सिंधु नदी संधि: नेहरू ने पाक को सारा पानी लुटा दिया

सिंधु नदी संधि
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डा. राधेश्याम द्विवेदी
इंटरनैशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डेवलपमेंट (अब विश्वबैंक) की मध्यस्थता में 19 सितंबर 1960 को कराची में ‘इंडस वॉटर ट्रीटी’ पर भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब ख़ान हस्ताक्षर किए। भारत पिछले 56 साल से सिधु वॉटर ट्रीटी यानी सिंधु जल संधि को ढो रहा है। आधुनिक विश्व के इतिहास में यह संधि सबसे उदार जल बंटवारा है। इसके तहत पाकिस्तान को 80.52 फीसदी ,यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी सालाना दिया जाता है. नदी की ऊपरी धारा के बंटवारे में उदारता की ऐसी मिसाल दुनिया की किसी और संधि में नहीं मिलेगी. सिंधु समझौते के तहत उत्तर और दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा तय की गई है, जिसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां पूरी-की-पूरी पाकिस्तान को भेंट के तौर पर दे दी गई हैं और भारत की संप्रभुता दक्षिण की ओर तीनों नदियों के बचे हुए हिस्से में ही सीमित रह गई है.1960 में की गई यह संधि दुनिया की किसी भी जल संधि के मुकाबले ज्यादा दिक्कतें पैदा करती है. इन दिक्कतों की जड़ें पाकिस्तान से निकलती हैं. भारत पर लगाई गई सिलसिलेवार बंदिशों के चलते इन तीनों नदियों के सीमा पार प्रवाह की मात्रा और वक्तपर भारत का कोई नियंत्रण नहीं है. चिनाब और झेलम से सबसे ज्यादा पानी उस पार जाता है और तीसरी धारा खुद सिंधु की मुख्यधारा है. यह संधि वास्तव में दुनिया की इकलौती अंतरदेशीय जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है और जिसके तहत नदी की ऊपरी धारा वाला देश निचली धारा वाले देश के लिए अपने हितों की अनदेखी करता है. नेहरू की भूल सुधारा जाय, बेजोड़ जल संधि का ख़ात्मा किया जाय:- इतनी बेजोड़ जल संधि से लाभान्वित होने के बावजूद पाकिस्तान ने भारत की उदारता का जवाब इस इलाके में आतंकी वारदातों को अंजाम देकर दिया है. मुमकिन था कि नेहरू के दौर में एक निश्चित काल तक के लिए की गई इस संधि को आने वाली पीढिय़ां एक भूल मानकर उसे सुधारने की कोशिश करतीं. लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने आतंकवाद के मसले को जल बंटवारे से जोड़कर देखने की कोशिश नहीं की. यही सवाल हालांकि पाकिस्तानी जनरलों के दिमाग में भी होना चाहिए. भारत के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि पहले से ही नदी के ऊपरी हिस्से पर भारत की सीमित संप्रभुता हाल ही में किशनगंगा परियोजना के संदर्भ में दिए गए फैसले के बाद और संकुचित हो जाएगी. इस संधि के तहत भारत को सिर्फ रन-ऑफ-रिवर प्लांट (ऐसे प्लांट, जिनसे पानी का प्रवाह न रुके) ही बनाने की छूट है. ये ऐसे संयंत्र होंगे, जिनमें बिना कोई जलाशय बनाए सिर्फ नदी की धारा, गति और कुदरती उतार-चढ़ाव का प्रयोग किया जाएगा. सीमित जल भंडारण के चलते ऐसी परियोजनाओं में मौसमी प्रवाह का असर होता है और बिजली का उत्पादन प्रभावित होता है. विशाल जल भंडारण वाली परियोजनाओं के मुकाबले ये परियोजनाएं इस वजह से महंगी साबित होती हैं.
