जातियाँ और हिन्दू समाज : शंकर शरण

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शंकर शरण 

प्रकाश झा के ‘आरक्षण’ में आरक्षण का विरोध है या नहीं, यह अभी पता नहीं। पर बिना फिल्म देखे, अनेक नेता-लेखक प्रकाश और उनकी फिल्म को कोसने लग गए हैं। ऐसी-ऐसी दलीलों पर कि हैरत होती है। जैसे, इसके कलाकार और निर्देशक कथित उच्च-जातियों के हैं। अभी तक ‘दलित साहित्य’ जैसा हास्यास्पद वर्गीकरण ही सुनने को मिला था। (हालाँकि उस वर्गीकरण से वाल्मीकि रामायण दलित साहित्य कहलाएगा, किन्तु क्या मजाल कि दलितवादी ऐसा मान लें!)। पर शायद जल्दी ही ‘दलित संगीत’ और ‘दलित क्रिकेट’ भी सुनने को मिले। ऐसा विभाजन तो वे मूढ़ ब्राह्मण भी नहीं करते थे जो किसी जाति-विशेष व्यक्ति की छाया से भी अशुद्ध हो जाते थे।

जाति से जुड़ते किसी मसले पर सदैव यही होता है। कि मुख्य बात छोड़कर कुछ जातियों और ग्रंथों की निन्दा शुरू हो जाती है। अनोखी बात है कि इस में हर तरह के लोग स्वर मिलाते रहे हैं। यूरोपीय विद्वान, भारतीय सुधारक, ईसाई मिशनरी, तबलीगी मौलाना, वामपंथी प्रोफेसर, नेता, पत्रकार, चुनावी विश्लेषक, और इस चौतरफा श्यापे से प्रभावित होकर अन्य लोग भी। आखिर 18वीं शती के विलियम विल्बरफोर्स से लेकर 21वीं शती के कांचा इलैया तक जाति से क्यों नाराज हैं? .ये सब हमारे शुभेच्छु हैं, यह संदेहास्पद है। क्योंकि उसी निरंतरता और आवेग से अमेरिका में रंग-भेद, या इस्लामी देशों में काफिरों के प्रति अपमानजनक विधानों की निंदा कभी नहीं होती।

यह तब, जब भारत में जातीय अस्पृश्यता अवशेष रूप में है और भेद-भाव मामूली। तुलना के लिए देखें तो, इस के उलट पश्चिम में रंग-भेद आज भी गहरा है। उससे भी अधिक पूरे मुस्लिम विश्व में गैर-मुस्लिमों के प्रति अपमानजनक भेद-भाव अत्यंत तीखा और हिंसक है। केवल पाकिस्तान में शिया विरोधी हिंसा में प्रत्येक वर्ष सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। सभी मुस्लिम देशों का हिसाब करें तो स्थिति लोमहर्षक है। पर क्या हमने भारत की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उस पर कोई लेख भी वर्षों से देखा है?

उससे कम, किंतु फिर भी चिंताजनक स्थिति अमेरिका में रंग-भेद संबंधी है। हॉलीवुड की फिल्में इन द हीट ऑफ नाइट (1967), डाई-हार्ड विथ वेंजिएंस (1995), मैक्सिमम रिस्क (1996) या बुलवर्थ (1998) देख लें। इन हिट फिल्मों को टेलीविजन पर प्रायः देख सकते हैं। ध्यान रहे, यह रंग-भेद पर नहीं, बल्कि अन्य विषयों की फिल्में हैं। फिर भी इन में विविध प्रसंगों में अमेरिका में काले-गोरे संबंधों की प्रमाणिक झलक अनायास मिलती है। उनकी अलग-अलग कॉलोनियाँ, घृणा, अविश्वास तथा खूनी संबंध। अश्वेत बस्तियों में किसी श्वेत के चले आने पर उस पर अकारण हिंसक हमले की निरंतर संभावना रहती है। यह समकालीन स्थिति है।

कृपया उक्त दोनों तरह के अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण से भारत में जातिगत संबंधों की तुलना करें। शहरों में तो आर्थिक हैसियत के अतिरिक्त किसी की जाति दिखना ही असंभव है। जाति आधार पर दैनंदिन जीवन में भी भेद ढूँढना भी उतना ही कठिन। वस्तुतः विवाह संबंध तय करने के विषय के अतिरिक्त कभी किसी की जाति जानने की जरूरत तक नहीं आती। गाँवों में यदि किन्हीं जातियों के मुहल्ले अलग भी हैं तो झगड़े तो दूर, ऊँच-नीच की भावनाएं भी कभी-कभार ही झगड़े का रूप लेती हैं। यदि इस की तुलना अमेरिकी शहरों में श्वेत-अश्वेत संबंधों या पाकिस्तान, सऊदी अरब आदि देशों में शिया-सुन्नी हिंसा व भेद-भाव से करें तो भारत में जातिगत ‘उत्पीड़न’ की बातें हास्यास्पद लगेंगीं। तब यह स्थिति रहस्यमय प्रतीत होगी कि क्यों भारत में जाति व्यवस्था की ‘समस्या’ पर अनवरत, अंतर्राष्ट्रीय छीछालेदर चलती रही है?

