छा जाता है, भीतर ही भीतर,
तब कोई आहट , कोई आवाज़,
बेमानी सी हो जाती है।
इस सन्नाटे से डरती हूँ,
क्योंकि इस सन्नाटे में,
अतीत और भविष्य,
दोनो की नकारात्मक,
तस्वीरें उभरने लगती हैं,
वर्तमान का अर्थ ही
बदल जाता है,
सब बेमानी होने लगता है।
इस सन्नाटे से लड़ती हूँ,
तो और गहराता है,
ये सन्नाटा भी एक सच है,
मेरे जीवन का..
मन के एक कोने में,
इसे क़ैद करके रखती हूँ,
कई बार रोकती हूँ,
बाहर आने से,फिर भी,
फूट जाता है ज्वालामुखी सा,
क्या ये सन्नाटा कभी,
मुझे छोड़ेगा…शायद नहीं..
मैं ही इसे छोड़ देती हूँ,
पर कैसे ?
अच्छी कविता के लिए बधाई।
सन्नाटा पर लिखी बीनू जी की कविता अच्छी लगी है .