श्रद्धालुओ पर “सरकारी फूल”

अनिल अनूप 

आदि संस्कृति और सभ्यता के प्रतीक कुंभ के प्रथम शाही स्नान में करीब 2 करोड़ श्रद्धालुओं, साधु-संतों ने हिस्सा लिया। गंगा मैया की गोद में भक्तों ने डुबकियां लगाईं, किलकारियां भरीं, हर-हर महादेव के नारों की गूंज हुई, मंत्रोच्चारण किए गए, शंखनाद भी सुनाई दिए। आस्थाओं ने खूब कलरव किया, उछल-कूद की। बेशक इस आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और आस्थामयी आयोजन से कई मिथक जुड़े हैं, लेकिन वे सभी मूल्यवान हैं, सुख-शांति देते हैं, संबल प्रदान करते हैं। किसी के लिए ‘भगीरथी’ मां है, तो किसी के लिए एक नदी का निरंतर प्रवाह…। यदि ऐसे पवित्र स्नान के दौरान आकाश से फूलों की बरसात होती है, इबादत और आस्था पर प्रकृति न्योछावर होती है, तो कमोबेश उसका स्वागत और सम्मान किया जाना चाहिए। हमारी प्राचीन कथाओं में आकाश के देवलोक से देवताओं की पुष्प-वर्षा का उल्लेख मिलता रहा है। बेशक हमने प्रतीकों और रूपकों के तौर पर पढ़ा है। बेशक मौजूदा कुंभ में शाही स्नान करते श्रद्धालुओं-भक्तों पर हेलीकॉप्टर से ‘सरकारी फूल’ बरसाए गए। क्या ऐसे ‘प्रतीकात्मक’ आयोजन का स्वागत नहीं करना चाहिए? फूलों की ऐसी बरसात शिवभक्त कांवडि़यों पर भी की गई थी। इन फूलों ने धर्म-मजहब नहीं देखा होगा और आस्थावानों को आशीर्वाद से छुआ होगा। प्रधानमंत्री मोदी भी कुंभ में जाएंगे और गंगा मैया में डुबकी (बेशक प्रतीकात्मक) भी लगाएंगे। खबर है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी कुंभ में जाकर गंगा-स्नान कर सकते हैं। तीन महिला केंद्रीय मंत्रियों उमा भारती, स्मृति ईरानी और साध्वी निरंजन ज्योति ने भी गंगा की गोद में डुबकी ली है। कुछ और नेता भी अपनी-अपनी आस्थाओं के मद्देनजर मां गंगा में पवित्र स्नान कर सकते हैं। क्या कुंभ को सिर्फ ‘हिंदूवादी’ करार दिया जाए? क्या फूलों की बरसात और स्नान ‘भाजपावादी’ या ‘कांग्रेसवादी’ अथवा ‘समाजवादी-बसपावादी’ करार दिए जा सकते हैं? यह मान्यता एक कट्टरवादी संकीर्णता ही कही जा सकती है। कुंभ के आयोजन पर करीब 4500 करोड़ रुपए खर्च होंगे। अखिलेश यादव की सरकार के दौरान भी कुंभ का आयोजन किया गया था। यदि तब फिजूलखर्ची नहीं था, तो अब कुंभ और फूलों की बरसात को फिजूलखर्ची क्यों माना जा रहा है? हमारे दुनियावी कर्मों में ‘आध्यात्मिक दायित्व’ भी शामिल होते हैं। प्रयागराज में संगम पर पुष्प-वर्षा की जाती है, तो दूसरी तरफ बुलंदशहर में गोकशी के आरोप में किसी पर रासुका (एनएसए) थोप दिया जाता है। गोकशी के नाम पर मुठभेड़ें भी होती हैं और पुलिसवाला भी ‘शहीद’ होता है। किसानी, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा आदि के सवाल भी महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन यह इबादत, पूजा, आस्था का दौर भी है। न जाने कितने धर्म, मत, संप्रदाय, नस्ल, रंग और देशों के लोग कुंभ में गंगा-स्नान करने जाते हैं। आस्थाओं की इन डुबकियों का कोई मोल नहीं है। फूलों की बरसात को ‘हिंदूवाद’ की संज्ञा न दें। बहुसंख्यकवाद या हिंदू तुष्टिकरण से नहीं जोड़ना चाहिए। एक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक आयोजन शुरू हुआ है। किसी भी शुरुआत पर फूल बरसाना तो मांगलिक माना जाता है, यह हमारी सांस्कृतिक मान्यता भी है। फिर आपत्ति कैसी…? बेशक यह दौर चुनावों का है, लिहाजा व्याख्या की जा रही है कि उप्र की भाजपा सरकार ने ‘वोटरों’ पर फूलों की बरसात कराई है। इस संदर्भ में दलील यह भी दी जा सकती है कि बसपा प्रमुख मायावती ने अपने जन्मदिन पर 10 फीसदी मुस्लिम आरक्षण की जो मांग की है, वह तो घोर चुनावी है। उन्हें जानकारी है कि देश का संविधान, सर्वोच्च न्यायालय धर्म के आधार पर आरक्षण को खारिज कर चुके हैं, उसके बावजूद ऐसी मांग तुष्टिकरण के अलावा क्या हो सकती है? बहरहाल कुंभ को लेकर सियासत नहीं होनी चाहिए। कुंभ तो दुर्लभ है, हमारी संस्कृति और सभ्यता की व्याख्या करता है, अध्यात्म के विविध रूप इस दौरान दिखाई देते हैं, जय-जयकार से माहौल गूंजने लगता है, एक अलग एहसास की जिंदगी देखने को मिलती है, उसे खारिज क्यों किया जाए? करोड़ों भक्तों, श्रद्धालुओं, साधु-संतों में कौन, किसका वोटर है, क्या कोई इसका दावा कर सकता है? ऐसे कुतर्क फिजूल हैं।

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