे आज़म भगत सिंह को भारत रत्न या नोबल प्राइज मिले .अमर शहीदों की तुलना ऐसे तत्वों से करना ठीक नहीं जो किसी विशेस सम्प्रदाय को प्रचारित करने के उद्देश्य से विदेशी धन लेते थे और भारत में चेरिटी के नाम पर धर्मांतरण में आजीवन लिप्त रहे .में तो ऐसे तत्वों का नाम भी लेना अनुचित समझता हूँ .सहीद भगतसिंह न केवल आज़ादी के पुरोधा थे .न केवल धर्मनिरपेक्ष समाजवादी प्रजातंत्र भारत की आधार शिला के सृजनहार थे अपितु सारे संसार के क्रांतिकारियों के प्रेरणा श्त्रोत भी थे .उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार यही होगा की उनके सपनो को साकार करें .
    उनके चिंतन .कार्यक्रम और नीतियां क्या थी जाने के लिए पढ़ें -सिंहावलोकन लेखक यशपाल .या सर्च करें http://www.janwadi.blogspot.com

  3. अग्निहोत्री जी,
    सुन्दर लेख के लिए शुक्रिया! कृपया ऐसे ही लिखते रहे और ज्ञान गंगा बहाते रहें!

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