ईश्वर के मुख्य काम सहित मनुष्यों के कुछ प्रमुख कर्तव्य

0
503

मनमोहन कुमार आर्य

इस संसार को बनाने वाला व हमारी आत्मा को माता-पिता के माध्यम से शरीर से युक्त करने व जन्म देने वाली सत्ता का नाम ईश्वर है। समस्त जड़ चेतन जगत का रचयिता व पालक एक ईश्वर ही है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वान्तर्यामी, कर्म-फल प्रदाता, मोक्षदाता, ज्ञान व सुख दाता व सृष्टिकर्ता आदि गुण, कर्म व स्वभाव वाला है। ईश्वर के मुख्य कार्य कौन कौन से हैं, इस पर विचार करते हैं। इससे पूर्व हमें यह ज्ञात होना चाहिये संसार में अनादि व अविनाशी तीन सत्तायें हैं ईश्वर, जीव और प्रकृति। ईश्वर व जीव चेतन सत्तायें हैं एवं प्रकृति जड़ सत्ता है। ईश्वर एक है और जीवात्माओं की संख्या अनन्त है। जीवात्मा भी एक सूक्ष्म सत्ता है और यह एकदेशी, अल्पज्ञ, जन्म-मरण धर्मा, जन्म-जन्मान्तर मे ंकिये कर्मों के फलों की भोक्ता है जिसकी व्यवस्था ईश्वर करता है। प्रकृति भी सूक्ष्म है और यह मूल अवस्था में सत्व, रज और तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक सत्ता है। इसके विकार से परमाणु व अणु बनते हैं और इन अणु व परमाणुओं से ही यह समस्त पंचभौतिक जगत बना है। हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रिया, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व शरीर के सभी बाह्य व आन्तिरिक करण व अवयव हैं, वह सब मूल प्रकृति से ही परमात्मा द्वारा बनाये गये हैं। यह जगत  ईश्वर ने जीवों के कर्म-फल भोग के लिए बनाया है। परमात्मा जीवों को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करने के लिए उन्हें विभिन्न योनियों में जन्म देता है और जन्म-मरण का यह चक्र हमेशा चलता रहता है। कुछ जीवों को जो वेदानुसार श्रेष्ठ कर्म करते हैं, ज्ञान से युक्त होते हैं तथा दोषों से मुक्त होते हैं, ऐसे जीवों को परमात्मा मोक्ष वा मुक्ति प्रदान करता है। ऐसे मुक्त जीवों का भी मोक्ष की दीर्घावधि के बाद पुनः मनुष्य योनि में जन्म होता है और इस प्रकार से जीवन-मृत्यु व मोक्ष का चक्र अनादि काल से चला आ रहा है ओर अनन्त काल तक चलता रहेगा। ईश्वर द्वारा जीवात्माओं का मनुष्यादि योनियों में जन्म कर्म-फल भोग के साथ उन्हें मोक्ष प्रदान करने के लिए है।

 

ईश्वर के प्रमुख कार्यो में एक कार्य व कर्तव्य सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व अवधि पूरी होने पर इसकी प्रलय करना है। ईश्वर यह सृष्टि जीवों के कल्याण, सुख वा फल भोग के लिए करता है। यदि वह ऐसा न करे तो जीवों को ज्ञान प्राप्ति कर सुखी होना व मोक्ष आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती। सृष्टि की रचना न होने पर ईश्वर के सृष्टि रचना व पालन आदि की सामर्थ्य का साफल्य भी नहीं हो सकता। चेतन ईश्वर व जीव सभी में यह गुण देखने में आता है कि उनमें जो ज्ञान आदि की शक्ति व सामर्थ्य होती है उसके अनुरूप वह कर्म अवश्य करते हैं। ऐसा ही ईश्वर ने किया है व करता है और जीवात्मा भी मनुष्य आदि योनि में अपनी ज्ञान व शरीर आदि की शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार सत्यासत्य मिश्रिम कर्म करते हैं। अतः ईश्वर का एक कार्य सृष्टि की रचना, इसका पालन व प्रलय करना है।

 

