बी एन गोयल
करचरणकृतं, वाक्कायजं कर्मजं वा,
श्रवण नयनजं, मानसमवापराधं|
विहितमविहितं सर्वमेततक्षमस्व
जय जय करुणाब्धे, श्री महादेव शम्भो||
हाथों से, पैरों से, वाणी से अथवा कर्मों से, कानों से, अथवा आँखों से, अथवा मन से, जाने अथवा अनजाने में यदि कभी कोई कहीं अपराध हो गया हो तो हे करुणा के सागर शिव शंकर हमें क्षमा करना।
दक्षिण भारत में जिस प्रकार वैष्णव भक्तों में अलवार भक्तों की शृंखला चली उसी तरह शैव भक्तों में उन्हीं दिनों नयनार भक्तों की शृंखला चली। अलवार संतों की भक्ति का दार्शनिक रूप विशिष्टाद्वैत है उसी प्रकार नयनार भक्तों का दार्शनिक रूप शिव निष्ठा था। इसे शंकर के अद्वैतवाद और रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद के मध्य का मार्ग माना जाता है| नयनार भक्तों में 63 भक्त कवियों के नाम हैं। दक्षिण के शैव मंदिरों में इन की प्रतिमा भी पूजी जाती हैं।
इन नयनार भक्तों के पदों का संकलन आचार्य नाम्बि – आंदार – नाम्बि ने ग्यारह जिल्दों में किया। इन्हें तिरुमरई या पवित्र पुस्तक कहते हैं । इन पदों का स्थान विश्व के सर्व श्रेष्ठ भक्ति साहित्य में माना जाता है। सम्पूर्ण नयनार भक्ति साहित्य को पाँच भागों में विभक्त किया जाता है।
अट्ठाईस शैव आगम
तिरुमरई – नाम्बि द्वारा संकलित
पेरिया पुराणम अर्थात शैव संतों का जीवन परिचय
मैकनदार का शिवज्ञानबोधम
अरुलनंदी का शिव ज्ञान सिद्धि
इस पूरे साहित्य की एक ही केंद्रीय विचार धारा है – ‘शिव ही सर्वोच्च वास्तविकता है। शैव सिद्धान्त ही वेदान्त का सार है।‘ इस का आविर्भाव दक्षिण भारत की पावन भूमि पर ही हुआ। ये भक्त कवि अपनी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक अथवा सांस्कृतिक दृष्टि से विभिन्न पृष्ठ भूमि से थे। इन में कुछ विवाहित गृहस्थ तो कुछ सन्यासी भी थे। अलवार में केवल एक महिला और शेष ग्यारह पुरुष थे लेकिन नयनार में पुरुष भी थे और महिलाएं भी थी। कुछ विद्वान थे तो कुछ पूर्णतया अशिक्षित।
इन सबके एक जुट होने का एक मात्र सूत्र था – ‘शिव के प्रति निष्ठा। शिव पूजा में आस्था और शिव प्रसाद में संतुष्टि। इन के अनुसार शिव ही सृष्टि के नियंता हैं। वे ही चेतना के सागर हैं। वे ही पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त हैं। वे ही अनादि सत्य हैं।‘
इन भक्तों की मान्यता है – ‘शिव ही सर्वोच्च वास्तविकता है।‘ इस का क्या अभिप्राय है? इस का अर्थ है कि वही जगत नियंता है, शाश्वत है, अपरिवर्तनशील है, आकार रहित है, वह सर्व शक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, अक्षुण्ण, स्वाधीन, स्वतंत्र, दोषरहित, सर्वथा शुद्ध और सम्पूर्ण है। वह समय और काल के बंधनों से मुक्त है। वह अत्यधिक कृपालु और असीम प्रज्ञावान है। सदैव कल्याणकारी और सर्व ज्ञाता है। उस के स्नेह और कृपा की कोई सीमा नहीं है। उस की दृष्टि सभी जीवों और प्राणियों पर है। वह सभी को बंधन मुक्त रखता है – यही सर्वोच्च वास्तविकता है।
नयनार भक्तों के अनुसार ईश्वर के पाँच कार्य हैं – सृजन, संरक्षण, संहार, अवगुंठन और अनु गृह। इन कार्यों को करने के लिए पाँच शक्तियाँ हैं – ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, महेश्वर और सदाशिव।
