कुछ लोग अपनी आजीविका के लिए ही हिंदी की चिंदी करते रहते हैं ।

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Hindi-Dayविगत १० से १२ सितमबर को भोपाल में सम्पन्न ‘विश्व हिंदी सम्मेलन ‘ में हिंदी भाषा विमर्श पर भाषायी प्राथमिकताओं के बरक्स तो कोई चर्चा नहीं हुई।किन्तु सत्तापक्ष के नेताओं और ‘असोसिएट्स’ के वीर रस से ओत -प्रोत हिंदी उदगार जरूर मुखरित हुए। कुछ ने हिंदी भाषा को तकनीकी ज्ञान से जोड़ने और कुछ ने हिंदी माध्यम को ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान ,एकता अखंडता के लिए संजीवनी मान लेने का पुराना अरण्य रोदन फिर दुहराया। जब जड़मति -हिंदी विद्वानों ने सम्मेलन का जिम्मा नेताओं को सौंप दिया तो साहित्य और भाषा दोनों की भी वही दुर्गति सुनिश्चित है, जो इन नेताओं ने भारतीय राजनीति की कर डाली है।

हिंदी में पढ़ने -लिखने वाले , हिंदी को राष्ट्रीय गौरव और एकता का प्रतीक मानने वाले,हिंदी के वक्ता-श्रोता – ज्ञाननिधि और हिंदी के शुभ -चिंतक, सरकारी और गैर सरकारी तौर पर हर साल हिंदी पखवाड़ा या हिंदी दिवस मनाते वक्त बार-बार यही रोना रोते रहते हैं। सभी हिंदी के शुभचिंतक कहा करते हैं कि हिंदी को देश और दुनिया में उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। आम तौर पर उनको यह शिकायत भी हुआ करती है कि हिंदी में सृजित ,प्रकशित या छपा हुआ साहित्य खरीदकर पढ़ने वालों की तादाद में तेजी से कम हो रही है। वे आसमान की ओर देखकर पता नहीं किस से सवाल किया करते हैं कि- हिंदी -जो कि सारे विश्व में दूसरे नम्बर पर बोली जाने वाली विराट और वैश्विक भाषा है – इसके वावजूद हम उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में अभी तक शामिल नहीं करा पाये!
विगत शताब्दी के अंतिम दशक में सोवियत क्रांति पराभव उपरान्त दुनिया के एक ध्रवीय[अमेरिकन ] हो जाने से भारत सहित सभी पूर्ववर्ती गुलाम राष्ट्रों को मजबूरी में न केवल अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ीं ,न केवल नव्य -उदारवादी वैश्वीकरण की -खुलेपन की नीतियां अपनानी पड़ीं बल्कि देश में प्रगतिशील आंदोलन और तदनुसार सामाजिक -सांस्कृतिक और साहित्यिक चिन्तन पर भी नव्य -उदारवाद की जबरदस्त छाप पडी। नए जमाने के उन्नत आधुनिक तकनीकी संसाधनों को आयात करते समय भाषाएँ विमर्श के केंद्र में नहीं थीं। किन्तु भूमंडलीकरण ,आधुनिकीकरण ,बाजारीकरण के लिए जिन-जिन चीजों की महत्वपूर्ण भूमिका थी ,उनमें भाषा का रोल अहम था। भारतीय बहुभाषावाद ने अंग्रेजी को इस डिजिटलाइजेशन का ,सूचना -संचार माध्यमों का अग्रगामी बना दिया। इस विमर्श में हिंदी भाषा और उसके साहित्य का बहुत कम प्रभाव परिलक्षित हुआ ।

जीवन संसाधनों में क्रांतिकारी परिवर्तनों ने, न केवल भारत ,न केवल हिंदी जगत बल्कि विश्व की अधिकांस नामचीन्ह भाषाओँ-उनके साहित्य -उनके पाठकों को घेर-घार कर कंप्यूटर रुपी उन्नत तकनीकी रुपी जादुई डिब्बे के सम्मुख सम्मोहित सा कर दिया है । प्रिंट ही नहीं श्रव्य साधन भी अब कालातीत होने लगे हैं। अब तो केवल स्पर्श और आँखों के इशारों से भी सब कुछ वैश्विक स्तर पर – मनो-मष्तिष्क तक पहुंचाने वाले – सूचना संचार सिस्टमईजाद हो चुके हैं। इतने सुगम और तात्कालिक संसाधनों के होते हुए अब किस को फुरसत है कि कोई बृहद ग्रन्थ या पुस्तक पढ़ने का दुस्साहस करे ? फिर चाहे वो गीता ,रामायण कुरआन या बाइबिल ही क्यों न हों ? चाहे वो हिंदी,इंग्लिश की हो या संस्कृत की ही क्यों न हो ?चाहे वो सरलतम सर्वसुगम हिंदी में हो या किसी अन्य भाषा में आज किसको फुर्सत है कि अधुनातन संचार साधन छोड़कर किताब पढ़ने बैठे ? फिर भी सूचना सम्पर्क के लिए भाषायी विमर्श हमेशा प्रासंगिक रहा।