यदि समझें कि जाति संबंधों के मामले में आज स्थिति बदली है और पहले खराब थी, तो वह भी पूरा सच नहीं। रवीन्द्रनाथ, प्रेमचंद या रेणु की कहानियों, उपन्यासों से हमारे गाँवों में जातीय संबंधों की तरह-तरह की तस्वीरें मिलती हैं। अंततः वह सामंजस्य की तस्वीर दिखती है। चाहे जातियों के बीच प्रतिद्वंदिता भी है, किंतु वह कोई विषैली या हिंसक प्रतिद्वंदिता नहीं। बस अपने-अपने जाति समाज को ऊँचा मानने, दिखाने की मानवोचित भावना।

सबसे बड़ी बात यह कि जन्म, उपनयन, विवाह, श्राद्ध आदि अवसरों पर किसी भी घर के कार्य में दूसरी जातियों के लोगों के विशेष योगदान का सुनिश्चित स्थान रहा है। अतएव, शहर या गाँव, कहीं भी एक जाति दूसरे के विरुद्ध हो, इस का कहीं कोई आधार नहीं मिलता। न सिद्धांत, न व्यवहार में। जिन छिट-पुट प्रसंगों का उल्लेख कर जाति-संरचना की थोक निंदा होती है, वह अपवाद और प्रायः राजनीतिक, वैयक्तिक या आपराधिक प्रसंग होते हैं।

बिना पूर्वग्रहों के देखें तो भारत में जातियाँ एक भाईचारे सी संस्था है। वस्तुतः उसे ‘बिरादरी’ कहा भी जाता है। अतः जैसे कोई अपने बेटे या भाँजे के लिए किसी सुविधा का प्रयत्न करता है, तो इसे दूसरे के बेटे के प्रति द्वेष नहीं माना जाता! उसी तरह किसी स्वजातीय के प्रति कोई निकटता महसूस करना दूसरों के प्रति विद्वेष का प्रमाण नहीं है। और जब तक विद्वेष नहीं, तो उस की निंदा क्यों की जानी चाहिए? यह गंभीरता से विचारणीय है।

इससे इंकार नहीं कि कतिपय जातियों के लोगों को कुछ क्षेत्रों में तीव्र भेद-भाव तथा अपमान का सामना आज भी करना पड़ता है। किंतु देश की पूरी आबादी, उसमें हर प्रकार के भेद-भाव, अपमानजनक व्यावहार, हिंसा आदि के ठोस आँकड़े सामने रखकर तुलनात्मक रुप से देखें तो स्पष्ट दिखेगा कि जातिगत दुर्व्यवहार के उदाहरणों से निष्कर्ष निकालने में सारा अनुपात बोध छोड़ दिया जाता है। मानो गैर-जातिगत भेद-भाव, अपमान आदि कम दुखःद बात हो।

किंतु जातिगत भेद-भाव के सत्य को स्वीकार करते हुए भी इस पर पर्दा नहीं डाला जाना चाहिए कि यह भारतीय समाज में हाल की सदियों में आए दुर्गुणों में से एक है। अर्थात्, यह हिन्दू धर्म की विशेषता नहीं, जो प्रचारित किया जाता है। हिन्दू शास्त्रों में भी जातियों का उल्लेख सहज रूप में हैं। मनुवाद के नाम से फैलाई गई कुत्सा एक दुष्प्रचार मात्र है। मनुवाद के नाम पर कुछ जातियों को कोसने वालों ने भी शायद ही कभी मनुस्मृति का ऐसा कोई विस्तृत, प्रमाणिक विश्लेषण देखा हो। हर जगह बस फतवे से ही काम चलाया जाता है।

बात यह भी ध्यान देने की है कि हिन्दू घरों में मनुस्मृति नहीं, बल्कि रामायण, महाभारत, गीता, भागवत आदि सर्वाधिक महत्व पाते हैं। तब हिन्दुओं का केंद्रीय ग्रंथ मनुस्मृति कैसे बताया जाता है? फिर नारद, पराशर, भृगु, याज्ञवल्क्य, आदि अनेकानेक ऋषियों की लिखी असंख्य और स्मृतियाँ हैं। किंतु चर्चा केवल मनु-स्मृति की ही क्यों होती है? केवल इसलिए, क्योंकि अंग्रेजों ने संस्कृत ग्रंथों में केवल मनु-स्मृति को चुन कर अनुवादित, तथा निरंतर प्रचारित किया। एक सचेत योजना के अतर्गत, ताकि संदर्भ और काल से काटकर, इस में लिखी कुछ बातों का दुरुपयोग किया जा सके। वही आज भी हो रहा है।

क्या कभी किसी हिन्दू राजा ने मनु-स्मृति को अपने राज्य-शासन का आधार बनाया था? यदि कहीं ऐसा उल्लेख नहीं मिलता, तब मनु-स्मृति को ‘हिन्दू कानून’ कैसे कहा जाता है? कथित मनुवाद एक अंग्रेजी दुष्प्रचार था, जो हमारे मूढ़ लेखक-टिप्पणीकार तथा निहित स्वार्थ वाले नेतागण आज भी ढो रहे हैं। इस में मिशनरियों और वामपंथियों की एकता नोट करने लायक है।

जाति की स्थिति स्वयं भगवदगीता में इस प्रकार हैः “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमअव्ययम्।।” (4/13) अर्थात, श्रीकृष्ण कहते हैं, “गुण और कर्म के अनुसार” ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र रचे गए हैं। जिस जन्मना अर्थ में बहुतेरे लोग ‘शूद्र’ और ‘वैश्य’ का अर्थ मानकर हिन्दू शास्त्रों पर ऊँगली उठाते हैं, क्या इस श्लोक से इन शब्दों का वही अर्थ निकलता है? निश्चय ही ‘गुण और कर्म के अनुसार’ किसी ‘वैश्य’ का अर्थ अग्रवाल परिवार में जन्म लेने वाले से नहीं है। तब शूद्र आदि शब्दों का आलोचक जो अर्थ इंगित करते हैं, वह उनका अपना मनमाना है।

भगवदगीता या किसी भी हिन्दू शास्त्र के संपूर्ण पाठ से ऐसा कोई भाव दूर से भी नहीं निकलता, कि वह मनुष्यों में किसी को जन्म से ऊँचा-नीचा मानती है। इसमें ‘यः’ करके लिखी असंख्य बातें संबोधित हैं, जिससे कहीं नहीं लगता कि भगवान् श्रीकृष्ण (या रचनाकार) मनुष्यों के बीच किसी ऊँच-नीच का भेद करके कोई नियम स्थापित कर रहे हैं। जैसे “यः पश्यति सः पंडितः” अर्थात् जो ऐसा देखता-समझता है, वह ज्ञानी है। ऐसा ‘यः’ किसी शूद्र, वैश्य आदि को छोड़कर कहा गया हो, कहीं नहीं दिखता। वह सभी मनुष्यों का बोध कराता है। यही स्थिति सभी हिन्दू शास्त्रों में है।

