संदर्भः- संयुक्त राष्ट्र के पंचनिर्णय न्यायालय का फैसला-
प्रमोद भार्गव
यदि अगस्ता वैस्टलैंड हेलिकाॅप्टर से संबंधित इटली की मिलान अदालत के फैसले में सोनिया गांधी समेत अन्य कांगे्रसियों के नामों का उल्लेख न हुआ होता तो शायद संयुक्त राष्ट्र के पंच-निर्णय न्यायालय ;;आर्बिट्रेशन कोर्टद्ध के इस फैसले पर इतना हंगामा नहीं बरपा होता। दरअसल आर्बिट्रेशन कोर्ट ने केरल के दो मछुआरो की हत्या के आरोपी इटली के नौसैनिक सल्वातोर गिरौनी को रिहा करने का आदेश भारत सरकार को दिया है। किंतु भारत सरकार ने तुरंत पंचाट के फैसले को स्पष्ट तौर से पारिभाषित करते हुए मीडिया को प्रतिक्रिया दी कि इटली ने आर्बिट्रेशन कोर्ट के फैसले को गलत ढंग से प्रस्तुत किया है। फैसले में किसी भी नौसैनिक को रिहा नहीं किया गया है। यदि भारत की जेल में बंद गिरोनी जमानत मांगता भी है तो उसकी जमानत की शर्तें भारतीय सर्वोच्च न्यायालय तय करेगी। जमानत देना अथवा नहीं देना भी न्यायलय के विवेक पर निर्भर होगा। इस मामले का दूसरा आरोपी बीमारी के बहाने इटली जा चुका है। इस मामले को लेकर जो राजनीति गरमाई है,उसमें हेलिकाॅप्टर घोटाले से जुड़े दलाल क्रिश्चियन मिशेल का वह बयान है,जिसमें मिशेल ने इटली के प्रधानमंत्री मातियो रेन्जी और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुप्त मुलाकात की चर्चा की है।
दरअसल मिशेल ने कहा है कि 2015 में अमेरिका यात्रा के दौरान न्यूयाॅर्क में रेन्जी और मोदी की गोपनीय वार्ता हुई थी। इस वार्ता में मोदी ने रेन्जी के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि अगस्ता कांड में इटली सोनिया गांधी को फंसाने का उपाय करती है तो वे गिरोनी को रिहा करवा देंगे। मिलान अदालत का जो फैसला आया है,उसमें सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अहमद पटेल और तत्कालीन सचिव के आर नारायणन पर दलाली की रकम लेने का संदेह जताया गया है। पूर्व वायुसेना अध्यक्ष एसपी त्यागी और उनके परिजनों पर तो भारत में एफआईआर भी दर्ज है। मिलान के फैसले में में भी त्यागी का नाम दलाली लेने वाले लोगों की सूची में शामिल है। मिशेल के बयान पर कांग्रेस संसद के दोनों सदनों में बार-बार दोहरा रही है कि इटली के फैसले में कांग्रेसियों के नाम आना सुनियोजित शड्यंत्र है। जबकि केंद्र सरकार मिषेल के बयान के परिप्रेक्ष्य में खंडन जारी कर चुकी है। शायद इसीलिए इटली सरकार द्वारा गिरोनी की रिहाई की मांग पर भारत सरकार ने आर्बिट्रेशन कोर्ट की तार्किक व्याख्या करके सफाई पेश की जिससे मिशेल के बयान को नकारा जा सके। इस खंडन से साफ हुआ है कि आर्बिट्रेशन कोर्ट का फैसला एक स्वाभाविक राहत के अलावा कुछ नहीं है और मिलान एवं आर्बिट्रेशन कोर्ट के एक ही समय आए फैसले संयोग भर है।
इटली के दो नौसैनिकों मैसीमिलैनो लतौरे और सलवातोर गिरोनी पर ने फरवरी 2012 में कोच्चि के तट पर केरल के दो मछुआरों वैलेंटीन और अजेश बिंकी को समुद्र्र्र्री डाकू समझकर गोली मारकर नृशंस हत्या कर दी थी। इस आरोप में इन सैनिकों को केरल पुलिस ने तत्काल गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन इटली सरकार ने अंतराष्ट्रीय समुद्री सीमा विवाद को आधार बनाकर मामले को उलझाते हुए केरल पुलिस के क्षेत्राधिकार को चुनौती दे दी थी। नतीजतन गृह मंत्रालय ने जांच एनआईए को सौंप दी थी। एनआईए सिलसिलेबार जांच को आगे बढ़ा रही थी। लेकिन इटली और यूरोपीय संघ द्वारा भारत की तत्कालीन संप्रग सरकार पर दबाव बनाकर सेफ्टी आॅफ मेरीटाइम नेवीगेशन एण्ड फिक्सड प्लेटफाॅम्र्स आॅन काॅन्टीनेंटल सेल्फ एक्ट‘ (सुआ) कानून हटवा दिया था। इसे हटाने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा पेश किया था। सुआ के हटने के बाद इटली के नौसैनिकों को मौत की सजा देने का प्रावधान खत्म हो गया था। इसके हटने के बाद पूरा मामला वहीं पहुंच गया थी,जहां से शुरूआत हुई थी। यह शुरूआत भी बमुश्किल सर्वोच्च न्यायालय के दबाव में की गई थी। इसके बाद यह मामला एनआईए के दायरे से आप से आप बाहर हो गया था। दरअसल सुआ लागू रहने पर ही एनआईए इस मामले की जांच कर सकती थी ?