रोजमर्रा की भागम-भाग और तेज रफ़्तार वाली वर्तमान तनावग्रस्त दूषित जीवन शैली में बहुत कम सौभागयशाली हैं- जो बंकिमचंद की ‘आनंदमठ ‘ शरतचंद की ‘साहब बीबी और गुलाम ‘ , रांगेय राघव की ‘राई और पर्वत’, श्रीलाल शुक्ल की ‘राग दरबारी’ , मेक्सिम गोर्की की ‘माँ ‘, प्रेमचंद की ‘गोदान’, निकोलाई आश्त्रोवस्की की ‘अग्नि दीक्षा’ , रवींद्र नाथ टेगोर की ‘गोरा’ , महात्मा गांधी की ‘मेरे सत्य के प्रति प्रयोग ‘, पंडित जवाहरलाल नेहरू की ‘भारत एक खोज’ तथा डॉ बाबा साहिब आंबेडकर की ‘बुद्ध और उनका धम्म’ पढ़ने सके ! जबकि ये सभी कालातीत पुस्तकें आज भी भारत की हर लाइब्रेरी में उपलब्ध हैं। इन सभी महापुरुषों की कालजयी रचनाएँ -खास तौर से हिंदी में भी बहुतायत से उपलब्ध हैं। अधिकांस आधुनिक युवाओं को तो इन पुस्तकों के नाम भी याद नहीं , कदाचित वे विजयदान देथा , सलमान रश्दी ,खुशवंतसिंघ ,राजेन्द्र यादव या अरुंधति रे को भले ही जानते होंगे। किन्तु उन्होंने चेतन भगत या प्रवीण तिवारी को शायद ही पढ़ा सूना होगा। यदि जानते भी होंगे तो इसलिए नहीं कि इन लेखकों का साहित्य बहुत उच्चकोटि का है ,बल्कि इसलिए जानते होंगे कि ये लेखक कभी -न कभी गूगल सर्च,फेसबुक या ट्विटर पर भी अपनी पकड़ बनाये हुए हैं।
यह सर्वमान्य सत्य है कि गूगल या अन्य माध्यम से आप अधकचरी सूचनाएँ तो पा सकते हैं, किन्तु ज्ञान तो अच्छी पुस्तकों से ही पाया जा सकता है।आज के आधुनिक युवाओं को पाठ्यक्रम से बाहर की पुस्तकें पढ़ पाना इस दौर में किसी तेरहवें अजूबे से कम नहीं है। उन्हें लगता है कि साहित्य ,विचारधाराएं ,दर्शन या कविता -कहानी का दौर अब नहीं रहा। उनके लिए तो समूचा प्रिंट माध्यम ही अब गुजरे जमाने की चीज हो गया है। यह कटु सत्य है कि चंद रिटायर्ड -टायर्ड और पेंसनशुदा – फुरसतियों के दम पर ही अब सारा छपित साहित्य टिका हुआ है। ऐंसा प्रतीत होता है कि अब हिंदी का पाठक भी इन्ही में कहीं समाया हुआ है। भाषा – साहित्य के इस युगीन धत्ताविधान में यह पीढ़ीयों के बीच मूल्यों का भी क्षेपक है। जो कमोवेश राजनैतिक इच्छाशक्ति से भी इरादतन स्थापित है। इस संदर्भ में यह वैश्विक स्थिति है। भारत में और खास तौर से हिंदी जगत में यह बेहद चिंतनीय अवश्था में है।

दुनिया में शायद ही कोई मुल्क होगा जो अपनी राष्ट्र भाषा को उचित सम्मान दिलाने या उसे राष्ट्र भाषा के रूप में व्यवहृत करने के लिए इतना मजबूर या अभिशप्त होगा ,जितना कि हिंदी के लिए भारत असहाय है ! भारत के अलावा शायद ही कोई और राष्ट्र होगा जो अपनी राष्ट्रभाषा के उत्थान के लिए इतना पैसा पानी की तरह बहाता होगा। भारत में लाखों राजभाषा अधिकारी हैं ,जो राज्य सरकारों के ,केंद्र सरकार के विभागों में सार्वजनिक उपक्रमों में अंगद के पाँव की तरह जमे हुए हैं। इनसे राजभाषा को या देश को एक धेले का सहयोग नहीं है। ये केवल दफ्तर में बैठे -बैठे भारी -भरकम वेतन-भत्ते पाते हैं ,कभी-कभार एक -आध अंग्रेजी सर्कुलर का घटिया हिंदी अनुवाद करके खुद ही धन्य हो जाते हैं। साल भर में एक बार सितंबर माह में ‘हिंदी पखवाड़ा ‘या ‘हिंदी सप्ताह’ मनाते हैं। अपने बॉस को पुष्प गुच्छ भेंट करते हैं ,कुछ ऊपरी खर्चा -पानी भी हासिल कर लेते हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंसन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है ही। स्कूल ,कालेज ,विश्विद्द्यालयों के हिंदी शिक्षक – प्रोफेसर और कुछ नामजद एनजीओ भी राष्ट्र भाषा -प्रचार -प्रसार के बहाने कुछ लोग अपनी आजीविका के लिए ही हिंदी की चिंदी करते रहते हैं । हिंदी को देश में उचित सम्मान दिलाने या उसे संयुक राष्ट्र में सूची बद्ध कराने के किसी आंदोलन में उनकी कोई सार्थक भूमिका नहीं होती । अपनी खुद की पुस्तकों के प्रकाशन में – सरकारी पैसा याने जनता के पसीने की कमाई उड़ाने में ही इनकी ज्यादा रूचि हुआ करती है ।

