श्रीराम जन्म भूमि के पंद्रह सौ गज और 489 वर्ष

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विनोद बंसल

 

1992 के अंत में भारत के इतिहास में एक ऎसी घटना घटी है जो पीढ़ीयों तक याद की जाएगी. छ: दिसंबर 1992 को अयोध्या के मुहल्ला राम कोट में तीन गुम्बदों वाला एक ढांचा हिन्दू समाज ने अपनी सामूहिक संगठित शक्ति और उपस्थिति के आधार पर केवल बांस बल्लियों व अपने हाथों से मात्र 5 घंटे में धरा शाई कर दिया। विश्व भर का हिन्दू समाज इस स्थान को भगवान श्री राम की जन्म भूमि मानता आया है। वहाँ कभी एक भव्य मन्दिर था जो राम जन्मभूमि मन्दिर कहलाता था। इस मन्दिर को ईसवी सन् 1528 में बाबर के आदेश पर तोड़ा गया।

वास्तव में देखा जाए तो अयोध्या का विवाद किसी मंदिर-मस्जिद का कोई सामान्य विवाद न हो कर भगवान श्री राम की जन्मभूमि को वापस प्राप्त करने हेतु गत 489 वर्षों से अनवरत रूप से चला आ रहा एक ऐसा संघर्ष है जिसमें 76 युद्धों में असंख्य राम भक्तों के बलिदान उपरान्त अब एक निर्णायक मोड़ आ गया है। यह हिन्दुस्तान के स्वाभिमान का संघर्ष है। इस सन्दर्भ में अनेक तथ्य विचारणीय हैं. 1991 में मुस्लिम नेतृत्व ने तत्कालीन प्रधानमंत्री महोदय को वचन दिया था कि ‘यदि यह सिद्ध हो गया कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई है तो वे स्वेच्छा से यह स्थान हिन्दू समाज को सौंप देंगे”।

इसके बाद जनवरी, 1993 में तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय से एक प्रश्न किया कि ‘‘अयोध्या में बाबरी मस्जिद जिस स्थान पर खड़ी थी, उस स्थान पर क्या इसके निर्माण के पहले कोई हिन्दू धार्मिक भवन अथवा कोई हिन्दू मन्दिर था, जिसे तोड़कर वह ढाँचा खड़ा किया गया ?’’…. इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भी यही प्रश्न प्रमुखता से उठा कि हिन्दू समाज जिस स्थान को भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानता है, वहाँ बाबर के आक्रमण के पहले कभी कोई मन्दिर था अथवा नहीं था?  भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को सितम्बर 1994 ई0 में शपथपत्र दिया था कि यदि यह सिद्ध  हो गया कि मंदिर तोड़कर तीन गुम्बदों वाले ढाँचे का निर्माण किया गया है तो भारत सरकार हिन्दू समाज की भावनाओं के अनुसार कार्य करेगी और यदि यह सिद्ध हुआ कि उस स्थान पर कभी कोई मन्दिर नहीं था अतः कुछ भी तोड़ा नहीं गया, तो भारत सरकार मुस्लिमों की भावनाओं के अनुसार व्यवहार करेगी। इसी प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जन्मभूमि के स्थान के नीचे राडार तरंगों से फोटोग्राफी कराई। फोटोग्राफी करने वाले (कनाडा के) विशेषज्ञों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि जमीन के नीचे दूर-दूर तक भवन के अवशेष उपलब्ध हैं। इन्हें देखने के लिए वैज्ञानिक उत्खनन किया जाना चाहिए।

कनाडा के भू-वैज्ञानिक की सलाह पर उच्च न्यायालय ने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग को उत्खनन का निर्देश दिया था। वर्ष 2003 में 6 महीने तक उत्खनन हुआ। 27 दीवारें मिलीं, दीवारों में नक्काशीदार पत्थर लगे हैं, 52 ऐसी रचनाएँ मिलीं जिनके खम्भों को जमीन के नीचे का आधार कहा गया, भिन्न-भिन्न स्तर पर 4 फर्श मिले, पानी की पक्की बावड़ी व उसमें उतरने के लिए अच्छी सुन्दर सीढ़ियाँ मिलीं, एक छोटे से मन्दिर की रचना मिली जिसे पुरातत्ववेत्ताओं ने 12वीं शताब्दी का हिन्दू मन्दिर लिखा। पुरातत्ववेत्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा कि उत्खनन में जो-जो वस्तुएँ मिली हैं, वे सभी उत्तर भारतीय शैली के हिन्दू मन्दिर की वस्तुएँ हैं। अतः इस स्थान पर कभी एक मन्दिर था।

पुरातत्व विभाग की इस रिपोर्ट के आधार पर ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 15 वर्षों की सघन वैधानिक कार्यवाही के पश्चात अपने निर्णय में लिखा-

1.      विवादित स्थल ही भगवान राम का जन्मस्थान है। जन्मभूमि स्वयं में देवता है और विधिक प्राणी है। जन्मभूमि का पूजन भी रामलला के समान ही दैवीय मानकर होता रहा है और देवत्व का यह भाव शाश्वत है.