यह मामला तब भी गहराया था जब हत्यारों को इटली में हुए चुनाव में मतदान के करने के बहाने सुप्रीम कोर्ट की इजाजत से इटली ले जाया गया था। अदालत को इनकी वापिसी की गारंटी इटली के भारत स्थित तत्कालीन दायित्व राजदूत डेनियल मैंसिनी ने एक शपथ-पत्र देकर दी थी। लेकिन यह शथप-पत्र उस समय एक बहाना साबित हो गया था, जब इटली सरकार ने नाटकीय तरीके से शपथ-प़त्र में दिए वचन से मुकरते हुए दोनों सैनिकों को भारत भेजने से इंकार कर दिया था। अलबत्ता अदालत के तर्क को खारिज करते हुए यह भी कहा था कि यह मामला भरतीय अदालतों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इसलिए इटली से सैनिकों को वापस नहीं भेज रहे हैं। इस अवहेलना और कुतर्क को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लिया और कड़ा रुख अपनाते हुए इतावली राजदूत के भारत छोड़ने पर रोक लगा दी थी। इस प्रतिबंध के बाद इटली का चिंतित होना लाजिमी था। नतीजतन उसने अपनी आशंकाएं भारत सरकार के समक्ष प्रगट कीं और नौसैनिकों की वापसी के लिए मजबूर हुआ था। अदालत की इस सख्ती से देश की गरिमा और न्यायालय की प्रतिष्ठा तत्काल बहाल हो गई थी। देश और दुनिया में भारत सरकार के विरुद्ध जो नकारात्मक माहौल बन रहा था, वह भी बेअसर हो गया था। लेकिन मनमोहन सरकार ने सुआ कानून हटाकर तत्काल तो इटली सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे।
दरअसल यूरोपीय देशों द्वारा देश के शीर्ष न्यायालय की अवहेलना करना कोई नई बात नहीं थी। लेकिन ऐसा शायद पहली बार संभव हुआ था, जब भारत से भागे आरोपियों की इटली से वापसी हुई थी। वरना अदालत के आदेश के बावजूद अब तक 1993 के मुंबई विस्फोटों का दोषी दाऊद इब्राहिम भारत नहीं आ पाया, वह पाकिस्तान में खुलेआम घूमता रहकर पूरी दुनिया में अपना कारोबार चला रहा है। सरकार को 26/11 के मुंबई विस्फोट के आरोपी हाफिज सईद को भी भारत लाने की जरुरत है। सईद तो पाकिस्तान में भारत के खिलाफ बाकायदा अलगाववाद की मुहिम चला रहा है। पाक अधिकृत कश्मीर में भी भारत के खिलाफ जहर उगालने का काम कर रहा है। भोपाल गैस काण्ड के आरोपी व यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष एंडरसन को भी हम भारत लाने में नाकाम रहे थे। अब तो उसकी मौत भी हो चुकी है। ऐसा ही बोफोर्स तोप सौदे के इतालियन दलाल क्वात्रोची के साथ किया गया था। लिहाजा भारत सरकार का दायित्व बनता है कि वह इस मामले को गंभीरता से ले ताकि, भारतीय मछुआरों की इतावली सैनिकों ने जो हत्या की है,उनका भारत में बंद आरोपी गिरोनी तो छूटने ही न पाए, बल्कि दोनों आरोपियों को भारतीय कानून के अनुसार सजा भी मिले। अलबत्ता गिरोनी को रिहा किया जाता है तो मिशेल के बयान को लेकर भारतीय जनमानस में यह धारणा बनने में देर नहीं लगेगी कि मोदी और रेन्जी की गुफ्तगु ही गिरोनी की रिहाई का परिणाम है।