वेशक सोशल मीडिया -डिजिटल -साइबर -संचार क्रांति -फेस बुक और गूगल सर्च इंजन ने यह दुनिया बहुत छोटी बना दी है। किन्तु इस सूचना -संचार क्रांति ने प्रिंट संसाधनों को -साहित्यिक विमर्श को हासिये पर धकेल दिया है। छपी हुई पुस्तक पढ़ना तो अब भी गुजरे जमाने का ‘ सामंती’ शगल हो चुका है। अब यदि एसएमएस है तो टेलीग्राम भेजने की जिद तो केवल पुरातन यादगारों का व्यामोह मात्र ही है ! एसएमएस भी अब पुराना चलन हो चूका है ,वॉट्सऐप ,ट्विटर और एफबी पर तत्काल सूचना भेजो और फिर एक नयी जी – ६ तकनीकी का स्वागत करो। इस उत्तरआधुनिक दुनिया में जो भी है ,जिसका भी है,जहाँ भी है ,सब कुछ अब सभी को सहज ही उपलब्ध है। शर्त केवल यह है कि एक अदद सर्विस प्रोवाइडर ,एक सेलफोन कनेक्शन , एक लेपटाप या एंड्रायड या ३-जी मोबाइल अवश्य होना चाहिए। दूसरी ओर किताब छपने ,उसके लिखने के लिए महीनों की मशक्कत ,सर खपाने की फितरत और प्रकाशन की मशक्क़त जरुरी है ! यदि कोई नया साहित्य्कार -लेखक प्रकाशक नहीं मिलने की सूरत में अपनी जेब ढीली करने के बाद पुस्तक को आकार दे भी दे तो भी वह जनता से कैसे जुड़ पायेगा ? यदि उसे खरीददार नहीं मिल रहे हैं तो मुफ्त में या गिफ्ट में देने की मशक्क़त और इस दयनीय दुर्दशा के लिए क्या लेखक जिम्मेदार है ? यह पाठकों या क्रेताओं का अक्षम्य अपराध भी नहीं है।