लाभार्थी पाकिस्तान संधि के बाद जलदाता देश भारत के साथ दो बार (1965 और 1971 के भारत पाक युद्ध) घोषित तौर पर, एक बार (1999 का कारगिल घुसपैठ) अघोषित तौर पर युद्ध छेड़ चुका है।इतना ही नहीं, सीमा पर गोलीबारी और घुसपैठ हमेशा करता रहता है। भारत के पानी पर जीवन यापन करने वाला यह देश जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों को शुरू से शह और मदद देता रहा है। जबकि किसी देश के संसाधन पर दूसरे देश का अधिकार तभी तक माना जाता है, जब तक लाभार्थी देश का रवैया दोस्ताना हो।सिंधु जल संधि की बात करें तो यहां तो पाकिस्तान का रवैया दुश्मन की तरह है, इसलिए भारत को उसे पानी देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।अगर पाकिस्तान तीनों शर्तें माने तब उसे सिंधु, झेलम, चिनाब, सतलुज, व्यास और रावी का पानी देना चाहिए अन्यथा पानी की आपूर्ति बंद कर देनी चाहिए। यक़ीनी तौर पर पानी बंद करने से पाकिस्तान की खेती पूरी तरह नष्ट हो जाएगी, क्योंकि पाकिस्तान की खेती बारिश पर कम, इन नदियों से निकलने वाली नहरों पर ज़्यादा निर्भर है। यह नुकसान सहन करना पाकिस्तान के बस में नहीं है। भारत से पर्याप्त पानी न मिलने से इस्लामाबाद की सारी अकड़ ख़त्म हो जाएगी और वह न तो आतंकवादियों का समर्थन करने की स्थिति में होगा और न ही कश्मीर में अलगाववादियों का। सिधु जल संधि भंग करने के बाद पूरी संभावना है कि पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विलाप करेगा। निश्तिच तौर पर वह अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का भी दरवाज़ा खटखटाएगा। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय या अंतरराष्ट्रीय संस्थान को बताने के लिए भारत के पास पर्याप्त कारण और आधार हैं। भारत इस संधि को निरस्त किए बिना रिपेरियन कानून के तहत अपनी नदियों के पानी पर उस तरह अपना अधिकार नहीं जता सकता जैसा कि स्वाभाविक रूप से जताना चाहिए।
संधि को रद्द करने की सलाह :-सिधु जल संधि का पाकिस्तान बेज़ा फायदा उठाता रहा है। आतंकवाद को समर्थ देने के अलावा इस्लामाबाद बगलिहार परियोजना के लिए भारत को ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी। किशन-गंगा, वूलर बैराज और तुलबुल परियोजनाएं अधर में लटकी हैं। पाकिस्तान बगलियार और किशनगंगा पावर प्रोजेक्ट्स समेत हर छोटी-बड़ी जल परियोजना का अंतरराष्ट्रीय मंच पर विरोध करता रहा है। पाकिस्तान का मुंह बंद करने के लिए एक मात्र विकल्प है, सिधु जल संधि का ख़ात्मा। सन् 2005 में इंटरनैशन वॉटर मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट (आई डब्ल्यू एमआई) और टाटा वॉटर पॉलिसी प्रोग्राम (टीडब्ल्यूपीपी) भी अपनी रिपोर्ट में भारत को सिंधु जल संधि को रद्द करने की सलाह दे चुका है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस जल संधि से केवल जम्मू-कश्मीर को ही हर साल 65000 करोड़ रुपए की हानि हो रही है। “इंडस वॉटर ट्रीटी: स्क्रैप्ड ऑर अब्रोगेटेड” शीर्षक वाली रिपोर्ट में बताया गया है कि इस संधि के चलते घाटी में बिजली पैदा करने और खेती करने की संभावनों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक घाटी में 20000मेगावाट से भी ज़्यादा बिजली पैदा करने की क्षमता है, लेकिन सिधु जल संधि इस राह में रोड़ा बनी हुई है। सिंधु जल संधि के अनुसार भारत अपनी छह प्रमुख नदियों का अस्सी (80.52) फ़ीसदी से ज़्यादा यानी हर साल 167.2 अरब घन मीटर जल पाकिस्तान को देता है। तीन नदियां सिंधु, झेलम और चिनाब तो पूरी की पूरी पाकिस्तान को भेंट कर दी गई हैं। यह संधि दुनिया की इकलौती संधि है, जिसके तहत नदी की ऊपरी धारा वाला देश निचली धारा वाले देश के लिए अपने हितों की अनदेखी करता है। ऐसी उदार मिसाल दुनिया की किसी संधि में नहीं मिलेगी।
