देश में महिला न्यायाधीशों की हिस्सेदारी कम क्यों?

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समानता लोकतांत्रिक समाज की जीवन रेखा है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इतिहास इस बात का सदैव साक्षी रहा है कि हमारे देश में महिलाएं अपने अधिकारों को लेकर हर पल पर संघर्ष करती आईं हैं। ऐसे में कहने को भले हम एक नये युग में जी रहे है जहां समता और समानता की पैरवी संविधान से लेकर संसद तक की जाती है , लेकिन यह हमारे समाज का ही एक स्याह पक्ष है कि आज भी महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिल पाया है। फ़िर वह बात किसी भी क्षेत्र की क्यों न हो? वहीं अगर बात न्याय व्यवस्था की ही करे तो स्थिति बहुत ही दयनीय नजर आती है। हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमण ने भारत के न्यायलय में न्यायधीशों की कमी की बात की है। साथ ही साथ यह भी कहा कि न्यायालयों में महिलाओं को 50 प्रतिशत नियुक्ति की मांग उठानी चाहिए। 
गौरतलब हो कि आज भी भारत में महिलाएं सामाजिक दमन का शिकार हो रही हैं। आज भी समाज में पितृसत्तात्मक सोच का वर्चस्व है। यही वजह है कि महिलाओं को समान अधिकार नही मिल पाते हैं। न्यायमूर्ति रमण ने कहा है कि, ” यह अधिकार का विषय है, दया का नहीं।” अब ऐसे में आप सोच सकते हैं कि जो स्त्री समाज के लिए क्या कुछ नहीं करती है। उसकी स्थिति इक्कीसवीं सदी के भारत में कैसी है? ऐसे में भले ही देश की आजादी के 75 वर्ष हो गए है, लेकिन महिलाओं की स्थिति आज भी समाज में जस की तस बनी हुई है। सर्वोच्य न्यायालय की ही बात करें तो मात्र 11 फीसदी महिलाएं ही न्यायालय के सर्वोच्य पद पर आज के दौर में आसीन है जो कि कहीं न कहीं आधी आबादी के लिहाज़ से काफी कम है। 
केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय के आंकड़ों की बात करे तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में 677 जजों में महिलाओं की संख्या मात्र 81 है। ऐसे में कितनी अजीब बिडम्बना है कि देश की न्याय व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका निम्नतम स्तर पर है जबकि समाज में सबसे प्रताडित वर्ग महिलाओं का ही है। हमारे देश मे महिलाएं प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल यहां तक की राष्ट्रपति के पद पर भी आसीन हुई है। लेकिन अब तक मुख्य न्यायाधीश के पद पर कोई महिला नही पहुँची, जो कहीं न कहीं समानता और स्वतंत्रता जैसे शब्दों को कमज़ोर बनाती है। इतना ही नहीं यह बात कहीं न कहीं इस ओर इशारा करती है कि उच्च न्यायालय के न्यायधीशों के चयन में लैंगिक पक्षपात होते आ रहा है और यह कहना भी गलत नही होगा कि न्यायपालिका पुरुष प्रधान क्षेत्र है। हमारे देश मे महिला वकीलों की संख्या तक सीमित है। जब महिला वकील कम है तो फिर महिलाओं के न्यायाधीश बनने की संभावना स्वतः ही नगण्य हो जाती है।

यह तो सर्वविदित है कि महिलाएं देश की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन जब न्याय व्यवस्था की बात आती है तो उन्हें समान अधिकार नहीं दिए जाते है। फिर बात चाहे न्याय व्यवस्था की हो या अदालतों की या फिर आम जन-जीवन की। आज महिलाएं समाज के हर क्षेत्र में अपनी कामयाबी का लोहा मनवा चुकी है। लेकिन जब बात प्रतिनिधित्व की आती है तो महिलाओं का आंकड़ा कम हो जाता है। देखा जाए तो समाज मे आज भी रूढ़िवादी परम्पराओं के नाम पर अपनी बात रखने का और स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार महिलाओं को नहीं मिल पाया है। परम्पराओं के नाम पर समाज सदैव महिलाओं के सपनों की बलि चढ़ा देता है। हमारा संविधान हमें समता और स्वतन्त्रता का अधिकार तो देता है लेकिन यह भी सच है कि आज भी महिलाओं के साथ असमानता का व्यवहार किया जाता है। महिलाओं पर होते अत्याचार आज मीडिया जगत की सुर्खियों तो बनते हैं लेकिन कितने मामले है जहां महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे में जब महिलाएं घरेलू जिम्मेदारियों का निर्वहन अच्छे ढंग से कर सकती है तो प्रतिनिधित्व क्यों नहीं कर सकती और एक बात तो तय मानिए जब तक महिलाएं नीति निर्माण और निर्णय लेने की क्षमता में अपनी भागीदारी नही निभाएंगी तब तक समाज में महिलाओं के अच्छे दिनों की कल्पना सिर्फ़ काग़ज़ी ही मालूम पड़ती है।

वहीं दुर्भाग्य तो देखिए आज हमारे देश का। एक तरफ़ मांग जिसकी जितनी हिस्सेदारी; उसका उतना प्रतिनिधित्व की हो रही, लेकिन यह बात आधी आबादी के लिए लागू नहीं होती। आख़िर यह कितनी अजीब बात है। ऐसे में भले संविधान में अवसर की समता वगैरह-वगैरह लिखा गया हो, लेकिन वह सिर्फ़ लिखित रूप में ही शोभा बढाने का काम कर रही है। वास्तविकता कुछ और ही है। आज हमारे देश में 17 लाख वकील है, लेकिन दुर्भाग्य देखिये की मात्र 15 फ़ीसदी ही महिला वकील है। राज्य संघों की ही बात करें तो केवल 2 प्रतिशत ही यह सदस्यता है। यहां तक कि भारत की बार कौंसिल में एक भी महिला नहीं है। मौजूदा समय मे देश मे 60 हजार अदालतें है। लेकिन 15 हजार अदालतों में महिलाओं के लिए शौचालय तक नहीं है। जब देश की अदालतों की यह स्थिति है तो फिर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत मे महिलाओं के न्याय व्यवस्था और समान अधिकार की क्या स्थिति होगी? वहीं समाज का एक कड़वा सच यह भी है कि अगर चंद महिलाएं सर्वोच्य पदों पर आसीन भी हो जाती हैं तो वे समूची महिला जाति के अधिकारों की वक़ालत नहीं कर पाती। जो भी एक बड़े दुर्भाग्य की बात है। ऐसे में जब तक महिलाएं ही अपने अधिकारों के लिए आवाज नही उठाएगी तो फिर कैसे एक सभ्य और समतामूलक समाज की कल्पना सम्भव हो पाएगी? यह अपने-आप में एक सवाल है।

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