यह तो हिंदी भाषा का संकट है। न कि साहित्यिक संकट है ! ये तो आधुनिक युग की नए ज़माने की ऐतिहासिक आवश्यकता और कारुणिक सच्चाई है। चूँकि समस्त वैज्ञानिक आविष्कारों और सूचना एवं संचार क्रांति का उद्भव गैर हिंदी भाषी देशों में हुआ है तथा हिंदी में अभी इन उपदानों के संसधानों का सही – निर्णायक मॉडल उपलब्ध नहीं है, इसलिएअभी तो फिर भी किताबें प्रासंगिक बनी हुई हैं। लेकिन हिंदी का प्रचार – प्रसार ,हिंदी साहित्य में विचारधारात्मक लेखन ,हिंदी सम्मेलनों की धूम-धाम ,पत्र – पत्रिकाओं के प्रकाशनों का दौर जारी है। हिंदी इस देश के आम आदमी की भाषा है। हिंदी ‘स्लैम डॉग मिलयेनर्स ‘ जैसी फिल्मों के मार्फ़त पैसा कमाने की भाषा है। हिंदी गरीबों -मजदूरों और शोषित-पीड़ित जनों की भाषा है। हिंदी हिन्दुस्तान के सर्वहारा वर्ग की भाषा है। लेकिन हिंदी में अब इन वंचित वर्गों और सर्वहाराओं की उनकी मांग के अनुकूल नहीं लिखा जा रहा है। बल्कि बाजार की ताकतों के अनुकूल,मलाईदार क्रीमी लेयर के अनुकूल महज तकनीकी,उबाऊ और कामकाजी साहित्य का ज्यादा सृजन- प्रकाशन हो रहा है । इसीलिये हिंदी जगत में वांछित पाठकों की संख्या न केवल तेजी से गिरी है अपितु शौकिया किस्म के फ़ालतू लोगों तक ही सीमित रह गई है।
आजादी के बाद संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ततसम शब्दावली के चलन पर जोर देने ,अन्य भारतीय भाषाओँ के आवश्यक और वांछित शब्दों से परहेज करने , अनुवाद की काम चलाऊ मशीनी आदत से चिपके रहने , रेल को तीव्रगति लौह पथगामिनी और सिगरेट को धूम्रवलय श्वेत दण्डिका जैसे अनुवाद ने अधुनातन सूचना एवं संचार क्रांति के साधनों के प्रयोग पर हिंदी भाषी जनता के साथ अन्याय किया है। दूसरी ओर अंग्रेजी भाषा के वैज्ञानिक संशाधन सर्व सुलभ होने से वह वैश्विक महारानी बनी हुई है। हिंदी भाषा के फॉन्ट ,अप्लिकेशन तथा वर्णों का तकनीकी अनुप्रयोग सहज ही उपलब्ध न होने या कठिन होने से न केवल छप्य पाठकों की संख्या घटी है बल्कि हिंदी में लिखने वालों का सम्मान और स्तर भी घटा है । न केवल तकनीकी कठनाइयों हिंदी में मुँह बाए खड़ी हैं बल्कि आधुनिक युवाओं को आजीविका के संसाधन और अवसर भी हिंदी में उतने सहज नहीं रहे। जितने आंग्ल भाषा में उपलब्ध हैं। इसीलिये भारत में ही नहीं विश्व में भी हिंदी के पाठक कम होते जा रहे हैं। हालाँकि हिंदी बोलने वाले और समझने वाले बढ़ रहे हैं। देश में हिंदी को सरल बोधगम्य आजीविका- परक और जन-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने की राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव में और हिंदी की वैश्विक मार्केटिंग नहीं हो पाने से राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर , मेगा -साय-साय या बुकर पुरस्कार भी उन्हें ही मिला करते हैं जो हिंदी को हेय दृष्टि से देखते रहे हैं। अंततोगत्वा फिर भी हिंदी ही देश की राजरानी और पहचान भाषा बनी रहेगी । चाहे वालीवुड हो ,चाहे खुदरा व्यापार हो ,चाहे बाबाओं-स्वामियों का भक्ति वाद हो ,चाहे कुम्भ मेला हो , चाहे कोई साधना का केंद्र हो ,चाहे रामदेव हों ,नरेंद्र मोदी हों ,राहुल गांधी -मुलायम हों ,केजरीवाल -अण्णा हजारे हों ,लालू,नीतीश या वामपंथी हों ,चाहे मुख्य धारा का मीडिया हो ,इनमें से वही सफल हुआ है ,जो हिंदी ठीक से बोल सकता है। अधिकांस पूँजीपतियों ने भी हिंदी के माध्यम से ही बाजार में सफलताएं अर्जित कीं हैं। इन सभी के प्राण पखेरू हिंदी में ही वसते हैं। इसलिए यह कोई खास विषय नहीं की हिंदी साहित्य के पाठकों की संख्या घट रही है या बढ़ रही है।
वास्तव में हिंदी जगत में कहानी,कविता ,भक्ति काव्य ,रीतिकाव्य ,सौन्दर्यकाव्य , रस सिंगार ,अश्लीलता के नए -नए अवतार फ़िल्मी साहित्य और कला का तो बोलबाला है। कहीं -कहीं जनवादी – राष्ट्रवादी -प्रगतिशील और जनोन्मुखी साहित्यिक सृजन की अनुगूंज भी सुनाई देती है। किन्तु समष्टिगत रूप में तात्कालिक दौर की समस्याओं और जीवन मूल्यों के वौद्धिक विमर्श पर हिंदी समाज में सुई पटक सन्नाटा ही है। इस साहित्यिक सूखे में जिज्ञासु या ज्ञान-पिपासु पाठकों की कमी होना स्वाभाविक है। मांग और पूर्ती का सिद्धांत केवल अर्थशाश्त्र का विषय नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में भी यह सिद्धांत सर्वकालिक , सार्वभौमिक और समीचीन है।
लेखकों और जनता के बीच संवादहीनता का दौर है ,अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर देश और समाज की वास्तविक आकांक्षाओं के अनुरूप क्रांतिकारी साहित्य अर्थात व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त रेडिकल – सृजन शायद आवाम की या सुधी पाठकों की माँग भले ही न हो। किन्तु देश और कौम के लिए यह साहित्यिक कड़वी दवा नितांत आवश्यक है। हिंदी के पाठकों की संख्या बढे ,हिंदी में प्रतियोगी परीक्षाएं हों, हिंदी में कानूनी कामकाज हो ,हिंदी में साइंस और टेक्नॉलॉजी सुगम-सरल साहित्य हो ,इस बाबत थोड़ी सी जिम्मेदारी यदि साहित्य्कारों की है तो कुछ थोड़ी सी हिंदी के जानकारों याने -सुधी पाठकों की भी है।

राष्ट्रभाषा -हिंदी दिवस पर अनन्य शुभकामनाओं के साथ ,
क्रांतिकारी अभिवादन सहित ,

श्रीराम तिवारी

12 COMMENTS

  1. मयंकजी,
    इतनी टिप्पणियों से अच्छा होता यदि सब मिलाकर एक स्पष्ट लेख ही लिख देते.