शक्ति शिव की ऊर्जा है, उन्हीं का एक अंग है। मिट्टी के एक घड़े के निर्माण में तीन साधन होते हैं – कुम्हार, डंडा और चक्र। ये उस के सहायक साधन हैं तो मिट्टी एक भौतिक साधन। इस सृष्टि के लिए शिव के साथ शक्ति सहायक साधन है और माया भौतिक साधन। शक्ति चेतना है। वह शिव का ही प्रतिबिंब है। शिव ही मानव कल्याण के लिए शक्ति का रूप धारण करते हैं। पृथ्वी के जड़, प्रकृति और चेतन जीव में ही शिव का निवास है। आत्मा भी शिव के समान अनादि, अनंत और चेतन है। सांसारिक बंधन में पद जाने के कारण आत्मा स्वयं को क्षणिक, नश्वर, और अज्ञानी मानती है। इस बंधन से छुटकारा पाना आवश्यक है।
इस के लिए आवश्यक है कि जीव अपने पूर्व कर्मों से मुक्त हो, जड़ की अधीनता से बाहर निकले। मुक्ति की साधना के लिए शैव मत में विहित पद्धति का निर्धारण किया गया है। इस में गुरु को आवश्यक बताया गया है। इस सब के लिए शिव की कृपा अभीष्ट है।
शैवाचार्यों के पदों के संकलन को तेवरम भी कहा जाता है। ज्ञान समंदार, अप्पार और सुंदरार इन 63 भक्तों में प्रमुख संत माने गए हैं। पूरे संकलन में इन तीनों के ही लगभग 7000 पद हैं। ज्ञान समन्दार इन में अलौकिक दिव्य गुणों से परिपूर्ण थे। तीन वर्ष की आयु से ही इन्होंने अपनी वाणी से शिव स्तुति करनी शुरू कर दी थी।
संत अप्पार एक ऐसे संत थे कि इन के संसर्ग से पल्लव राजा महेंद्र वर्मन अपनी नास्तिक मान्यता छोड़ कर निष्ठावान शिव भक्त बन गया था। संत सुंदरार स्वयं को भक्तों के भक्त कहते थे। यह उन की विनम्रता ही थी। इन के पदों में शिव के साथ तादात्म्य होने की बात कही गई थी। चौथे महान संत थे – माणिक्क आचार्य। इन के पदों में आध्यात्मिक सोपानों की चर्चा है। इन में मुख्यतः रहस्यवाद के दर्शन होते हैं।
संत तिरुमुलार के लगभग 3000 पद दसवीं तिरुमरई में संकलित हैं। माना जाता है कि ये अन्य सभी नयनार संतों से पहले हुए हैं। इन्हें एक महान रहस्यवादी संत और आध्यात्मिक सुधारक और प्रवर्तक माना जाता है। रहस्यवादी होते हुए भी इन की भाषा में सहजता और सरलता है। ग्यारहवीं तिरुमरई में अनेक संतों की रचनाएँ हैं। नाम्बि – आंदार – नाम्बि द्वारा संकलित तिरुमरई की 11 जिल्द के बाद एक बारहवीं तिरुमरई का संकलन भी हुआ। इसे पेरिया पुराणम कहा जाता है। इन 63 संतों की रचनाओं के संकलन तिरुमरई को कालि दास के रघुवंश के समकक्ष माना जाता है।
वास्तव में अलवार और नयनार संतों में कोई सैद्धांतिक मतभेद नहीं है। कुछ विद्वानों ने दोनों सम्प्रदाय में पिता – पुत्र जैसा सम्बन्ध माना है । इन में पिता को अशिक्षित और पुत्र को पारंगत विद्वान माना है। कहा जाता है कि भक्ति की प्रवर्त्ति द्रविड़ों में प्रचुर मात्रा में थी। भक्ति के बीज पंडितों के दार्शनिक चिंतन में नहीं वरन ग्रामीण जनता के हृदयों में थे। ग्राम देवताओं के पूजन में चिंतन कम भावना अधिक होती है।
कुछ इसी तरह की भावना की आवश्यकता इन संतों की वाणी को समझने के लिए चाहिए। इन संत समूह के पूरे दर्शन का आधार तर्क की अपेक्षा श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा है। यही भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है.