रामदास सोनी
( स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने बरसों पूर्व भारतीयों को उनके गौरवशाली इतिहास और परम्परा से परिचित करवाने के लिए भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ नामक ग्रन्थ की रचाना की थी ताकि भारतीय अपने आप को पहचाने और किसी भी प्रकार की विदेशी सत्ता के समक्ष नत-मस्तक ना हो, राष्ट्रीय जीवन मूल्यों की आभा से उनका जीवन ही नहीं वरन मुख मण्डल भी प्रदीप्त रहे किंतु वर्तमान में विचारधारा के संघर्षकाल में या यू कहे कि संक्रमण काल में देश घटनाक्रम जिस तेजी से करवट ले रहा उससे आम नागरिक भौचक्का सा रह गया है, वैचारिक भ्रम इतना गहरा रहा है कि सच और झूठ में विभेद कर पाना काफी कठिन लगता है, ऐसे में देशवासियों को उनके स्वत्व, गौरव गरिमा और इतिहास के बारें में अवगत कराने की दृष्टि से लिखी गई है यह लेखमाला। इस लेख में 15 अगस्त 1947 से लेकर आज तक हमारे भाग्य विधाताओं ने जो महत्वपूर्ण भूले की है उनका वर्तमान में हमको क्या मूल्य चुकाना पड़ रहा है, के बारें में चर्चा की गई है।)
बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने भाग .1इस वर्ष आपातकाल को 35 साल बीत गए है। यह एक ऐसी घटना थी, एक ऐसा कानून था, जिसे लागू करने वाले लोग भूल जाना चाहते है और भुगतने वाले रह-रहकर याद रखना अपना धर्म समझते है। सवाल यह है कि हम भारत के लोग इतिहास से सबक लेकर कब अपना वर्तमान बुनेगें और भविष्य संवारेगें? हम भारतीयों के सम्बंध में यह सामान्य धारणा है कि हमारी सामाजिक स्मृति कमजोर है। हमारा कोई बुरा करे, हम पर आपराधिक कृत्य करें, आक्रमण करे या हमारे देश में बम विस्फोट करे, तो हम उसे भूलकर अपने आपको महान् और दयावान बताने का प्रयास करते है। भारतीय अपने पर आक्रमण करने वाले को भूल जाते है। उन्हे वे चेहरे याद नहीं रहते, जिन्होने उन्हे दास बनाया। हम भारतीय उन कारणों की कभी समीक्षा नहीं करते जो हमारी अवनति और पराजय के लिए जिम्मेदार होते रहे है। हमें न तो उपकार याद रहता है और न अपकार। इसलिए हम अपने लिए काम करने वाले, अपने लिए शहीद हो जाने वालों या हमारे लिए तिल-तिल कर जीवन गला देने वालों को भी भूल जाते है। चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह आज पाठ्यक्रम से बाहर है। गांधी के स्वदेशी और स्वाबलंबन कार्यक्रमों से देशवासी कोसो नहीं हजारों मील दूर चले गए है। देश की सुरक्षा में शहीद हुए नायको से नाता 15 अगस्त और 26 जनवरी को बजने वाले गानों की कैसेट में सिमटकर रह गया है। वस्तुत: भूल जाने की वृत्ति के कारण भारतीय समाज ने समय- समय पर बड़ी कीमत चुकाई है। ऐसी कीमत जो दुनिया के किसी देश और कौम ने नहीं चुकाई। हमें यह सीखना होगा कि कोई हमारे साथ गलत करे तब हम उसे सजा अवश्य दे। हमलावर पुनरावृत्ति न करे, इस बात के लिए हमने आवश्यक कदम न उठाए तो यह मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं। आपातकाल गत शताब्दी के प्रमुख काले पन्नों में से एक है। बीती शताब्दी में समय ने कई काले पन्ने लिखे है उनमें से प्रमुख छः काले पन्ने देशवासियों के विचारार्थ प्रस्तुत है-