  2. श्री राम तिवारी जी,
    दो बातें कहना चाहूँगा.
    1. हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं हैं – न कभी थी न आज है. और राष्ट्रभाषा का शब्द जब तक बदला नहीं जाएगा शायद यह वहाँ पदासीन भी नहीं हो पाएगी.
    2. साहब बीबी और गुलाम विमल मित्र जी की रचना है.. शरतचंद्र जी की नही.
    3. हिंदी के उत्थान के लिए कार्य जरूरी है.. सलाह नहीं और कार्य करने कराने को कोई तैयार नहीं है. इसलिए हििंदी ऐसी ही चलती रहेगी…

    अयंगर

    • In internet age, All Indian languages can be learned in India’s simplest nukta and shirorekha free Gujanagari script or in your chosen script through transliteration.

      Official language status:
      The United States does not have a national official language; nevertheless, English (specifically American English) is the primary language used for legislation, regulations, executive orders, treaties, federal court rulings, and all other official pronouncements; although there are laws requiring documents such as ballots to be printed in multiple languages when there are large numbers of non-English speakers in an area.
      https://en.wikipedia.org/wiki/Languages_of_the_United_States

  3. बाल साहित्य अन्य भाषा-भाषी राज्यों में हिन्दी तक विस्तार, पूर्वोत्तर के राज्यों में हिन्दी के प्रभाव को बढ़ाया जाये, जहां हिन्दी कम बोली जाती है वहां स्थापित हिन्दी की संस्थाओं की भूमिका को और सुविधाएं देकर ताकतवर बनाने के संकल्प यहां हुए हैं। गिरमिटिया देशों में हिन्दी के विस्तार के साथ विदेश में हिन्दी संरक्षण, पाठय सामाग्री की एकरूपता, विदेशियों के लिए हिन्दी प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं का सामंजस्य, दूरस्थ प्रणाली से विदेशियों को हिन्दी शिक्षण देते हुए हिन्दी के प्रसार को विश्व के कोने-कोने में पहुंचाकर विश्व भाषा बनानें की दिशा में प्रयासों में तेजी लाने की प्रतिबद्धता जताई गयी।

    इतना ही नहीं तो देश-विदेश में हिन्दी प्रकाशन पर भी बल देने के लिए सम्मेलन में चर्चा की गयी। हिन्दी पुस्तकों का वैश्विक बाजार, अप्रवासी लेखकों के लिए कार्यशालाओं के आयोजन एवं हिन्दी के प्रकाशन में आने वाली समस्याओं के कैस एक निश्चित समय में दूर किया जा सकता है, इस पर नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार बलदेव भाई शर्मा जैसे विद्वानों ने प्रकाश डाला। हिन्दी पत्रकारिता में भाषा की शुद्धता को लेकर प्रयास करनें चाहिए। पत्रकारिता में आम भाषा के चलन में आने वाले हिन्दी शब्दों का समावेश ज्यादा हो न कि उनके स्थान पर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग। इसीलिए यहां सत्र में प्रस्ताव रखा गया कि अखबार एवं टीवी चैनल प्रयास करें कि वे भाषा में शुद्धता बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे। इस तरह इस विश्व हिन्दी सम्मेलन को आलोचनाओं से मुक्त होते हुए खुले मन से कहा जा सकता है कि यह वैश्विक सम्मेलन हिन्दी भाषा के उत्थान की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। इससे यह भी उम्मीद बंध गई है कि 14 सितंबर 1949 को राजभाषा बनने के बाद हिन्दी ने विभिन्न राज्यों ने कामकाज आपसी लोगों से संपर्क स्थापित करने का अभिनव कार्य किया था। लेकिन विश्व भाषा बनाने के लिए अब भी 129 देशों के समर्थन की आवश्यकता है। जिस प्रकार इस सम्मेलन में भारत सरकार के निर्णय और कार्यों की जानकारी प्राप्त हुई है, उससे यह संभावना अधिक बढ़ गई है कि शीघ्र ही हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा में शामिल कर लिया जाएगा।

