राजनीति

सोनिया व राहुल गांधी के विरोध के निहितार्थ

– निर्मल रानी

राजीव गांधी की 20 मई 1991 में हुई हत्या तथा उसके पश्चात हुए संसदीय चुनावों के बाद हालांकि नरसिंहाराव कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री अवश्य बन गए थे। परंतु उनके प्रधानमंत्री बनने तथा सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद जिस प्रकार पार्टी रसातल की ओर बढ़ती चली गई, वह भी कांग्रेस पार्टी के इतिहास के सबसे बुरे दौर की घटना मानी जाती है। यह वही दौर था जबकि 6 दिसंबर 1992 की अयोध्या घटना घटी तथा उसके बाद कांग्रेस का पारंपारिक वोट बैंक समझे जाने वाले मुस्लिम मतदाता कांग्रेस पार्टी से दूर चले गए। और यही वह दौर भी था जबकि कांग्रेस से जुड़े एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता यहां तक कि देश के तमाम रायों के अनेक वरिष्ठ पार्टी नेतागण यह सोचकर कांग्रेस को अलविदा कह गए कि शायद अब सत्ता कांग्रेस के लिए दूर की कौड़ी साबित होगी। ज़ाहिर है जहां वह समय कांग्रेस जनों के लिए संकट कासमय था वहीं कांग्रेस विरोधी राजनैतिक संगठन खासतौर पर वे राजनैतिक दल जो कांग्रेस को सत्ता प्राप्ति की अपनी राह का कांटा समझते थे उन दल के नेताओं ने बहुत बड़ीराहत की सांस ली थी। यहां यह बात भी गौरतलब है कि यही वह दौर भी था जबकि राजीव गांधी की हत्या के बाद तमाम वरिष्ठतम कांग्रेस नेता गण सोनिया गांधी से इस बात की मान मुनौव्वल करने में लगे थे कि वे किसी भी तरह से सक्रिय राजनीति में भाग लेकर कांग्रेस को संकट से उबारें। परंतु अपनी सास इंदिरा गांधी तथा पति राजीव गांधी की राजनैतिक कारणों के परिणाम स्वरूप हुई हत्या से दुखीसोनिया गांधी राजनीति में अपनी सक्रियता के मुद्दे पर कई वर्षों तक बार-बार इंकार करती रहीं।

बहरहाल सोनिया गांधी से अधिक समय तक कांग्रेस पार्टी की दुदर्शा होते नहीं देखा गया और आंखिरकार वह इंदिरा गांधी व राजीव गांधी की राजनैतिक विरासत संभालने के लिए तैयार हो गईं। सोनिया गांधी को न केवल कांग्रेस महासमिति ने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित किया बल्कि उस समय से लेकर आज तक चाहे वह कर्नाटक में बेल्लारी की लोकसभा सीट रही हो या फिर उत्तर प्रदेश में अमेठी यारायबरेली के लोकसभा क्षेत्र, जहां भी सोनिया गांधी ने संसदीय चुनाव लड़े वहीं जनता ने उन्हें भारी बहुमत से जिताकर लोकसभा के लिए भेजा। सोनिया गांधी की राजनैतिक सक्रियता के कुछ ही समय बाद राहुल गांधी ने भी अपनी मां को सहयोग देना शुरू कर दिया। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी एक बार फिर केंद्रीय स्तर पर अपने आप को सुरक्षित व संरक्षित महसूस करने लगी। इंदिरा नेहरू घराने की गत 6 दशकों से राष्ट्रीय स्तर पर चली आ रही स्वीकार्यता के परिणामस्वरूप देश की जनता ने सोनिया गांधी व राहुल गांधी को भी गंभीरता से लिया। परिणामस्वरूप पार्टी से अपने बुरे दिनों से उबरना शुरु कर दिया तथा कई रायों में मृतप्राय: सी होती जा रही कांग्रेस में पुन: जान आना शुरु हो गई। जाहिर है पार्टी के इस पुनर्उत्थान से जहां कांग्रेसजनों के हौसले बुलंद होते जा रहे थे वहीं कांग्रेस विरोधियों की रातों की नींद हराम होने लगी।

कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों द्वारा अब सीधे सोनिया गांधी व राहुल गांधी पर निशाना साधने की रणनीति बनाई जाने लगी। सर्वप्रथम सोनिया गांधी को विदेशी मूल की महिला बताकर उनपर राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक आक्रमण किया गया। तरह-तरह के अपमानजनक शब्दबाण उनपर छोड़े गए। कई वरिष्ठ नेतागण जिनमें कि वर्तमान समय में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी शामिल हैं, को सोनिया गांधी की अंग्रेजी बोलने की उनकी शैली व उनके उच्चारण की सार्वजनिक रूप से जनसभाओं में नक़ल करते व खिल्ली उड़ाते देखा गया। बावजूद इसके कि देश की जनता ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री के पद के बिल्कुल करीब तक पहुंचा दिया था। उसके बाद सुषमा स्वराज व उमा भारती जैसी नेताओं ने उनके प्रधानमंत्री बनने का इस निचले स्तर तक विरोध किया जिसकी दूसरी कोई मिसाल भारतीय राजनीति में देखने को नहीं मिलती। किसी ने कहा यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनती हैं तो हम उल्टी चारपाई पर लेटना शुरु कर देंगे। किसी ने कहा कि हमसूखे व भुने चने खाना शुरु कर देंगे। तथा किसी ने अपना सिर मुंडाने तक की बात कह डाली।