प्रथम काला पन्ना – सुभाष बाबू की राजनैतिक हत्याकिसी भी देश, व्यवस्था अथवा व्यक्ति के जीवन में जो बाते प्रथम बार होती है, उनका प्रभाव उस पर सदियों तक बना रहता है। जब भारत आजाद हुआ तो उसका पहला शासक कौन बना? उसकी नीतियां क्या थी? इसका प्रभाव उस देश, वहां की जनता व आगे आने वाली कई पीढिय़ों पर पड़ता है। किसी संस्था का स्थापना पुरूष कौन है? इस बात का असर जीवन भर उस संस्था पर बना रहता है। प्रारंभ का यह प्रभाव घट-बढ़ सकता है,किंतु समाप्त कभी नहीं होता। सदियों की गुलामी के बाद भारत स्वतंत्र होने पर उसका जो पन्ना लिखा गया, उसके नेपथ्य में जाना आवश्यक है।
एक नायक 48 साल की उम्र में संसार से चला गया! ऐसा कुछ लोग मानते है। 35 साल की उम्र में कोलकाता जैसे महानगर का मेयर बन गया। 41 साल की उम्र में वह युवा जब राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद को ग्रहण करता है तो कांग्रेस ही नहीं, पूरा देश उसकी ओर आशाभरी दृष्टि से देखने लगता है। जनता प्रेम से उसे नेताजी जैसा सम्मानजनक उपनाम देती है। लोगों को सुभाषचन्द्र बोस के हाथों में स्वतंत्र और समर्थ भारत बनता हुआ दिखाई देने लगता है। लेकिन कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग उनके अध्यक्ष बनते ही उन्हे हटाने के ताने-बाने बुनने लगा। यही से भारतीय इतिहास का यह काला पन्ना लिखा जाना प्रारंभ होता है। कांग्रेस के तात्कालीन कर्ता-धर्ता जैसे-तैसे तो एक साल के लिए उन्हे अध्यक्ष के रूप में धका ले गए लेकिन दूसरे कार्यकाल के लिए जब सुभाष ने फिर अध्यक्ष पद का चुनाव लडऩे की घोषणा की तो कांग्रेस के कर्णधारों में खलबली मच गई। उस वर्ष कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन त्रिपुरी- जबलपुर में हुआ था। सुभाष बाबू बहुत बीमार थे। सहयोगी और सलाहकारों ने उन्हे सम्मेलन में न जाने को कहा, लेकिन वे जिद्द पर अड़े रहे। ठीक समय त्रिपुरी- सम्मेलन में पंहुच गए। कमजोरी और अस्वस्थता के कारण उन्हे स्ट्रेचर पर लिटाकर मंच पर लाया गया। सुसुप्त रूप में गांधीजी के मन में सुभाष बाबू के लिए पूर्व में ही अनमना भाव था। गांधीजी ने जब देखा कि सुभाष बाबू वापस अध्यक्ष बनने जा रहे है तो उन्होने पट्टाभिसीतारमैया को सुभाषचन्द्र बोस के सामने चुनाव में खड़ा कर दिया। विधिवत चुनाव हुआ जिसमें सुभाष बाबू 200 मतों से विजयी रहे और दूसरे कार्यकाल के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए। चुनाव में अपने उम्मीदवार की पराजय को गांधीजी ने इतनी बड़ी माना कि वे सार्वजनिक रूप से बोले, यह पट्टाभिसीतारमैया की हार नहीं बल्कि मेरी हार है। खुले पण्डाल में सभी राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के सामने विधिवत रूप से चुनाव लड़कर चुने गए उम्मीदवार का अस्तित्व अब खतरे में था। उनके साथ उनकी कार्यकारिणी के सदस्यों ने असहयोग करना प्रांरभ कर दिया। अपने अध्यक्षीय भाषण में सुभाष ने पांच बिन्दुओं पर प्रकाश डाला। वे बिन्दु आज के संदर्भ में प्रासंगिक भी है व विचार करने योग्य भी। भाषण में रखे गए बिन्दु हमें यह ध्यान दिलाते है कि एक राष्ट्र नायक की दृष्टि व सोच की दिशा कैसी होनी चाहिए वे कहते है –