  4. विदेश नीति में हिन्दी सत्र का पूरा ध्यान इस बात पर था कि कैसे हम अपने राजनयिकों के द्वारा हिन्दी के प्रसार को विभिन्न देशों में बढ़ा सकते हैं। विदेश नीतियां जो बनायी जायें उसमें हिन्दी को कैसे बढ़ावा दें। इसके साथ ही विदेश नीति में अंग्रेजी के एकाधिकार को कम करना, विदेशी भाषाओं में हिन्दी के भाषाकारों और अनुवादकों को बढ़ावा देने का यहां निर्णय लिया गया। विदेश मंत्रालय शीघ्र ही पासपोर्ट के प्रारूप को हिन्दी में बनाएगा यह भी इसी सम्मेलन की बदौलत निश्चित हो सका है। प्रशासन और विज्ञान क्षेत्र में हिन्दी को लेकर यहां राजभाषा लोकपाल की नियुक्ति, प्रशासन, न्याय एवं विज्ञान के लिए हिन्दी शब्दकोष तैयार करना, अंग्रेजी नहीं आने पर अधिकारी को निलंबित करने की व्यवस्था समाप्त करना एवं बड़े स्तर पर हिन्दी में ही पत्र व्यवहार, संपर्क करने के प्रस्ताव पारित किये जाने की बाते तय की गईं। विज्ञान क्षेत्र में हिन्दी के लिए विज्ञान शब्दकोष, विज्ञान साहित्य के हिन्दी में विस्तार, प्रसार-प्रचार, चिकित्सा विज्ञान की हिन्दी में शिक्षा, विज्ञान संचार एवं रक्षा विज्ञान का हिन्दी में प्रसार कर आम लोगों तक पहुंचाना, आईआईटी जैसे संस्थान में हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में परिलक्षित करना इत्यादि विषयों पर चर्चा करते हुए प्रस्ताव पारित हुए हैं।

    संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में यह सुनिश्चित किया कि हिन्दी में शिक्षण, प्रशक्षिण ई-अधिगम (ई-लर्निंग), कम्प्यूटर, ई-मेल, डिजीटल इंडिया में हिन्दी, रोजगार के लिए हिन्दी, देवनागरी का सरंक्षण और संवर्धन के लिए ई-स्क्रिप्ट तैयार करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जाएगा। विधि न्याय में पुराने उर्दू फारसी के शब्दों के समानांतर हिन्दी शब्द के शब्दकोष लाना, प्रशासन से जुड़े, विधि-न्याय के शब्दों का बोलचाल के हिन्दी शब्दों के साथ जोड़कर उनका सरलीकरण करने जैसे प्रस्ताव, सुझाव तैयार किये गये।

  5. इस सम्मेलन में अंतिम दिन जिन विद्वानों का सम्मान हुआ, उनमें प्राय: सभी प्रो. मोहम्मद इस्माइल जैसे हिन्दी भाषा को समर्पित थे। मोहम्मद इस्माइल इस सम्मेलन में भाग लेने सऊदी अरब से आए थे और वे अपने देश में हिन्दी पढ़ाते हैं, उनके विद्यालय में 19 हजार बच्चे उनके माध्यम से नित्य प्रति हिन्दी की बारीकियां सीख रहे हैं। भारत सहित दुनिया के 39 देशों से आए ऐसे सभी विद्वानों का सम्मान सचमुच यह बताता है कि यह सम्मेलन हिन्दी के भावी विस्तार का संदेश देने को लेकर पूरी तरह सफल रहा है। इसके इतर यहां अलग-अलग विषयों पर चले सत्रों में विद्वानों ने मंच से जिन सिफारिशों को रखा है, यदि उसका आने वाले दिनों में 20 प्रतिशत भी अमल हो गया तो हिन्दी एक राष्ट्रभाषा के रूप में अपनी जंग जीत लेगी, ऐसा कहा जा सकता है। सम्मेलन में विमर्श के दौरान कई ऐसे मुद्दे निकलकर आए, जिन पर सरकार काम करेगी।

    दुनिया के सबसे बढ़े हिन्दी प्रेमियों के इस आयोजन में हिन्दी भाषा को बढ़ावा देने के लिए कुल 12 सत्र आयोजित किये गये थे, जिसमें विदेश नीति में हिन्दी, प्रशासन में हिन्दी, विधि एवं न्याय क्षेत्र में हिन्दी और भारतीय भाषाएं, बाल साहित्य में हिन्दी, अन्य भाषा-भाषी राज्यों में हिन्दी, हिन्दी पत्रकारिता और संचार माध्यमों में भाषा की शुद्धता, गिरमिटिया देशों में हिन्दी, विदेशों में हिन्दी शिक्षण समस्याएं और समाधान, विदेशियों के लिए भारत में हिन्दी अध्ययन की सुविधा, देश और विदेश में प्रकाशन समस्याएं और समाधान विषय प्रमुखता से रखे गए थे। विदेश मंत्रालय द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में हिन्दी को विश्व भाषा बनानें के लिए न केवल पूरा खाका तैयार किया गया बल्कि इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए वह प्रतिबद्ध भी दिखाई दिया।

