चाह रही वह जीना, लेकिन घुट-घुटकर मरना भी क्या जीना?

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देश के दिल मध्यप्रदेश के लिए 2021 की शुरुआत अच्छी नहीं रही। जनवरी महीने के शुरुआती 15 दिनों में ही कम से कम ऐसी तीन बड़ी घटनाएं हुई जिसने महिला सुरक्षा के दावे और वादों की पोल खोलकर रख दी। दुर्भाग्य देखिए एक तरफ़ जब सूबे के मुख्यमंत्री महिला सुरक्षा को लेकर बयानबाजी कर रहें थे। तो वहीं दूसरी तरफ़ खंडवा ज़िले में एक नाबालिग बच्ची के साथ दुष्कर्म हो रहा था। ऐसे में कैसे मान लें कि मध्यप्रदेश सूबे में महिलाएं और बच्चियां सुरक्षित हैं? मानते हैं शिवराज सिंह चौहान प्रदेश की बेटियों के मामा और बहनों के भाई बने फ़िरते हैं, तो क्या यह सब ढोंग है?

ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि अभी साल का पहला महीना भी नही बिता है और सूबे में तीन जघन्य दुष्कर्म के मामले सामने आ चुके हैं। पहली घटना 9 जनवरी की थी। जब मध्य प्रदेश के सीधी जिले में चार युवकों द्वारा एक 45 वर्षीय महिला से सामूहिक बलात्कार किया गया। इंसानियत को शर्मसार कर देने वाले इस कृत्य के बाद दूसरा मामला खंडवा ज़िले में सामने आया जिसमें तो प्रथम दृष्टया शासन-प्रशासन के लोग अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हुए भी नज़र आए।
तीसरी घटना तो रूह को कंपा देने वाली थी। जिसमें एक बच्ची के साथ नौ लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया। वह भी दो दिन तक लगातार। उसके बाद दोबारा फ़िर लड़की का अपहरण किया और फ़िर से उसके साथ रेप किया गया।

 ऐसे में ग़ौरतलब हो बलात्कार भारतीय समाज के लिए एक विकट समस्या बनती जा रही। देश का कोई भी कोना हो, आज इस समस्या से अछूत नहीं। तमाम कानूनों के बाद भी मासूम बेटियां हैवानियत का शिकार हो रही है। आखिर कब बलात्कार इन घटनाओ पर लगाम लगेगी? इसका जवाब आज की तारीख़ में किसी के पास नहीं! कब देश की बेटियां सुरक्षित हो पाएगी? इस सवाल का जवाब भी मौजूदा वक्त में मिल पाना नामुमकिन सा है। महिलाओं के प्रति घटित हो रही घटनाएं चिंताजनक है। जरा सोचिए! तमाम कानूनों और महिला सुरक्षा के वादों के बाद भी क्यो अपराधों पर लगाम नही लग रही है। यह क्रूरता आखिर कब थमेगी...? कितनी सरकारें आयी और चली गयी लेकिन औरतों पर होने वाले अपराधों में कही कोई कमी नही आयी है। जिस तरह से देश मे यौन शोषण की घटनाएं घटित हो रही है, उन्हें देख कर तो यही लगता है मानो आज भी समाज महिलाओं के प्रति असंवेदनशील बना हुआ है। हद तो तब हो जाती है जब राजनैतिक दल न्याय दिलाने के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने लग जाते है। महिलाओं के नाम पर राजनीति सदियों से चली आयी है। लेकिन जब बात महिला सुरक्षा की हो। उन्हें उचित सम्मान देने की हो तो सभी राजनीतिक दल अपना पल्ला झाड़ते नजर आते है। बिडम्बना देखिये कि आज आधुनिक भारत मे भी एक बहुत बड़ा तबका महिलाओं को भोग विलास की वस्तु ही समझ रहा है। आज भी महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंका जाता है। समाज का यही दोहरा चरित्र महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की वजह बनता जा रहा है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट 2019 के अनुसार भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध बीते वर्ष की तुलना में 7.3 प्रतिशत बढ़ गए है। जिससे यह साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम आधुनिकता की सीढ़ी तो चढ़ गए। तरक्की के नए आयाम भी गढ़ते चले गए पर महिलाओं के प्रति अपराधों पर लगाम नही लगा सके। 2018 में महिलाओं के प्रति अपराध 58.8 प्रतिशत था, तो वही साल 2019 में यह बढ़कर 62.4 प्रतिशत हो गया। आंकड़े देख कर तो यही लग रहा है मानो साल जरूर बदल जाते हैं, लेकिन महिला अपराधों में कही कोई कमी नही आती है। सोचने वाली बात है कि जिस भारत मे कभी महिला की साड़ी उतारने के प्रयास मात्र से ही महाभारत का युद्ध हो गया था, आज उसी देश में हर मिनट किसी न किसी महिला का बलात्कार कर दिया जाता है, और सरकार व समाज मौन बनकर तमाशा देखती रहती है। बलात्कार को रोकने के लिए भले फास्ट्रेक कोर्ट बना दिये गए हो। पर अपराधियों को सजा तक नही मिल पाती है। सालों कोर्ट के चक्कर काटने के बाद भी समाज के भेड़िये आजादी से घूमते है तो वही दरिंदगी की शिकार महिलाओं को समाज तक स्वीकार नही कर पाता है। यह समाज का दोगला चरित्र ही नहीं तो क्या है कि जिस महिला के साथ दुराचार होता है उसे ही समाज के ताने सुनने होते है। वही जो इस तरह की हैवानियत को अंजाम देता है उसे समाज अपने सीने से लगा कर रखता है। आधुनिक समाज मे इस तरह की रूढ़िवादी सोच शर्मनाक है।