अतएव, भारतीय शास्त्रों और लोकजीवन की वास्तविकता भी कुछ और रही है। इस का सबसे अच्छा प्रमाण विभिन्न शताब्दियों में, विभिन्न देशों से आने वाले विदेशी अवलोकनकर्ताओं, यात्रियों के विस्तृत विवरण हैं। ऐसे विवरण पिछले पंद्रह सौ वर्षों से मिलते रहे हैं। वे दो-चार दिन की झलक देखकर नहीं, बल्कि महीनों, सालों, भारत के विभिन्न हिस्सों को स्वयं देख कर लिखे गए जीवंत विवरण हैं। उन में कहीं भी जाति-विद्वेष, अस्पृश्यता आदि का संकेत तक नहीं मिलता! मेगास्थनीज, फाहियान, हुएन सांग, अल बरूनी जैसे सुप्रसिद्ध विदेशी विभिन्न शताब्दियों में लंबे-लंबे समय तक भारत में रहे। उन के विवरणों में कहीं जाति-व्यवस्था का वह चिन्ह तक नहीं मिलता, जिस का रोना रो-रोकर इस की मिट्टी-पलीद की जाती है। जाति व्यवस्था की विकृतियाँ मुख्यतः पिछले दो सौ वर्षों के बीच का प्रसंग है, वह भी पूरे भारत की बात नहीं थी।

स्वयं ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 18-19वीं शताब्दी में कराए गए विस्तृत आकलनों में यहाँ जाति उत्पीड़न तो दूर – विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक-आर्थिक-व्यवहारिक हैसियत के भेद का भी विशेष उल्लेख नहीं मिलता! सब जातियों की सेल्फ-ईमेज सम्मान की थी। अंग्रेज सर्वेक्षकों को उन में किसी हीन भाव का संकेत नहीं मिला था। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है, जो उन्नीसवीं शती के आरंभ तक की स्थिति थी। ब्रिटिश काल संबंधी धर्मपाल की शोध-पुस्तकों में यह सब विस्तार से उद्धृत है। इसके अतिरिक्त भी और समकालीन साहित्य उपलब्ध हैं जिनसे दो सौ वर्ष पहले तक भारत में जातिगत संबंधों की सहज, समरस तस्वीर देखी जा सकती है।

उदाहरण के लिए, बंबई के गवर्नर रहे माऊंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ इंडिया (1841) में लिखा है कि भारत में जाति-व्यवस्था के प्रति यूरोपियन समझ अत्यंत भ्रामक रही है। यह मिथ्या धारणा है कि हिंदू समाज की जाति-संरचना किसी व्यक्ति की रचनात्मकता, महात्वाकांक्षा या विकास में बाधा बनती थी। एलफिंस्टन ने नोट किया कि भारतीय समाज में किसी भी जाति का व्यक्ति समाज में सब से महत्वपूर्ण राजकीय पदों तक भी पहुँचता रहा है। जातियाँ थीं, किंतु उन के सदस्य नितांत गतिशील, मुक्त और सम्मान से युक्त थे। इस में जाति सहायक थी, बाधक नहीं। जाति-समाज की वर्जनाएं आचरण और मर्यादाओं के पालन के लिए थीं, किन्हीं जड़-कुरीतियों के नहीं।

एलिफिंस्टन के अनुसार इतिहास ही नहीं, समकालीन भारत में भी यह अपवाद नहीं, बल्कि सामान्य स्थिति थी। उस के अपने शब्दों में,

“जाति-व्यवस्था किसी व्यक्ति के उद्यम में बाधा डालने की कोई बड़ी भूमिका नहीं निभाती थी जैसा यूरोपीय लेखक आदतन मान लेते हैं। सच तो यह है कि दुनिया में शायद ही कोई अन्य भू-भाग है जहाँ व्यक्ति की परिस्थितियों में इतना आकस्मिक और प्रत्यक्ष परिवर्तन होता हो जितना भारत में होता है। विभिन्न समय में अंतिम पेशवा राजाओं के दो प्रधान मंत्री थे; जिन में एक पहले पुरोहित या मंदिर में गायक था (दोनों ही निम्न कोटि के रोजगार माने जाते थे), और दूसरा एक शूद्र था, और पहले कहीं साधारण कोचवान था। जयपुर के राजा का प्रधान मंत्री एक नाई था। वर्तमान होल्कर राजवंश का संस्थापक एक गड़ेरिया था; और सिंधिया राजवंश का संस्थापक भी एक मामूली नौकर था; दोनों ही शूद्र थे। मराठा राज्य का प्रसिद्ध रस्तिया परिवार पहले ब्राह्मणों के परंपरागत पेशे में था, फिर वे बहुत बड़े बैंकर बने, और फिर बड़े सैनिक कमांडर। स्थितियों में परिवर्तन और वृद्धि-विकास के और अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। निजी जीवन में भी पेशागत परिवर्तनों के उदाहरण भी कम नहीं हैं।”

अतः जातियाँ किसी के विकास में बाधा बनती हैं या प्रतिभा को कुंठित करती है, यह हिन्दू-विरोधी दुष्प्रचार है। इस मिथ्या धारणा को ईसाई मिशनरियों एवं ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने स्वार्थ के लिए गढ़ा था। इसी को बाद में मार्क्सवादियों, समाजवादियों तथा हर प्रकार के हिन्दू-द्वेषियों ने उत्साहपूर्वक उठा लिया और राजनीतिक उद्देश्य से भरपूर प्रचारित किया। क्योंकि यह ‘वर्ग-संघर्ष’ के सिद्धांत को पोषण देने के लिए एक उपयोगी विभेदकारी औजार बनता था।