  6. पहली बार सरकार से लेकर प्रशासन के महत्वपूर्ण अधिकारी विश्व हिन्दी सम्मेलन में चले सत्रों में उपस्थित रहे, न केवल उपस्थित रहे बल्कि उन्होंने इन सत्रों में अन्य हिन्दी विद्वानों के साथ बराबर से अपनी हिस्सेदारी तय की। इतना ही नहीं, इससे आगे बढ़ते हुए कई सरकारी सेवकों ने अपनी ओर से सभी को आश्वस्त किया कि वे अपनी ओर से अथक कोशिश करेंगे कि सभी कार्य हिन्दी भाषा में करने के लिए पूरी तन्मसयता से प्रयत्नरशील रहेंगे। इस सम्मेलन के कारण संपूर्ण देश में यह बात मध्यप्रदेश के जरिए पहुंची है कि जब एक राज्य आगे अपने यहां से केंद्र को हिन्दी भाषा में योजनाएं बनाकर भेजने के लिए प्रतिबद्ध हो सकता है, तो हम क्यों नहीं ऐसा कर सकते, हमारे राज्य की प्रमुख भाषा भी तो हिन्दी ही है।

    यहां विश्व हिन्दी सम्मेलन के कारण पहली बार यह संभव हो सका कि विभिन्न सत्रों में गंभीर रूप से भाषा के विस्तार और सुधार को लेकर अन्य भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी का आपसी तालमेल बैठाने को लेकर आत्ममंथन आरंभ हुआ। देवनागरी लिपि के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग होने चाहिए, न कि रोमन लिपि के साथ, यह विचार भी इसी सम्मेललन में मूर्तरूप पाने की दिशा में आगे बढ़ा है। इस सम्मेेलन का परिणाम यह हुआ है कि मंच से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय को अंतर्राष्ट्रीय बनाने की घोषणा की है, यानी इस दिशा में प्रयत्न अब शासन स्तर पर आरंभ हो जाएंगे। क्या यह देश और विशेषकर मध्यप्रदेश के लिए गौरव की बात नहीं कि महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के बाद यह देश का दूसरा विश्वविद्यालय होगा, जिसे हिन्दी भाषा से संबंधित वैश्विक स्तर का बनाया जाएगा। उन्होंने प्रदेश में राजभाषा विभाग को दोबारा प्रारंभ करने की बात कही। प्रदेश में उपभोक्ता वस्तु हिन्दी में बेची जायेगी, सभी अधिसूचनाएं हिन्दी में, उच्च न्यायालय के फैसलों का अनुवाद हिन्दी में, अधिकारियों का प्रशिक्षण हिन्दी में कराए जाने की बात कहकर शिवराज सिंह चौहान ने देश के अन्य राज्यों को भी राजनीतिक स्तर पर हिन्दी को मजबूती प्रदान करने का रास्ता दिखा दिया है।

  7. इसके बाद कहना होगा कि ‘स्व भाषा उन्नति को मूल’ जो यह बात कही गई है, इसको भारत में हिन्दी विषय को लेकर लगातार नकारे जाने के प्रयत्न तेजी से किए गए हैं। ऐसा नहीं है कि यह भाषायी संकट हम भारतवासियों के सामने ही प्रकट हुआ है, दुनिया के कई देश हैं, जहां भाषा को लेकर समस्यायें पैदा होती रही हैं और हो रही हैं, किंतु बात तो तब है जब इस संकट के दौर में भी अपने हित का रास्ता निकाल लिया जाए। कभी इंग्लैण्ड को भी फ्रैंच के सामने लगता था कि उनकी भाषा का विस्तार होगा भी कि नहीं, क्योंकि ब्रिटेन का अधिनायक वर्ग अंग्रेजी को दोयम दर्जे की समझते हुए तेजी से फ्रैंच भाषा सीखने और बोलने के लिए प्रवृत्त हुआ था। उस समय हमारी भाषा हिन्दी की तरह ही अपनी भाषा के स्वाभिमान और विस्तार के लिए निज भाषा उन्नति को मूल सिद्धांत से प्रेरित होकर इंग्लैण्ड में भी आंदोलन खड़ा होकर सफलता को प्राप्त हुआ था। इसके बाद वैश्विक परिदृश्य में आज अंग्रेजी की क्या स्थिति है, यह हम सभी भलीभाँति जानते हैं।

