शास्त्री जी को इस कहानी से छुट्टी दो…

अरुण कान्त शुक्ला

किसी गाँव में रहने वाला एक छोटा लड़का अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गया। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो लड़के ने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में एक पाई भी नहीं थी। लड़का वहीं ठहर गया। उसने अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेगा। वह नहीं चाहता था कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। उसका स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था।

उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की। उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया। उस लड़के का नाम था ‘लालबहादुर शास्त्री”।

शास्त्री जी के बारे में यह कहानी मैं अपनी 16/17 साल की उम्र से सुनता आ रहा हूँ।

शास्त्री जी की तैर कर नदी पार करने की घटना, उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद कई तरह से कही जाती थी। उस समय कहा गया था कि पैसे नहीं होने के कारण, वो स्कूल नदी तैर कर जाया करते थे। प्रधानमंत्री बन्ने के बाद इसका खंडन उन्होंने भी किया था और उनके घरवालों ने भी ।उस समय नदी में तैरना साधारण बात थी और बच्चे ऐसे दुस्साहस बिना आवश्यकता भी किया करते थे। शास्त्री जी की माली हालत कभी इतनी खराब नहीं थी।यह सच है कि वे सीधे ,सरल और अति ईमानदार थे। वे अच्छे राजनीतिज्ञ थे, पर कूटनीतिज्ञ नहीं। कहा जाए तो उन्होंने प्रत्येक रविवार को शाम के खाने को छोड़ने के लिए कहकर और जय जवान जय किसान का नारा देकर, उस समय के नौजवानों में त्याग और जोश दोनों को भर दिया था। वो शायद, भारत के उन नेताओं में से हैं, जो देश की परिस्थितियों को बखूबी समझते थे और तदनुसार न केवल आचरण करते थे, एक मिसाल भी रखते थे।

उन्हें अकसर भारत के उस एकमात्र नेता के रूप में याद किया जाता है, जिसने रेलवे मंत्री होने के नाते, एक रेल दुर्घटना होने पर अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था और नेहरू के लाख मनाने के बावजूद उसे वापस नहीं लिया था। आज जब प्रतिवर्ष दर्जनों रेल दुर्घटनाएं(छोटी-बड़ी)होती है और रेल मंत्री अनेक बार तो दुर्घटना स्थल पर जाने में भी आनाकानी करते हैं, उनका त्याग याद आता है। उनकी शांत और सौम्य शख्शियत और लोगों को समझाने की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कश्मीर में जब हजरत मोहम्मद की दरगाह से हजरत का पवित्र बाल कुछ विघ्नकारियों ने गलत इरादों से इधर उधर कर दिया, शास्त्री जी को बिना विभाग का मंत्री बनाकर कश्मीर भेजा गया और उन्होंने सभी तबकों से बात करके, न झगडों को पनपने से रोका, बल्कि उस पवित्र बाल को भी यथास्थान रखवाया।

भारत आज जिन स्थितियों से दो चार हो रहा है, उसे वही त्याग की जरुरत है। दुःख इसका है कि देश वासियों( आम लोगों) से अपील की जायेगी तो वे तैयार भी हो जायेंगे, लेकिन भारत का संपन्न तबका तब भी नानुकुर किया था और आज तो वो विद्रोह पर खडा है। उसे हर हालत में ऐशोआराम चाहिये, चाहे उसके कीमत भारत के आम आदमी को असमय मृत्यु के रूप में क्यों न चुकानी पड़े।

मैंने यह इसलिए लिखा, क्योंकि व्यक्ति को काल्पनिक कथाओं के आधार पर मूल्यांकन करने से बेहतर है, उसके कार्य, सोच और आचरण के आधार पर मूल्यांकित किया जाए। तैर कर जाने वाली जैसी कई कहानियां तो शहर के छुटभैय्ये नेता भी अपने बारे में प्रचारित करते रहते हैं। हमें सही मूल्यांकन करना चाहिये।

देश के जवानों के साथ देश के आम लोग खड़े हैं, यह बताने के लिए एक समय का भोजन छोड़ा जाए, आज यह कहने का साहस देश के किसी भी नेता में नहीं होगा.. लाल बहादुर में यह था। लालबहादुर उस साहस का नाम है।

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अरुण कान्त शुक्ला
भारतीय जीवन बीमा निगम से सेवानिवृत्त। ट्रेड यूनियन में तीन दशक से अधिक कार्य करता रहा। अध्ययन व लेखन में रुचि। रायपुर से प्रकाशित स्थानीय दैनिक अख़बारों में नियमित लेखन। सामाजिक कार्यों में रुचि। सामाजिक एवं नागरिक संस्थाओं में कार्यरत। जागरण जंक्शन में दबंग आवाज़ के नाम से अपना स्वयं का ब्लॉग। कार्ल मार्क्स से प्रभावित। प्रिय कोट " नदी के बहाव के साथ तो शव भी दूर तक तेज़ी के साथ बह जाता है , इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि शव एक अच्छा तैराक है।"

4 COMMENTS

  1. भारतरत्न शास्त्री जी-
    भारत का वह “लाल” यशस्वी, सचमुच बहुत “बहादुर” था।
    क़द छोटा इंसान बड़ा था,स्वतन्त्रता-सेनानी था ।।
    पला अभावों में था फिर भी,मानवता का पुतला था।
    उच्च पदों को पाकर भी जो,सादा जीवन जीता था।।
    दुश्मन के छक्के छुड़ा दिये,भारत का मान बढ़ाया था।
    “जय-जवान”और”जय-किसान”का नारा हमें सिखाया था।।
    श्रद्धांजलि प्रस्तुत है अपने, ऐसे भारत-रत्न को।
    भारतवासी याद करेंगे नित वर्चस्वी नेता को।।
    ** ** ** -शकुन्तला बहादुर,कैलिफ़ोर्निया

  2. सर्व/श्री रमेश सिंह जी एवं बी एन गोयल जी , प्रतिक्रया प्रदान करने के लिए आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद |

  3. इस तरह की कहानियाँ गढ़ने में हम बहुत तेज हैं और उसी के बीच हम वह सबकुछ भूल जाते हैं,जो उनलोगों के आचरण से सीखा जा सकता था.किसी की दो दिनों पहले टिप्पणी आयी थी की जिसके आचरण को उदहारण के रूप में आगे रख कर उसका अनुसरण किया जा सकता था,उसी लोगों ने या तो भगवान बहा दिया या महात्मा.अपनी जिम्मेवारी समाप्त.क्योंकि हम तो साधारण जन ठहरे हम से उन महात्माओं की तुलना क्या?शास्त्री जी जैसे लोग महात्माओं की श्रेणी में भले ही न बैठाए गएँ हो पर उनके आदर्श का अनुसरण करना भी हमें भारी लगता है.अभी बात चलती है कि बिना पैसे के चुनाव नहीं लदा जा सकता ,तब लोगों को लाल बहादुर शास्त्री और सरदार पटेल की याद आती है.यह सही है कि अगर जनता को यह एहसास हो जाए कि उसके क्षेत्र का उम्मीदवार जीतने पर उस आदर्श का अनुसरण कर सकता है तो कोई कारण नहीं कि वैसा उम्मीदवार बिना पैसे के न जीत जाए.

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