2.      हिन्दुओं की श्रद्धा व विश्वास के अनुसार विवादित भवन के मध्य गुम्बद के नीचे का भाग भगवान राम की जन्मभूमि है …..।

3.      यह घोषणा की जाती है कि आज अस्थायी मन्दिर में जिस स्थान पर रामलला का विग्रह विराजमान है वह स्थान हिन्दुओं को दिया जाएगा ……….

4.      विवादित ढाँचा किसी पुराने भवन को विध्वंस करके उसी स्थान पर बनाया गया था। पुरातत्त्व विभाग ने यह सिद्ध किया है कि वह पुराना भवन कोई विशाल हिन्दू धार्मिक स्थल था ……..।

5.      विवादित ढाँचा बाबर के द्वारा बनाया गया था ……… यह इस्लाम के नियमों के विरुद्ध बना, इसलिए यह मस्जिद का रूप नहीं ले सकता।

6.      तीन गुम्बदों वाला वह ढाँचा किसी खाली पड़े बंजर स्थान पर नहीं बना था बल्कि अवैध रूप से एक हिन्दू मन्दिर/पूजा स्थल के ऊपर खड़ा किया गया था। अर्थात एक गैर इस्लामिक धार्मिक भवन अर्थात हिन्दू मन्दिर को गिराकर विवादित भवन का निर्माण कराया गया था।

न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा एवं न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने निर्मोही अखाड़ा द्वारा वर्ष 1959 में तथा सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड द्वारा दिसम्बर, 1961 में दायर किए गए मुकदमों को निरस्त कर दिया और निर्णय दिया कि ‘‘निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड को कोई राहत नहीं दी जा सकती।’’

इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार जोर-जबरदस्ती से प्राप्त की गई भूमि पर पढ़ी गई नमाज अल्लाह स्वीकार नहीं करते हैं और न ही ऐसी सम्पत्ति अल्लाह को समर्पित (वक्फ) की जा सकती है। किसी मन्दिर का विध्वंस करके उसके स्थान पर मस्जिद का निर्माण करने की अनुमति कुरआन व इस्लाम की मान्यताएं नहीं देती। न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने कुरआन व इस्लाम की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए यह निर्णय दिया कि बाबर को भी विवादित भवन को मस्जिद के रूप में अल्लाह को समर्पित (वक्फ) करने का अधिकार नहीं था।

भगवान रामलला के अधिकार को स्थापित करने में केवल एक ही बाधा है, वह है न्यायमूर्ति एस. यू. खान व न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल द्वारा विवादित परिसर का तीन हिस्सों में विभाजन अर्थात भगवान रामलला, निर्मोही अखाड़ा तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड तीनों ही विवादित परिसर का 1/3 भाग प्राप्त करेंगे। यह ध्यान देने योग्य है कि यह मुकदमा सम्पत्ति के बंटवारे का मुकदमा नहीं था और निर्मोही अखाड़ा अथवा सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड अथवा रामलला विराजमान तीनों में से किसी ने भी परिसर के बंटवारे का मुकदमा दायर नहीं किया था और न ही परिसर के बंटवारे की माँग की थी। अतः बंटवारे का आदेश देना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करते समय इसी आशय की मौखिक टिप्पणी एक न्यायाधीश ने की थी।

जन्मभूमि की अदला-बदली नहीं की जाती। यह न खरीदी जा सकती है, न बेची जा सकती है और न ही दान दी जा सकती। यह अपरिवर्तनीय है।