णरा सोचिए कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि देश की जनता संवैधानिक रूप से किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री अथवा मुख्‍यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाए तो विरोधियों द्वारा इस प्रकार व्यक्तिगत् स्तर कीर् ईष्या का प्रदर्शन क्या न्यायसंगत कहा जा सकता है? परंतु सोनिया गांधी ने मई 2004 में कांग्रेस संसदीय दल द्वारा नेता चुने जाने के बावजूद प्रधानमंत्री का पद अस्वीकार कर अपने विरोधियों को राजनैतिक महात्याग रूपी ऐसा करारा तमाचा मारा कि जिसकी धमक से कांग्रेस विरोधी दल आज तक उबर नहीं पा रहे हैं। हां इतना जरूर है कि इन कांग्रेस विरोधियों विशेषकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी से व्यक्तिगत् रूप से ईर्ष्‍या रखने वालों की समझ में शायद यह बात अवश्य आ गई है कि सोनिया गांधी के विरुध्द किया जाने वाला विदेशी महिला का उनका विलाप उन्हें मंहगा पड़ा तथा देश की जनता ने इस तर्क को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया। परंतु सोनिया व राहुल दोनों पर प्रहार करने तथा उनके विरुद्ध अनाप-शनाप बोलने का यह सिलसिला अभी भी पूर्ववत् जारी है। तमाम नेता तो ऐसे भी हैं जो केवल मीडिया में सुर्खियां बटोरने की गरज से ही सोनिया व राहुल का सीधा विरोध करते हैं।

जब सोनिया अथवा राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में दलित चौपाल में जाते हैं अथवा राहुल गांधी दलितों के घरों में जाकर उनके साथ रात गुजारते हैं अथवा उनके साथ भोजन ग्रहण करते हैं तो उस समय दलितों की स्वयंभू मसीहा तथा उत्तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री मायावती को अपना सिंहासन डोलता नार आने लगता है। और अपनी राजनैतिक जमीन अपने पैरों से खिसकते देख कर वह भी तिलमिला कर कह बैठती हैं कि दलितों के घर से दिल्ली वापसी के बाद राहुल गांधी को गंगाजल से नहला कर उनका शुद्धिकरण किया जाता है। परंतु न तो सोनिया गांधी और न ही राहुल गांधी अपने ऊपर लगने वाले इन घटिया आरोपों का कभी उत्तर देना मुनासिब समझते हैं न ही ऐसे नेताओं को यह लोग इन्हीं की भाषा व शैली में जवाब देना पसंद करते हैं। बजाए इसके यह लोग जनता के विवेक पर ही सब कुछ छोड़ देते हैं।

इन दिनों बिहार राज्‍य विधानसभा के चुनाव संपन्न हो रहे हें। तमाम चिरपरिचित चेहरे बिहार की राजनीति में जनता या बिहार के भाग्य का नहीं बल्कि शायद अपने ही राजनैतिक भाग्य का फैसला करने के लिए तरह-तरह के तिकड़म भिड़ा रहे हैं। कांग्रेस पार्टी पर परिवार वाद का आरोप लगाने वाली तमाम पार्टियों व उनके नेताओं को अपने-अपने परिवार मोह में उलझे देखा जा सकता है। कल तक कांग्रेस पार्टी की बैसाखी बने लालू यादव ने इस बार अपने तेजस्वी नामक एक पुत्र को भी चुनाव प्रचार में उतारा है। लालू यादव इस गलतंफहमी के अभी से शिकार हो चुके हैं कि उनका पुत्र अभी से राहुल गांधी से भी आगे निकल गया है। कल तक तमाम कांग्रेस विरोधी नेता राहुल गांधी को राजनीति में बच्चा बताने की कोशिश में लगे थे तो अब लालू यादव के पुत्र ने तो राहुल गांधी को बूढ़ा ही कह कर संबोधित कर दिया है। अब आखिर इस प्रकार के राहुल विरोध को किस स्तर तथा किस मंकसद के विरोध की संज्ञा दी जाए? यहां हम सोच सकते हैं कि लालू यादव के पुत्र ने अपनी कम उम्र और नासमझी के तहत ही शायद यह बात कही हो। परंतु शरद यादव जैसे वरिष्ठ नेता को न हम कम उम्र कह सकते हैं न ही कम तजुर्बेकार या अपरिपक्व राजनीतिज्ञ। यह जनाब भी पिछले दिनों बिहार की एक चुनावी जनसभा में न केवल राहुल गांधी की नंकल करते हुए अपनी आस्तीन चढ़ाते देखे गए बल्कि जनता के बीच उन्होंने यह तक कह डाला कि राहुल गांधी को तो गांगा नदी में फेंक दिया जाना चाहिए। स्पष्ट है कि राजनीति में उपरोक्त किस्म के विचारों अथवा शब्दावलियों की कोई गुंजाईश नहीं होनी चाहिए। परंतु यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि जिन नेताओं द्वारा सोनिया गांधी व राहुल गांधी के विरुध्द ऐसे शब्दों या विचारों का प्रयोग किया जाता है, वे यह बात भलि-भांति जानते हैं कि दरअसल नेहरु-गांधी परिवार ही सत्ता की उनकी राह में सबसे बड़ा कांटा है। और यही ईर्ष्‍या इस प्रकार के अपशब्दों, विचारों तथा आचरण के रूप में सार्वजनिक रूप से अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग नेताओं द्वारा समय-समय पर व्यक्त होते हुए देखी जाती है।