स्वतंत्र भारत में सारे प्रगतिवादी, सेक्यूलरवादी किस्म के लोगों के लिए जाति, कथित मनुवाद और बिना पढ़े ही हिन्दू शास्त्रों की अंध-छीछालेदर का यही रहस्य है। कुछ जातियों की निंदा उनकी राजनीति के लिए उपयोगी है, इसीलिए जाति-संबंधों की ऐतिहासिक या वर्तमान सच्चाई परखने की उन्हें कभी इच्छा ही नहीं होती! जाति व्यवस्था को कोसने का मूल आधार वही ब्रिटिश, मिशनरी मनगढंत गल्प है। नहीं तो जितने राजाओं को ईस्ट इंडिया कंपनी ने हराकर भारत पर अधिकार किया था, केवल उन्हीं को गिन लें। उनमें अनेक शूद्र थे! अतः शूद्रों आदि का सदियों से ब्राह्मणों आदि द्वारा ‘उत्पीड़न’ एक विराट वैचारिक फ्रॉड है जो मामूली जाँच-परख से ही झलकने लगेगा।

उलटे, भारत के जिस सामाजिक ठहराव के लिए जाति-व्यवस्था को दोष दिया जाता है, वह विशुद्ध ब्रिटिश औपनिवेशिकता की देन है। उसने यहाँ अपनी सत्ता सुदृढ़ करने के लिए हिन्दू संरचनाओं को निर्मूल करने की सचेत नीति अपनाई थी। प्रतिभाओं को कुंठित करना तो नितांत ब्रिटिश देन थी। अंग्रेजी राज में अत्यंत योग्य भारतीय भी डिप्टी कलक्टर से ऊपर नहीं जा सकता था! यह क्या चीज थी? जबकि उसी समय बड़ौदा जैसे महत्वपूर्ण, धनी और विस्तृत राज्य (सायाजी राव गायकवाड़) के प्रधान मंत्री भीमराव अंबेदकर थे। क्योंकि वे योग्य थे। उनकी जाति उन्हें एक बड़े भारतीय महाराजा के अधीन सर्वोच्च पद पाने में बाधक नहीं हुई। यह जाति-भेद और भयंकर अस्पृश्यता के बुरे काल का उदाहरण है। दूसरी ओर, तुलना के लिए देखें, तो वायसराय की सर्वोच्च समिति में वी.पी. मेनन पहले भारतीय थे जिसे किसी विभाग का सचिव पद मिला था। वह भी जब यहाँ ब्रिटिश राज अपने अंतिम दिन गिन रहा था!

वस्तुतः, भारत में जाति-व्यवस्था यदि किसी चीज को रोकती थी, तो वह थी योग्यता-विहीन महत्वाकांक्षा। आरक्षण के संदर्भ में यदि कोई विन्दु यहाँ विचारणीय है, तो यही। आज हमारे सार्वजनिक जीवन में अयोग्य लोगों की जो भरमार और पदोन्न्ति देखी जा रही है, वह जाति-व्यवस्था वाले भारत में कभी न थी! वह व्यवस्था शांति, सहयोग, न्याय के साथ स्वस्थ उन्नति को बढ़ावा देती थी। अन्याय, लोभ और उच्छृंखलता को नहीं। इस अर्थ में अच्छा होता, कि हम जाति-व्यवस्था से कुछ सीख लें।

वस्तुतः ईसाई मिशनरियों, इस्लामी तबलीगियों और समाजवादी क्रांतिकारियों – सब को जाति-व्यवस्था से शिकायत का मुख्य कारण कुछ और है। कि जातियों की सामाजिकता व पूरकता ने उन्हें कठिन संकटों, आक्रमणों को झेलने की शक्ति दी। इसीलिए भारत न तो इस्लाम द्वारा पूरी तरह धर्मांतरित कराया जा सका, न ईसाई मिशनरियों द्वारा, न विश्व-क्रांतिकारियों द्वारा। यह यूरोप, अफ्रीका और विश्व के अन्य हिस्सों से बिलकुल भिन्न स्थिति थी। उन स्थानों पर व्यक्ति अकेला था। उसे तोड़ना, बरगलाना, भयभीत और अंततः धर्मांतरित करना तुलनात्मक रूप से आसान रहा। भारत में जातियों की ‘बिरादरी’ वाली भूमिका ने व्यक्ति, समूह और समाज को शक्ति दी कि वह साम्राज्यवादी विचारधाराओं के मजहबी, वैचारिक, राजनीतिक प्रहारों को झेल सके। (यूरोपीय समाज में नितांत भिन्न स्थिति थी। वहाँ व्यक्ति अकेला था और इसलिए आसानी से तोड़ा जा सकता था। डिकेंस या दॉस्तॉएवस्की के उपन्यासों से व्यक्ति की एकाकी स्थिति देख सकते हैं।) जाति ‘बिरादरी’ ने भारतीय व्यक्ति को कभी नितांत अकेला नहीं होने दिया। इसीलिए कमजोर, अपंग होकर भी यह समाज बचा रह सका है। सब प्रकार के विस्तारवादियों, साम्राज्यवादियों द्वारा भारत की जाति-व्यवस्था पर निरंतर विषैले हमले का यही मुख्य कारण प्रतीत होता है।

निस्संदेह, आज यहाँ जातिगत विभेद, अपमान और अहंकार भी एक सत्य है, चाहे पहले कुछ भी रहा हो। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। चाहे जाति व्यवस्था का मूल और भूमिका वह न हो, जिसका दुष्प्रचार होता रहा है। तब भी कोई बात तो है जिससे अनेक सदाशयी लोग भी जातियों को कोसते रहते हैं। संपूर्ण भारत में भले यह एकरूप न हो, किंतु जाति आधारित भेद-भाव तथा ऊँच-नीच भी एक दुःखद सच्चाई है। समाचार पत्रों में इसके उदाहरण आते ही रहते हैं। कभी बागेश्वर से समाचार आता है कि ठाकुरों ने किसी हरिजन की बारात पर पथराव किया, तो कभी केद्रपाड़ा से सुनाई पड़ता है कि सवर्णों ने हरिजनों के मंदिर प्रवेश करने पर रोष दिखाया।