हमें आजादी तो सालों पहले ही मिल गयी थी। पर क्या महिलाओं को आजादी मिल सकी है। शायद नहीं? क्योंकि आज भी एक लड़की के जन्म के साथ ही उस पर बंदिशें लगा दी जाती है। उसे क्या करना है कैसे करना है। क्या नही करना इसकी शुरुआत उसके अपने बचपन से ही शुरू हो जाती है । लेकिन जब बात लड़को की हो तो उन पर कोई बंदिशें नही होती है। यहां तक कि उन्हें ये शिक्षा तक नही दी जाती है कि उन्हें महिलाओं का सम्मान करना चाहिए। बचपन से मिली आजादी का ही नतीजा है कि समाज मे महिलाओं के प्रति पुरुषों के अत्याचार बढ़ रहे है। लेकिन अफसोस की बात तो यह है कि इसमें पुरुषवादी समाज को कही कोई बुराई तक नजर नही आती है। बीते दिनों शिवराज सिंह चौहान के उस बयान को ही ले लीजिए, जिसमें वे कहते हैं कि "एक नई व्यवस्था बनाई जाएगी। इसके तहत काम के लिए बाहर निकलने वाली महिलाओं को लोकल पुलिस थाने में खुद को रजिस्टर कराना होगा। रजिस्ट्रेशन के बाद ऐसी महिलाओं की सुरक्षा के लिए उन्हें ट्रैक किया जाएगा।" ऐसे में तो समझ यही आता कि शायद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की नजरों में महिलाओं के साथ जो अनहोनी होती उसकी जिम्मेदार ख़ुद महिलाएं होती। अगर ऐसा नहीं फ़िर महिलाओं पर निगरानी रखने की बात शायद शिवराज सिंह चौहान नहीं बोलते। 

   गौरतलब हो आज के समय मे बात चाहे घर की हो या फिर घर से बाहर जाकर काम करने की । हर जगह महिला प्रताड़ित होती आ रही है। ऐसी कोई जगह नही है जहां महिलाओं के प्रति छेड़खानी की खबर अख़बार की सुर्खियां न बनी हो। हर बार महिलाओं के साथ छेड़छाड़ होती है, उनकी खबर भी मीडिया का हिस्सा बनती है और एक खबर की याद तक धुंधली नही होती कि दूसरी घटना घटित हो जाती है। इन सबके बाद कुछ नही बदलता तो वह है महिलाओं के प्रति बढ़ते अत्याचार। ये एक ऐसी नियति बन गयी है जिसे बदलने में न जाने कितना वक्त लग जाना है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2014 में लाल किले की प्राचीर से कही वह बात याद आ रही जिसमें वे कहते हैं कि "वे जो बलात्कार करते हैं, किसी के बेटे होते हैं। माता पिता को उन्हें गलत रास्ते पर जाने से पहले रोकना चाहिए। जब ऐसी घटनाएं होती हैं, तब माता-पिता अपनी बेटियों पर सवाल उठाते हैं। लेकिन क्या किसी में हिम्मत होती है कि वह अपने बेटों से सवाल करे?" वास्तविकता तो यही है बेटों से सवाल आज भी नहीं होते कि वे क्या कर रहें। जब तक ऐसी धारणा नहीं पनपेगी समाज मे कि बेटों से भी सवाल हो तब तक सभ्य समाज की कल्पना करना नामुमकिन लगता है। इसके अलावा शिवराज सिंह चौहान जैसे सियासत के सुरमे को भी सिर्फ़ महिलाओं को किसी सांचे में बांधने का सुझाव देने से पूर्व समाज के उस कीड़ें को दफ्न करने के बारे में सोचना चाहिए, जो सभ्य समाज मे कीचड़ उछालने का काम करते हैं।

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