    भोपाल में आयोजित हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन को लेकर अनेक प्रश्न हो सकते हैं, हो सकता है कि जो यह नकारात्मकता देखने का प्रयत्न कर रहे हैं, वह कुछ मामलों में सही भी हों, किंतु यहाँ बताना उचित होगा कि इस सम्मेलन ने हिन्दी भाषा को अपने तीन दिन के अल्प समय में बहुत कुछ सकारात्मक दिशा में दिया भी है। वस्तुत: सभी को यह ध्यान रखना होगा कि किसी भी भाषा या संस्कृति को लेकर यदि सामान्य जन के बीच धारणा नकारात्मक अथवा सकारात्मक दोनों में से कोई भी पहले बन जाए, तो उसे तोड़ना बहुत मुश्किल होता है। भारत में कम से कम हमारी हिन्दी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। एक तरफ वह बाजार की भाषा के रूप में अपनी पहचान बना रही है, तो दूसरी ओर वह अपने घर में नित्य प्रति दोयम दर्जे के व्यववहार से त्रस्त है। आज न सिर्फ विद्यालयीन, विश्वविद्यालयों में ही नहीं बल्कि प्रशासनिक तथा अन्य स्थानों पर यही देखने में आता है कि जहां प्रतिभावानों की योग्यता की कद्र कई बार इसीलिए नहीं हो पाती, क्योंकि वे बहुभाषिक स्तर पर मात खा जाते हैं, उन्हें फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना नहीं आती है। इस चली आ रही व्यवस्था को तोड़ने की दिशा में क्या-क्या नए प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं, यह चुनाव और निर्णय करने व कराने का प्रयास इस विश्व हिन्दी सम्मेलन के जरिए आज हुआ है।

  8. वस्तुत: यहाँ हमें जानना ही होगा कि यह विश्व हिन्दी सम्मेलन पूर्व में हुए 9 सम्मेलनों से कई मायनों में कैसे भिन्न था। इस सम्मेलन में यह पहली बार हुआ कि सिर्फ साहित्य पर चर्चा नहीं हुई। पंथ, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, महादेवी, प्रेमचंद, सुभद्रा कुमारी, दिनकर, कबीर, नानक, तुलसीदास, रैदास, जायसी के आगे साहित्य के स्तर से ऊपर उठते हुए हिन्दी भाषा के विश्व क्षितिज पर छा जाने के लिए होने वाले प्रयत्नों की चर्चा, उसे और अधिक प्रभारी बनाने के विषय में बातें तथा संकल्प इस हिन्दी सम्मेलन के जरिए लिए जाने के प्रयत्न किए गए हैं। साहित्य से आगे भाषा के स्तर पर यहाँ व्यापक चर्चा और संकल्प इस सम्मेलन में लिए गए हैं।

    वैसे भी हिन्दी स्वयं को बाजार की भाषा के रूप में स्थापित करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ ही रही है। हमें वह दिन भी याद है, जब चैनलों का संजाल भारत में बिछना आरंभ हुआ था और शुरुआती दिनों में यह अंग्रेजी भाषा में अपने कार्यक्रमों का प्रसारण करते थे, किंतु कुछ ही महीनों में हुआ यह था कि यह सभी अंग्रेजी पसंद चैनल भारत में हिन्दी पर जोर देते दिखाई दिए, क्योंकि उन्हें अपने कार्यक्रमों को देखने के लिए दर्शक ही नहीं मिल रहे थे। वास्तव में हम इसे हिन्दी भाषियों और हिन्दी भाषा की ताकत मान सकते हैं, जिसके कारण ही यह संभव हो सका कि जो अंग्रेजी को पसंद करते हैं, उसे आगे बढ़ाना चाहते हैं, बाजारी कारणों के कारण ही सही हिन्दी भाषा को व्यवहार में लाने के लिए मजबूर देखे गए। बाजार लाभ की भाषा जानता है और आज मनोरंजन की दुनिया में हिंदी सबसे अधिक मुनाफा देने वाली भाषा के रूप में स्वयं को स्थापित करने में सफल रही है। हमारा भारत भले ही बहुभाषिक देश हो, किंतु यहां बाजार की भाषा में बात करें तो कुल विज्ञापनों का लगभग 75 प्रतिशत भाग हिंदी में तैयार किया जाता है।

  9. विश्व हिन्दी सम्मेलन, क्या पाया हमने : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

    हिन्दी भाषा को लेकर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित 10वें विश्व हिन्दी सम्मेलन का सफल समापन हो गया। अब बात इसे लेकर हो रही है कि हमने इस सम्मेलन से क्या हासिल किया। कमियां ढूंढ़ने वालों को इस कार्यक्रम के बहाने सरकार और नेताद्वय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को घेरने का उचित अवसर मिल गया। सोशल मीडिया में अनेकों ने यह बात प्रमुखता से उठाने की कोशिश की है कि आखिर इस विशाल वैश्विक सम्मेलन से किसी को क्या मिला, सिर्फ धन की बर्बादी हुई है, हिन्दी का तो कुछ भी भला नहीं हो सका है। इस तरह की बात करने वालों की हाँ में हाँ मिलाने वालों की भी कोई कमी इस सोशल मीडिया के मंच पर नहीं देखी जा रही है। लेकिन किसी ने इस बात पर अभी चर्चा शुरू नहीं की है कि यह सम्मेलन एक भारतीय भाषा के रूप में हिन्दी और हिन्दी भाषियों को क्या कुछ दे गया है।

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