यह सब दिखाता है कि अनेक हिन्दू अपने धर्म व इतिहास से ही नहीं, वरन शत्रुओं की घेरेबंदी से भी गाफिल है। इसीलिए वे जिस पर बैठे हैं उसी डाल पर चोट करते रहते हैं। ऐसे ठाकुर भूल गए हैं, या उन्हें वामपंथी इतिहासकारों ने जानने ही नहीं दिया, कि लाहौर और ढाका जैसे प्रसिद्ध भारतीय भूखंडों में लाखों ठाकुरों, ब्राह्मणों की क्या दुर्दशा हुई। सात-आठ दशक पहले संभवतः वे भी अपने ऊँचे होने का अहंकार पालते और हरिजनों की हेठी करते थे। किंतु रावलपिण्डी जैसे प्राचीन हिन्दू क्षेत्र के ‘पिण्ड’, देवता और भव्य मंदिर कहाँ गए! पुरुषपुर, गुजराँवाला, श्रीनगर आदि कैसे श्रीहीन हो गए? चारो धाम समान विश्वप्रसिद्ध शारदा-तीर्थ कहाँ लुप्त हो गया! हिन्दुओं की अचेतनता और आत्मप्रवंचना का लाभ उठाकर ही साम्राज्यवादी विचारों के दस्युदलों ने उन मंदिरों समेत तमाम रावलों, शर्माओं, सिंहों, मंगतरायों, सहगलों, थापरों, कौलों, धरों, पंडितों, रायचौधरियों, मजूमदारों, आदि का भी सफाया कर दिया।

अविभाजित भारत में पंजाब, बंगाल, जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं का पूर्ण वर्चस्व था। उनकी आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक श्रेष्ठता से किसी को भी ईर्ष्या हो सकती थी। तब एक झटके में उनका विनाश कैसे हो गया? यों भी पूछ सकते हैं, कि किसी कटिबद्ध हमले से उनकी रक्षा कौन कर सकता या करता है? भारत के ठाकुर या सवर्ण किसी भ्रम में न रहें। उनके सभ्यतागत शत्रुओं का घेरा पहले से अधिक निकट है। जो पंजाब, बंगाल, कश्मीर में हुआ वही धीरे-धीरे असम, केरल में हो रहा है। गोधरा, अक्षरधाम, रघुनाथ मंदिर, राम-जन्म भूमि, संकट-मोचन मंदिरों पर चुने हमले लाक्षणिक हैं। उन का अर्थ समझने का कष्ट करें। भारत सुरक्षित नहीं है। सुसंगठित प्रतिकार न हुआ, तो आक्रामकों को बागेश्वर, केंद्रपाड़ा या पटना आने में देर न लगेगी। इसकी चिंता करने के बदले कथित सवर्ण हिन्दू अपने ही बंधुओं, रक्षकों को नीचा दिखाने में लगे हैं। यह उनके भयंकर अज्ञान और गफलत का सूचक है।

कथित सवर्ण हिन्दुओं का अज्ञान दोहरा है। प्रथम, वे कटिबद्ध, साधन-संपन्न, ‘स्थायी वैर-भाव’ वाले सभ्यतागत शत्रुओं से गाफिल हैं। जिन से रक्षा उतना ही कटिबद्ध संगठन और हिन्दू एकता ही कर सकती है। उन्हें भान नहीं कि डेढ़-दो सौ वर्षों के साम्राज्यवादी, मिशनरी कुचक्रों, मैकॉलेवादी, मार्क्सवादी, पश्चिमी प्रहारों के बावजूद हिन्दू धर्म-संस्कृति को बचाए रखने में उसी हिन्दू जनता की सबसे बड़ी भूमिका है, जिसे वे ‘पिछड़ा’, ‘अशिक्षित’, ‘शूद्र’ आदि कहकर अपनी हीन-भावना तुष्ट करते हैं। किंतु सदियों के बाह्य प्रहारों से हिंदू समाज की प्राण-शक्ति का बहुत ह्रास हो चुका है। उस पर दुर्भाग्य यह कि स्वतंत्र भारत में इस समाज ने अपने जिस वर्ग को समृद्ध बनाया, वही इस के प्रति उदासीन है। अतः किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि हिन्दू समाज सुरक्षित है। दूसरा अज्ञान अपनी ही धर्म-संस्कृति और इतिहास के प्रति है। जिसे वे निम्न जातियाँ या अछूत मानते हैं, वह हिन्दू धर्म या समाज की चीज ही नहीं है।

हिन्दू शास्त्रों में अस्पृश्यता कर्म-गत रही है, जातिगत या जन्मगत नहीं। महाभारत में अश्वत्थामा को अस्पृश्य माना गया, क्योंकि उस ने पांडवों के बच्चों की हत्या की थी। जबकि अश्वत्थामा ब्राह्मण-कुल में जन्मा था। जातिगत अस्पृश्यता भारत में पिछले दो-तीन सौ वर्ष पहले तक प्रायः नहीं थी। कुछ अछूत जातियाँ मुगल शासन में बनी। यह वे वीर हिन्दू थे जिन्होंने इस्लाम स्वीकार न करने के दंडस्वरूप गंदगी उठाने का काम स्वीकार किया। फिर जिन्हें आज दलित कहते हैं, वे दक्षिण भारत में योद्धा सेनानी थे जिन पर गाँव-समाज की रक्षा का भार होता था। इसी तरह, आज निम्न माने जाने वाले पेरियार ही स्थानीय न्यायाधीश का काम करते थे। 1770 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने मद्रास में एक दस्तावेज तैयार करवाया था। उस में आज के कथित दलित कह रहे हैं कि “वी आर ग्रेट सोल्जर्स, वी आलसो मेक सैंडल्स”। अतः ध्यान दें, उन जातियों की आत्म-छवि सम्मान की थी। वे अछूत या निम्न न थे, न स्वयं को ऐसा समझते थे। उन का जीवन, कार्य, शिक्षा, घर-बार, आदि कोई चीज अन्य हिन्दुओं से हीन न था। सन् 1800 तक जातियों के बीच परस्पर पिछड़ापन कोई अधिक न था। कुल शिक्षितों में 80% गैर-ब्राह्मण थे। यह स्वयं तात्कालीन ब्रिटिश दस्तावेजों में मिलता है।