गौर करने वाली बात यह है कि यह सम्पूर्ण विवाद अधिक से अधिक 1500  वर्ग गज  भूमि  का है, जिसकी लम्बाई-चैड़ाई अधिकतम 140X100 फीट होती है। भारत सरकार द्वारा अधिग्रहित 70 एकड़ भूमि इससे अलग है तथा वह भारत सरकार के पास है, जिस पर कोई मुकदमा अदालत में लम्बित नहीं है। इसी 70 एकड़ भूखण्ड में लगभग 45 एकड़ भूमि श्रीराम जन्मभूमि न्यास की है। इस भूमि का अधिग्रहण होने के बाद भी श्रीराम जन्मभूमि न्यास ने भारत सरकार से कभी कोई मुआवजा नहीं लिया। हिन्दू समाज में मंदिर की सम्पूर्ण सम्पत्ति भगवान की होती है, किसी व्यक्ति, ट्रस्ट या महंत की नहीं। महंत, व्यक्ति, साधु, पुजारी, ट्रस्टी भगवान के सेवक होते हैं; स्वामी कदापि नहीं।

कारसेवक अनुशासन-हीन नही थे। उन्होंने संतों द्वारा घोषित दिनांक व समय का पूरा पालन किया। दिल्ली में 30 अक्टूबर 1992 को धर्म संसद रानी झॉसी स्टेडियम में हुई थी। इसमें तीन हजार से अधिक संतों ने 6 दिसम्बर, 1992 को 11.45बजे गीता-जयन्ती के दिन कारसेवा का समय निश्चित किया था; जिसका कारसेवकों ने अक्षरशः पालन किया। न अयोध्या, फैजाबाद में कोई लूट-पाट हुई तथा न ही कार-सेवकों के आने-जाने के मार्ग में।

गर्भगृह वहीं बनेगा; जहां रामलला विराजमान हैं तथा मंदिर उन्हीं संतों के कर-कमलों से बनेगा; जिन्होंने 1984 से आज तक इस आंदोलन का लगातार नेतृत्व व मार्गदर्शन किया है। राम जन्मभूमि न्यास एक वैधानिक न्यास है। अयोध्या की मणिरामदास छावनी के श्री महंत पूज्य नृत्यगोपाल दास जी महाराज इसके कार्याध्यक्ष हैं। मंदिर उसी प्रारूप का बनेगा जिसके चित्र विश्व के करोड़ों हिन्दू-घरों में विद्यमान हैं।

हिन्दुओं के लिए अयोध्या का उतना ही महत्व है जितना मुस्लिमों के लिए मक्का का है, मक्का में कोई गैर मुस्लिम प्रवेश नहीं कर सकता। अतः अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा में कोई नई मस्जिद/स्मारक/इस्लामिक सांस्कृतिक केन्द्र नहीं बन सकता। भारत का राष्ट्रीय समाज अपेक्षा करता है कि-

·        मुस्लिम समाज अपने द्वारा सरकार को दिए गए वचन का पालन करे और स्वेच्छा से यह स्थान हिन्दू समाज को सौंप दे।

·        भारत सरकार अपने शपथ पत्र का पालन करे और राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए वर्ष 1993 में भारत सरकार द्वारा अधिगृहीत सम्पूर्ण 70 एकड़ भूमि श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण हेतु हिन्दू समाज को सौंप दे।

·        श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण के लिए सोमनाथ मन्दिर की तर्ज पर संसद में कानून बने।

·        यह सुनिश्चित किया जाए कि अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा के भीतर कोई भी नई मस्जिद अथवा इस्लामिक सांस्कृतिक केन्द्र/स्मारक का निर्माण नहीं होगा तथा बाबर के नाम पर भारत में कोई मोन्यूमेंट नहीं बनेगा।

गत 489 वर्षों में बहुत पानी बह चुका, हमने पाकिस्तान और बंगलादेश के रूप में भारत के अनेक साम्प्रदायिक  विभाजन होते देखे, कश्मीर के साथ देश के अनेक भागों से भी उसी आधार पर हिन्दुओं के पलायन को भी सहा। तीस हजार से अधिक हिन्दू धर्म स्थलों को विविध मुग़ल शासकों द्वारा कुचलते हुए भी देखा। किन्तु बस! अब बहुत हो चुका। मुस्लिम नेताओं को कौरवी मानसिकता को त्यागकर समस्त समुदाय को बाबर या बाबरी से जोड़ने का पाप न करते हुए मात्र 1500 वर्ग गज भू भाग पर अनावश्यक जिद त्यागनी होगी क्योंकि एक और महाभारत को आमंत्रित करना अब देश हित में नहीं है। अब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पांच दिसम्बर से तो नियमित सुनवाई हेतु तैयारी कर ही ली है किन्तु फिर भी इस पच्चीसवे शौर्य दिवस पर संकल्प लें कि :

आओ सब मिल साथ चलेंगे, मंदिर को हर हाथ मिलेंगे.

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