सिंधु जल संधि को निरस्त करने की प्रस्ताव पारित:- 2002 में जम्मू-कश्मीर की विधान सभा आम राय से प्रस्ताव पारित कर सिंधु जल संधि को निरस्त करने की मांग कर चुकी है। राज्य की सबसे बड़ी जनपंचायत का यह सीरियस फ़ैसला था।इसके अलावा हर साल देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ता है। जिन्हें पानी की बड़ी ज़रूरत पड़ती है। ऐसे में भारत अपने राज्यों को पानी क्यों न दे। जो देश ख़ुद पानी के संकट से दो चार हो, वह दूसरे देश, ख़ासकर जो देश दुश्मनों जैसा काम करे, उसे पानी देने की बाध्यता नहीं। अगर भारत जम्मू-कश्मीर में तीनों नदियों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बांध बना दे और हर बांध से थोड़ा पानी सिंचाई के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दे, तब निश्चित तौर पर पाकिस्तान घुटने टेक देगा। पाकिस्तान को मिसाइल, तोप या बम से मारने की जरूरत नहीं, उसके लिए सिंधु जल संधि ही पर्याप्त है। चूंकि रावी, ब्यास, सतलुज, झेलम, सिंधु और चिनाब नदियों का आरंभिक बहाव भारतीय इलाके से है। इस हिसाब से रिपेरियन सिद्धांत के मुताबिक नदियों का नियंत्रण भारत के पास होना चाहिए। यानी नदियों के पानी पर सबसे पहला हक़ भारत का होना चाहिए। हां, अपनी ज़रूरत पूरी होने पर चाहे तो भारत अपना पानी पाकिस्तान को दे सकता है। वह भी उन परिस्थितियों में जब पाकिस्तान दोस्त और शुभचिंतक की तरह व्यवहार करे। पाकिस्तान का रवैया शत्रु जैसा होने पर भारत उसे एक बूंद भी पानी देने के लिए बाध्य नहीं है।
चीन से सीख ले भारत:-भारत को चीन से सीख लेनी चाहिए। राष्ट्रीय हित का हवाला देते हुए चीन ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फ़ैसला मानने से इनकार कर दिया है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने 3.5 वर्गकिलोमीटर में फैले दक्षिण चीन सागर क्षेत्र पर बीजिंग के दावे को खारिज़ करके फिलीपींस के अधिकार को मान्यता दी। चीन ने दो टूक शब्दों में कहा कि इसे मानने की बाध्यता नहीं है। चीनी के डिफेंस प्रवक्ता ने कहा कि चीनी सेना राष्ट्रीय संप्रभुता और अपने समुद्री हितों एवं अधिकारों की रक्षा करेगी। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि देश की संप्रभुता और समुद्री अधिकारों पर असर डालने वाले किसी भी फ़ैसले या प्रस्ताव को उनका देश खारिज करता है।भारत ख़ासकर मोदी सरकार को यह पॉइंट नोट करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फ़ैसले पर चीनी लीडरशिप की प्रतिक्रिया का फिलीपींस के अलावा किसी राष्ट्र ने विरोध नहीं किया। संयुक्त राष्ट्रसंघ के अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देश भी ख़ामोश रहे।कुल मिलाकर इसका मतलब यह है कि कोई राष्ट्र भी अपने राष्ट्रीय हित का हवाला देकर दुनिया की सबसे बड़ी अदालत के फ़ैसले को भी मानने से इनकार कर सकता है। इसे कहते हैं, विल पावर, जो कम से कम अभी तक सिंधु जल संधि को लेकर भारतीय लीडरशिप में अब तक नहीं रहा है। सवाल यह है कि क्या बलूचिस्तान का मामला उठाने वाले भारतीय प्रधानमंत्री सिंधु जल संधि के मुद्दे को आतंकवाद, दाऊद इब्राहिम और हाफ़िज़ सईद से जोड़ने का साहस करेंगे।
संधि की संकीर्ण व्याख्या:-यह फैसला संधि की संकीर्ण व्याख्या करने की पाकिस्तान की कोशिशों की ही नई कड़ी है. यह भारत के अधिकारों को कम करने और सिंधु जल संधि को और लचर बनाने में पाकिस्तान की नर्ई कामयाबी है. किशनगंगा के मामले में दिया गया फैसला अधिप्लव मार्ग (स्पिलवे) की संरचना पर बंदिशें लगाता है. इससे नदी की धारा का इस्तेमाल कर बनाई जाने वाली परियोजनाओं की व्यावसायिक उपयोगिता प्रभावित हो सकती है. जैसा कि अस्सी के दशक में भारत की सलाल परियोजना के साथ हुआ था, जब पाकिस्तान के दबाव में उसकी डिजाइन में कुछ बदलाव किए गए थे. पानी के तेज बहाव के जरिए गाद नियंत्रण पर रोक लगाकर इस अंतरराष्ट्रीय फैसले ने स्पिलवे बनाने के सामान्य अंतरराष्ट्रीय मानक का मखौल उड़ाया है.मामले से जुड़े सभी पक्षों से करोड़ों डॉलर की फीस और ऊंची कीमतें लेने वाले मध्यस्थों और अधिवक्ताओं के साथ मिलकर की जाने वाली अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अकसर न्यूनतम साझा हितों के आधार पर काम करती है. किशनगंगा मामले में पैनल ने भारतीय परियोजना के कानूनी प्रावधानों को बनाए रखते हुए डिजाइन के मसले पर पाकिस्तान के पक्ष में फैसला दे दिया है. दोनों पार्टियों को और ज्यादा चूसने के लिए मध्यस्थ पूरी कार्रवाई को 2010 से इस साल के आखिर तक धकेल चुके है और अब उन्हें ‘उम्मीद’ है कि वे एक और मसले पर अपना ‘आखिरी फैसला’ देंगे. फैसला यह कि भारत को किशनगंगा से पाकिस्तान के लिए न्यूनतम कितना पानी छोडऩा है.