यह सब आज के अहंकारी ठाकुर साहब या अज्ञानी पांडेजी नहीं जानते। औपनिवेशिक शोषण के साथ-साथ समाज में तोड़-फोड़, दारिद्रय बढ़ने के बाद ही हिन्दुओं में आपसी दूरी बढ़ी, बढ़ाई गई। यह मिशनरियों-अंग्रेजों ने सचेत रूप से किया था। ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ का सारा वर्गीकरण सौ वर्ष पुराना भी नहीं है! डॉ. अंबेदकर ने लिखा है कि मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल अंग्रेजों से मिला और कहा कि हिंदू तीन खाने में हैं – अछूत, दलित और सवर्ण। उस के बाद ही जनगणना में अनुसूचित जातियों का एक वर्ग जबरन अलग बना दिया। इस तरह ‘शिड्यूल्ड कास्ट’ बने। ऐसा कोई शिड्यूल, सूची किसी हिन्दू शास्त्र या लोक-साहित्य में नहीं है। यह अंग्रेज थे जिन्होंने जातियों का ‘शिड्यूल’ बना कर ऊँच-नीच का स्थाई भेद गढ़ा, फिर उसे हिंदू समाज की विकृति बताकर निंदित करने का अभियान चलाया। जो आज भी चल रहा है। इससे पहले भारत में कभी, जन्मना, स्थाई ऊँच-नीच का ऐसा जड़ वर्गीकरण नहीं मिलता। अन्यथा चंद्रगुप्त मौर्य या समुद्रगुप्त सम्राट नहीं हो सकते थे।

इन अंग्रेज-निर्मित सूचियों ने जातियों के आपसी संबंधों को विकृत करने और ऊँच-नीच को जड़ रूप देने में बड़ी भूमिका निभाई। तब से नीच और अछूत कही जाने वाली जातियों की संख्या में बहुत बढ़ोत्तरी हुई। ब्रिटिश शासन के दौरान फैली विकृति से पहले जातियों के आपसी संबंधों में एक गरिमा, गतिशीलता रहती थी। इसीलिए भारत में राजा, विद्वान, संत आदि सभी जातियों से होते रहे हैं। यह कोई बड़ी पुरानी बात नहीं है। न आज बिलकुल बंद हो गई है। साधु, संतों से कौन जाति पूछता है और कौन उन के सामने सिर नहीं झुकाता! इस से स्पष्ट है कि जाति का वह अर्थ ही नहीं था, न आज है, जो मिशनरियों-अंग्रेजों-मार्क्सवादियों ने गढ़ा और समय के साथ हमारे आधुनिक बौद्धिकों के गले भी उतार दिया।

यह सब भूल कर यदि हिन्दू अपने धूर्त्त शत्रुओं द्वारा पढ़ाया हुआ पाठ और बिगाड़ा हुआ समाज यथावत चलाते हैं। यदि वे समय रहते स्वयं को एक हिन्दू समाज के रूप में को एकबद्ध नहीं करते एवं साम्राज्यवादी शत्रुओं के कसते घेरे को नहीं पहचानते, तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो सकता है। जिस हिंदू समाज ने शताब्दियों तक तरह-तरह के विदेशी आक्रांताओं से हार नहीं मानी, वह कहीं उनके छोड़े अवशेषों से न हार जाए! यह खतरा वास्तविक है।

मात्र पिछले पचास वर्षों में यह हुआ कि ‘हिन्दू’ और ‘हिंदुत्व’ शब्द हँसी, विगर्हा और लांछन के सूचक बना दिए गए हैं। जिन गाँधी-नेहरूपंथियों को सत्ता पर बिठाने के लिए हिन्दू जन-गण ने अपना खून-पसीना एक किया, वही आज हिन्दू शब्द का प्रयोग गाली के रूप में करते हैं। उन ने स्वतंत्र भारत में ईसाई मिशनरियों तथा इस्लामी पृथकतावादियों को तो हर तरह की सुविधा दी, किंतु हिन्दू भावनाओं का सतत निरादर किया। इस विषम स्थिति को ‘सेक्यूलरवाद’ का एक छलपूर्ण सैद्धांतिक आधार भी दे दिया गया।

इस छली सिद्धांत की आड़ में विदेशी, साम्राज्यवादी विचारधाराओं के कई दस्युदल हिन्दू समाज के अलग-अलग अंगों को नोचने में लगे हुए हैं। कोई दलितों को, कोई वन-वासियों को, तो कोई अन्य विवश गरीबों को अपना शिकार बनाने में लगा है। हाल ही में देश की राजधानी से लगे निठारी (नोएडा) कांड के बाद जिस तरह ईसाई मिशनरियों ने पीड़ितों को धन दे कर अपने कब्जे में लेने के खुलेआम यत्न किए, उस से उन की कटिबद्ध रणनीति को देख सकते हैं। यदि आँखें जान-बूझ कर बंद न रखी हुई हो तो।

निस्संदेह यदि हिन्दू समाज के समृद्ध, तथाकथित सवर्ण, ओबीसी और दलित, सभी के शिक्षित और प्रभावशाली लोग संपूर्ण स्थिति पर सतर्क दृष्टि नहीं रखते, और अपने तौर-तरीकों में सुधार नहीं करते तो असंख्य आततायियों को हराने वाला हिन्दू समाज अपने-आप से हार जाएगा! तरह-तरह के विदेशी आक्रांता विचारों, संगठनों का साहस बढ़ता जा रहा है। उन के समक्ष मात्र धन, सैन्यबल और वैज्ञानिक-तकनीकी क्षमता हिन्दू समाज को नहीं बचा सकती। यह समाज संपूर्ण विश्व में अकेला है। उसका कोई सभ्यतागत मित्र नहीं दिखता, जबकि शत्रुदलों के अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन जग-जाहिर हैं। अतः केवल हिन्दुओं की धर्म-चेतन एकता और कटिबद्धता ही उसकी रक्षा कर सकती है। अभी समय है कि हमारे ठाकुर, ब्राह्मण और कथित दलितवादी नेता भी पहले स्वयं को हिन्दू समझें। इसी आधार पर अपना चिंतन और कर्तव्य निर्धारित करें। अन्यथा उनका भी कल अनिश्चित है।

19 COMMENTS

  1. शंकर जी आपने बहुत अच्छा लिखा है परन्तु मेरा प्रश्न यह है की इन तथ्यों को समाज में कैसे समझाया जाये क्योंकि समाज जागरण का कार्य जो लोग ईमानदारी से कर रहे हैं उन्हें तो तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा षड्यंत्रपूर्वक सांप्रदायिक बताया जा रहा है.जो लोग सिम्मी और संघ को सामान मानते हैं ऐसे राष्ट्रद्रोहियों के बारे में भी कृपया लिखें . इतने उत्कृष्ट लेखन के लिए बधाई.