1. कांग्रेस के पास एक अति अनुशासित स्वयंसेवक दल होना चाहिए।
2. स्वतंत्र भारत में शासकीय अफसरों का एक कैडर गठित किया जाये। एडमिनिस्ट्रेशन का वह कैडर कांग्रेस के विचारों से पोषित हो।
3. श्रमिक व किसान संघों को मान्यता देकर कांग्रेस से जोड़ा जाये व उन्हे देश सेवा के कार्यो में लगाया जाये।
4. कांग्रेस में वामपंथियों को चकबंद कर उनसे समझौता किया जाये कि वे भविष्य में समाजवाद पर अडिग रहेगें।
5. भारत के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध बढ़ाना व भारत की स्वतंत्र विदेश नीति का निर्माण करना।कांग्रेस प्रतिनिधियों से खचाखच भरे पण्डाल के सामने दिए गए उस भाषण में लोगो ने स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की झलक देखी। उन्होने देखा कि 42 साल का यह युवा ओज और तेज से भरपूर है, जिसकी विचार करने की शैली कांच की भांति साफ है। प्रतिनिधियों को उनमें बढ़ते भारत का भविष्य दिखाई दिया लेकिन दुर्भाग्य, उसी अधिवेशन में कांग्रेस कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पारित किया, उस प्रस्ताव में उन्होने जो लिखा वह निर्वाचित अध्यक्ष पर असंवैधानिक दबाब था। एक अध्यक्ष के नाते कार्य करने की स्वतंत्रता पर सीधा हस्तक्षेप था। कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रस्ताव में लिखा कि –
कार्यसमिति में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को गांधीजी का निर्विवाद विश्वासपात्र होना आवश्यक है।गांधीजी के उम्मीदवार को हराकर अध्यक्ष बने सुभाष बाबू पर यह एक प्रकार से सीधा-सीधा हमला भी था और बंधन भी। जो कुछ भी यहां लिखा जा रहा है वह पट्टाभिसीतारमैया द्वारा लिखित कांग्रेस के इतिहास व कांग्रेस पर लिखित पुस्तकों व उसके सन्दर्भो में वर्णित तथ्यों व प्रमाण के साथ है।
कार्यसमिति सीधे-सीधे अध्यक्ष को कह रही थी कि जो भी कार्य करो, फिर चाहे कार्यकर्ताओं का मनोनयन करो अथवा नियुक्ति, वह सब गांधीजी की सहमति के बाद ही करो। उनकी इच्छा पहले जान लो और उसे ही निर्देश मानो। सम्मेलन व उसके बाद कार्य के गतिरोध हटाने पर लम्बी बहस होती रही, बातचीत के कई दौर चले। समकालीन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने बीच में पड़कर विवाद को बढ़ने से रोकना चाहा। लेकिन दूसरे धड़े को मानने वालों ने सुभाष बाबू को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता देने से मना कर दिया। संविधान और विधान के तहत चुने गए अध्यक्ष ने थककर कलकत्ता में 1939 में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के खुले मंच से इस्तीफा हाथ में रख, भाषण देते हुए कहा-
मैं अपना ही निवेदन दोहराना चाहता हूं। वे अर्थात गांधीजी त्रिपुरी कांग्रेस द्वारा सौंपे गए दायित्व का वहन करे और कार्यकारिणी समिति मनोनीत करे। हमारा दुर्भाग्य रहा है कि हर प्रकार से विचार-विमर्श के बावजूद महात्मा गांधी कार्यकारिणी समिति नामजद नहीं कर सके। इसलिए सहयोग की भावना से मैं आपको अपना इस्तीफा सौंप रहा हूं।राजनीति के इन काले पन्नों को लिखने की यह शुरूआत थी।
(क्रमशः)