पाकिस्तान की मंशा साफ है: जम्मू-कश्मीर में बिजली की कमी के चलते वहां के लोगों में जो असंतोष बढ़ रहा है, उसे हल करने के लिए भारत ने देर से ही सही, लेकिन जो परियोजनाएं शुरू की हैं, पाकिस्तान का उद्देश्य उन पर आपत्ति उठाकर उनमें अड़ंगा डालना है. मकसद यह कि संधि के तहत भारत को जो भी सीमित लाभ मिल सकते हैं, वे भी न मिलें. यह रणनीति दरअसल पाकिस्तानी फौज की तय की हुई है, जिसका उद्देश्य घाटी में असंतोष और हिंसा का माहौल बनाए रखना है. एक अहम मसले पर सिंधु समझौते के प्रावधानों के पार जाकर मध्यस्थों ने जाने-अनजाने पाकिस्तान को एक ऐसा औजार दे दिया है, जिससे वह भारतीय परियोजनाओं पर ही सवाल उठा सकता है. इस मसले पर रणनीतिक कमी के चलते भारत के लिए जो कड़वा नतीजा निकला है, उसका दोष खुद भारत सरकार पर है. उसने संधि को मुख्य वार्ताकार की सिफारिश के हिसाब से कर दिया और लंबी अवधि का कोई आकलन नहीं किया. भारत को अब भी संधि में दिए गए कुछ अधिकारों का इस्तेमाल करना है (मसलन भंडारण से जुड़े अधिकार). बावजूद इसके उसने पाकिस्तान को सिंधु घाटी में पानी की मांग और आपूर्ति के बीच बढ़ती खाई का मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खींचकर ले जाने का मौका दे दिया. आखिर उदार भारत अपने हितों की ओर से कब तक आंखें मूंदे रहेगा?