  2. प्रोफ मधुसूदन जी की सेवा में

    प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र कुमार की पुस्तक का नाम है
    “विशुद्ध मनुस्मृति”
    प्रकाशक हैं
    आर्ष साहित्य प्रचार
    ४५५,खारी बावली ,दिल्ली ११०००६
    कानपूर की घटना इस्मत चुघ्ताई की पुँस्तक में घटना के रूप में वर्णित है किसी काल्पनिक कहानी के रूप में नहीं मैंने पुस्तक को लगभग १८ वर्ष पूर्व पढ़ा था अपनी भतीजी के घर बंगलोरे में. हो सकता है की वृक्ष पीपल न हो कर वट हो या इंचों में कुछ इधर उधर हो पर मूल रूप से घटना यही थीं

  3. (१)सत्त्यार्थी जी कृपया, प्रोफेस्सर सुरेन्द्र कुमार की पुस्तक का नाम, और प्रकाशक बताएं। धन्यवाद।
    (२) अंग्रेजों की कुटिलता की एक कहानी मुझे इस्मत चुग़ताई की आत्म कथारूपी पुस्तक “कागज़ी है पैरहन” में पढने को मिली.– “इस्मत के पिता मिर्ज़ा अजीमबेग चुघ्ताई कानपूर में मजिस्ट्रेट थे. कानपूर में हिन्दू मुस्लिम दंगे होते रहते थे एक बार मुहर्रम के अवसर पर अंग्रेजों ने कुछ बदमाशों के साथ मिलकर दंगे करवाने का षड़यंत्र रचा. ताज़िया जलूस को एक पीपल के पेड़ के नीचे से होकर जाना था . कुचक्रिओं ने ताजिये की ऊंचाई सामान्य से ६ इंच अधिक बनवा दी ताकि ताज़िया बिना पेड़ काटे निकल न सके ड्यूटी पर नियुक्त अज़ीम बेग ने जब देखा के यदि ताज़िया न निकला या पेड़ काटा गया तो दंगा होना निश्चित है तो उन्हों ने पेड़ के नीचे की सड़क को १२ इंच खुदवा दिया और जुलूस आराम से निकल गया. अँगरेज़ उच्चधिकरिओन ने अज़ीम बेग अनुशासनात्मक काररवाई शुरू कर दी।”
    यह घटना है ना?
    धन्यवाद।

  4. पुनश्चः
    धर्मं तथा समाज व्यवस्था दो अलग विषय हैं धर्मं सनातन है समाज व्यवस्था में समय की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं वैदिक काल की समाज व्यवस्था गुण कर्म स्वभाव पर आधारित थी. कालांतर में यह जन्मगत जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई. लेकिन ऐसा नहीं था की इस में एक जाति से दूसरी जाति में जाने का निषेध था न हीं इसमें किसी का उत्पीडन था. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है की इस्लाम और ईसाइयों का शासन होने पर भी सामाजिक दृष्टि से निचली समझे जानेवाली जातियां भी शासक वर्ग द्वारा हिन्दुओं का उत्पीडन किये जाने पर भी हिन्दू धर्मं में ही बनी रही. हमारी व्यवस्था में कुछ कुरीतियाँ अवश्य आ गयी पर जैसा की श्री शंकर शरण ने सप्रमाण (एल्फिन्स्टन तथा धर्मपाल अदि के ग्रंथों सन्दर्भ देकर) बताया उच्च तथा निम्न वर्णों के सम्बन्ध सामान्य थे और शिक्षा के खेत्र में शुद्र जातियां पीछे नहीं थी . अंग्रेजों ने कुरीतिओं को बढ़ावा दिया. हमारी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने के अभियान में दो महापुरुषों ( मैकाले और मैक्स मुलर) ने उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की. इन्ही दो महाराथिओं के मानस पुत्र स्वतंत्र भारत के शासन,व्यापार एवं उद्योग जगत, शिक्षा संस्थाओं और सूचना तंत्र पर १९४७ से अभी तक एकाधिपत्य जमाये हुए हैं. इसी कारण भारत का सामान्य नागरिक इन्ही लोगों की सोच को अपनाने के लिए विवश है.
    एक सज्जन ने मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी का उदहारण दिया.स्मरण रहे की मुंशी प्रेमचंद बीसवीं सदी में अंग्रेजों के शासन काल में लिख रहे थे और उन्हों ने उसी समय के समाज का चित्रण किया. न की पुरातन काल का .
    अंग्रेजों की कुटिलता की एक कहानी मुझे इस्मत चुग़ताई की आत्म कथारूपी पुस्तक “कागज़ी है पैरहन” में पढने को मिली. इस्मत के पिता मिर्ज़ा अजीमबेग चुघ्ताई कानपूर में मजिस्ट्रेट थे. कानपूर में हिन्दू मुस्लिम दंगे होते रहते थे एक बार मुहर्रम के अवसर पर अंग्रेजों ने कुछ बदमाशों के साथ मिलकर दंगे करवाने का षड़यंत्र रचा. ताज़िया जलूस को एक पीपल के पेड़ के नीचे से होकर जाना था . कुचक्रिओं ने ताजिये की ऊंचाई सामान्य से ६ इंच अधिक बनवा दी ताकि ताज़िया बिना पेड़ काटे निकल न सके ड्यूटी पर नियुक्त अज़ीम बेग ने जब देखा के यदि ताज़िया न निकला या पेड़ काटा गया तो दंगा होना निश्चित है तो उन्हों ने पेड़ के नीचे की सड़क को १२ इंच खुदवा दिया और जुलूस आराम से निकल गया. अँगरेज़ उच्चधिकरिओन ने अज़ीम बेग की प्रशंसा करने के बजाय उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक काररवाई शुरू कर दी.