ईश्वर सूर्य, चन्द्र, पृथिवी एवं लोक-लोकान्तरों की रचना करने के बाद मनुष्य आदि अनेकानेक प्राणियों की सृष्टि भी करता है। पहले अर्थात् प्रथम पीढ़ी में यह अमैथुनी होती है और उसके बाद दूसरी पीढ़ी से मनुष्यादि प्राणियों की मैथुनी सृष्टि चलती है। मनुष्य आदि प्राणियों की सृष्टि व उनका पालन करना भी ईश्वर का ही काम है। ईश्वर यह कार्य बिना जीवों से किसी फल की आशा के करता है। ईश्वर का तीसरा कार्य वेद ज्ञान की उत्पत्ति करना व उसे ऋषियों द्वारा मनुष्यों को प्रदान करना है। यदि ईश्वर चार ऋषियों के माध्यम से प्रेरणा द्वारा वेदों की उत्पत्ति न करे तो मनुष्यों को वैदिक भाषा जो संसार की सभी भाषाओं की जननी है उसका और तृण से लेकर ईश्वर पर्यन्त पदार्थों का ज्ञान न हो सके। संसार में जहां जितना भी ज्ञान है वह सब वेदों से ही आया है। यह अवश्य है कि वेद ज्ञान व वैदिक भाषा की प्राप्ति के बाद समय समय पर विद्वानों व वैज्ञानिकों ने अपनी अपनी बुद्धि की क्षमता के अनुसार विचार-चिन्तन व ध्यान आदि करके उसमें वृद्धि व उन्नति की है।

 

ईश्वर के मुख्य कार्यों को जानकर हमें अपने कर्तव्य का ज्ञान भी प्राप्त करना है। मनुष्य को अपने कर्तव्यों का ज्ञान भी वेद से होता है। मनुष्यों को उनके कर्तव्यों के ज्ञान के लिए प्राचीन काल में ऋषियों ने वेदों के आधार पर पंचमहायज्ञों का विधान किया है। इन पंचमहायज्ञों का उल्लेख सृष्टि के आरम्भ में रचित मनुस्मृति में भी मिलता है। यह पांच कर्तव्य हैं सन्ध्या, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ। इन कर्तव्यों के साथ मनुष्य को समाजोन्नति व देशोन्नति के अपने कर्तव्यों का भी निर्वाह करना चाहिये। सभी मनुष्यों को संसार में ईश्वर द्वारा उत्पन्न गाय, बकरी, भेड़, मुर्गी-मुर्गा, मछली व समुद्रीय जीव-जन्तु आदि सभी निर्दोष प्राणियों को ईश्वर प्रदत्त भोगों को भोगने का अवसर देना चाहिये। इस कार्य में किसी मनुष्य को बाधक नहीं बनना चाहिये। जहां तक हो सके सभी प्राणियों का हित करना चिहये। मनुष्य को चाहिये कि वह संसार में यह प्रचार करे कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन पदार्थों व विद्या का आदि मूल परमेश्वर है। इस नियम के प्रचार से संसार से नास्तिकता समाप्त हो सकती है और इसके होने से अज्ञान व अन्धविश्वास फैलने पर भी अंकुश लग सकता है। अविद्याजन्य मत-मतान्तरों की उत्पत्ति भी नहीं होगी जैसी की वर्तमान में देखने को मिलती है। सभी मनुष्यों को ईश्वर का वेद वर्णित स्वरूप का प्रचार भी करना चाहिये। इसके लिए आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के स्वरूप को जानकर उसका प्रचार करना चाहिये। यह सबको जानना व जनाना चाहिये कि वेद ईश्वर प्रदत्त सब सत्य विद्याओं के ज्ञान का पुस्तक है। इन्हें प्रत्येक मनुष्य को स्वयं पढ़ाना चाहिये और अन्यों को भी पढ़ाना चाहिये। सभी मनुष्यों के सब कर्म और व्यवहार सत्य पर आधारित होने चाहिये। किसी को भी असत्य कर्म व व्यवहार नहीं करने चाहिये। सत्य कर्म वहीं है जिनकी शिक्षा वेदों में ईश्वर ने व वेदसम्मत शास्त्रों में ऋषियों ने मनुष्यों को दी है। सभी मनुष्यों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार संसार का उपकार करना चाहिये। एक प्रमुख नियम जिसका सभी को पालन करना चाहिये वह यह है कि वह अविद्या का नाश करने में सक्रिय रहें और विद्या की वृद्धि भी प्राणपण से करनी चाहिये। इस नियम का पालन न करने के कारण ही संसार में अज्ञान फैला है और अनेक मत-मतान्तर उत्पन्न हुए हैं। यदि संसार में अविद्या का नाश करने में सभी तत्पर होते और विद्या की उन्नति करते तो आज व पूर्व समय में जो अज्ञान व अन्धविश्वासों की वृद्धि हुई है वह न होती। मनुष्य का यह भी कर्तव्य है कि वह सामाजिक उन्नति के सभी नियमों का पालन करें और सबके हित करने वाले नियमों का भी पालन करें। सभी अच्छे व सबके हित के कार्य करने में सबको स्वतन्त्रता होती है, उसे वह अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं।

 

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here