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  1. पूर्वी पंजाब में मेरे छोटे से गाँव में जहां छत पर से चारों ओर क्षितिज तक खेत खलिहान के अतिरिक्त केवल शून्य का आभास होता था वहां तो नहीं लेकिन परिवार सहित यात्रा के समय १९४० के दशक में दिल्ली के झंडेवालान के मंदिरों के बाहर तीज त्योहारों पर लगे मेलों में मिट्टी के बने खिलौने याद आते है। तभी विलायत से लौटे एक भारतीय परिवार के घर में बच्चों को यांत्रिक खिलौनों से खेलते भी देखा है। बचपन से भारत और पाश्चात्य देशों के बीच इस अंतर को भारतीय जीवन व समाज की अन्य सभी परिस्थितियों में निरंतर देखते आया हूँ। मेरा दृढ विशवास है कि मुख्यतः १९७० के दशक तक इस स्थिति का सीधा संबंद्घ अंग्रेजों को लाभान्वित करते ब्रिटिश राज और तथाकथित स्वंत्रता के उपरान्त उनके प्रतिनिधि कार्यवाहक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच सांठ गाँठ के कारण रहा है जब भारत की पहली पढ़ी लिखी युवा पीढ़ी में अग्रदूतों ने भारत से बाहर वास्तविक स्वतंत्रता और अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून के चक्रव्यूह से बचने हेतु संयुक्त राष्ट्र अमरीका व अन्य पाश्चात्य देशों में जा बस वे भारत में न केवल उपभोक्तावाद व वैश्विकता की नींव रखने में सहायक रहे हैं बल्कि कालान्तर में प्रवासियों व देश वदेश का भ्रमण करते आगंतुकों द्वारा भारत में राजनितिक जागरूकता इतनी बढ़ा दी गई है कि आज साधारण नागरिक तथाकथित राजनीतिज्ञों के गौरखधंधों को भली भांति पहचानने लगा है।

    मैं डा. राधेश्याम द्विवेदी जी से नहीं पूछूँगा कि वे अब तक कहाँ थे अथवा कहाँ सो रहे थे क्योंकि कल के राजनैतिक वातावरण में नज़रबंद जागा भी कोई जागा हुआ होता है जिसकी दुनिया को कोई सुधि ही न हो? हाँ, मैं उनसे निवेदन अवश्य करूंगा कि भारत में मेजर जनरल (सेवानिवृत) गगन दीप बक्शी जी और अन्य राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों के संग मिल कोई ऐसा शोध केंद्र स्थापित किया जाए जिसमें १८८५ में जन्मी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व उनसे सम्बंधित सभी संस्थाओं पर विस्तृत शोधकार्य किया जाए और विशेषकर तथाकथित स्वंतंत्रता के पहले और तत्पश्चात उनकी उन कुल गतिविधियों को जांचा जाए जिन के कारण भारत व भारतवासियों की आज ऐसी दुर्दशा बनी हुई है कि घोर भ्रष्टाचार और अराजकता के वातावरण में राष्ट्र का दो तिहाई जनसमूह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम २०१३ के अन्तर्गत कम दरों पर खाद्यान्न प्राप्त करने को बाध्य है। भारतीय राजनैतिक क्षितिज पर श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी जी का उजागर होना भारत और भारतवासियों के लिए महत्वपूर्ण एवं भाग्यशाली घटना है जिसे संगठित भारतीय नागरिकों के समर्थन व योगदान द्वारा साकार भारत राष्ट्र का पुनर्निर्माण किया जा सकता है।

  2. डा. राधेश्याम द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत सूचनात्मक लेख, “सिंधु नदी संधि: नेहरू ने पाक को सारा पानी लुटा दिया” अवश्य ही अंतरराष्ट्रीय नीतिगत निर्णयों को प्रभावित करता दिखाई देता है लेकिन जिज्ञासु मन मैं सोचता हूँ कि नेहरू ने किन परिस्थितियों में “सिंधु नदी संधि” पर हस्ताक्षर किये थे, विशेषकर इस संधि से भारत को क्या उपलब्धियां प्राप्त हुईं होंगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि जम्मू और कश्मीर की तरह देश के हितों की उपेक्षा करते अंग्रेजों की प्रतिनधि कार्यवाहक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने तथाकथित स्वतंत्रता उपरान्त “सिंधु नदी संधि” गुप्त रूप से आयोजित विभाजन संबंधी षड्यंत्र के बलि चढ़ा दिया हो?

  3. सिंधु नदी संधि पर आपका अध्ययन बड़ा गहरा लगता है.,अभी तक आप कहाँ थे?भाजपा में बड़े बड़े दिग्गज लोग बैठेहैं और नेहरू की छोटी बड़ी भूलों के लिए उनको श्मशान से लाकर सजा देने के लिए भी ये लोग तैयार बैठे हैं.आपके अनुसार जो इतनी बड़ी भूल है,उस पर उनकी नजर अभी तक क्यों नहीं पडी?

  4. नेहरू जी ने विश्व राजनीति में अपनी अछि छवि बनाने व खुद को विश्व का सब से बड़ा शांतिप्रिय व निष्पक्ष नेता दिखाने की कोशिश में देश के अहित में कई ऐसे समझौते व कार्य किये जिनमें दूरदर्शिता व व्यवहारिकता का पूर्ण अभाव था आज वे देश के लिए गले की हड्डी बन गए हैं , उनका गुप्त प्रयास शांति लिए नोबल पुरस्कार पाने का था , वह तो नहीं मिला लेकिन देश की जनता को विवादों के कई पुरस्कार जरूर प्रदान कर गए

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