  5. रमेश सिंह जी, आपने कहा है की भारत में ब्रह्मण शुद्र की छ्या से भी छुवाछुत करता था , तो ये बताईये की किस ग्रन्थ में कहा है की सुद्रों से छुवा छुट करना चाहिए , समय की बात है , आज मई अगर ब्राम्हणों से छुवा छुत करने लगू तो क्या आप इसे कहेंगे की यहाँ के धर्मं ने ब्राम्हणों से छुवा छुत करने को कहा है .. नहीं न.. इसमें धर्मं को दोष dene ki koi jaroorat nahi,…dhurt ne hi chalan chalaya hai

  6. विजय जी, मै आपकी बात समझता हू! पर मुद्दा ये है, कि कितने सूत पुत्र योग्यता होने के बावजूद भी योद्धा बन पाए होंगे! क्योंकि उन्हें उनकी जाति कि वजह से कोई भी शिक्षा नहीं देना चाहता था! कर्ण को ये अवसर महज़ इसलिए मिला क्योंकि दुर्योधन को उसमे असीमित क्षमताये दिखाई दी, अन्यथा कर्ण का भी कही अता पता नहीं होता! जाति की वजह से हमेशा भेदभाव होना भारतीय समाज कि परंपरा रही है! वरना क्या वजह थी कि महाभारत काल में रंगभूमि में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बावजूद कर्ण को पांडवो ने तो क्या वहाँ के गुरुओं ने भी उसको क्षत्रियो के बगल में बैठने योग्य नहीं समझा! रही बात जाति प्रथा कि तो आप शंकर जी के लेख से पता कर सकते है जिसमे उन्होंने लिखा है कि जाति जन्म से नहीं बल्कि कर्मगत होती है! जो कि हिन्दू शास्त्रों के पूरी तरह विपरीत है!

  7. शंकर शरण जी का समसामयिक लेख विद्वत्तापूर्ण तथा ज्ञानवर्धक है. आश्चर्य है की इस लेख में भी कुछ पाठकों को त्रुटियान दिखाई दी. पूर्वाग्रह अक्सर हमारे ज्ञानचक्षुओं पर नाना प्रकार के चश्मे चढ़ा देता है जिस से हम वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं. एक सज्जन को महात्मा विदुर का केवल दासीपुत्र संबोधन याद रहा. यह नहीं की उन्हें महात्मा कहा जाता है. वे कौरवों के राज्य मंत्री थे तथा श्री कृष्ण ने राजा दुर्योधन का आतिथ्य त्याग कर विदुर जी के घर भोजन गृहण किया. और अभी तक उन्हें नीतिशास्त्र का पंडित माना जाता है . एक और सज्जन जो कांग्रेसभक्ति से ग्रसित लगते हैं जैनों तथा बौद्धों के नरसंहार तथा शूद्रों के कानों में पिघला सीसा डालने का स्मरण कराते हैं यह ज्ञान उन्हें कहाँ से प्राप्त हुआ इसका उल्लेख किये बिना यह आशा करते हैं की उनके इशारों को ही अकाट्य तर्क समझा जाए. पता नहीं श्रीमानजी ने कौन सी मनुस्मृति पढ़ी.कोई भी धूर्त यदि मनु के नाम से कुछ भी बकवास लिख दे तो आप मनु को फँसी पर लटकाने को तैयार हो जायेंगे.यह सत्य है की विरोधिओं ने मूलग्रन्थ को विकृत की गई मनुस्मृति को ही हिन्दू धर्मं के विरुद्ध दुष्प्रचार का मुख्य साधन बनाया है बिना यह सोचे की क्या मनु ने वास्तव में ऐसा कहा था. मनुस्मृति पर मेरा निवेदन है की जिज्ञासु पाठक प्रोफेस्सर सुरेन्द्र कुमार की पुस्तक पढ़ें तो उनके सारे भ्रमों का निराकरण हो जायेगा. किन्तु जो यह समझते हैं की जो उन्हें ज्ञात है वही परम सत्य है वे अपने पांडित्य से प्रसन्न रहें.
    अंग्रेजों ने हमारी संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया और उसमें सफल हुए. हिन्दू समाज को दलित-सवर्ण, आर्य द्रविडा इत्यादि भागों में बाँट कर फूट पैदा की. अब बहुत सारे नेतालोगों की महिमा इन्हीं छोटे छोटे टुकड़ों का नेतृत्व करने पर निर्भर है. सारे समाज की उन्नति एकता पर निर्भर है टुकड़ों में बंट कर हम सभी नष्ट हो जायेंगे.

  8. साजिद जी, आप भी तो वही तथ्य दे रहे हैं। कि दासी-पुत्र भी महात्मा हो सकता था, जिनका कौरव-पांडव दोनों आदर करते थे। सूत-पुत्र कर्ण भी राजा और प्रधान सेनापति हो सकता था। यानी, अपने कर्म और योग्यता से वे दोनों ब्राह्मण और क्षत्रियों के सर्वोच्च पद पा सकते थे। फिर, अंग्रेजों ने यहाँ जाति-प्रथा बनाई, यह तो किसी ने नहीं कहा। अंग्रेजों ने जातियों को तोड़-मरोड़ पेश किया, और हिन्दुओं में ऊँच-नीच को जड़ बनाने वाले काम किए। सवर्ण कहलाने वाले हिन्दुओं ने भी इसमें रोल निभाया, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

  9. शंकर जी, मै आपके विचारो से पूर्णतया असहमत हू की जाति प्रथा भारत में ब्रितीशेर्स की देन है! बल्कि जाति प्रथा तो हमेशा से ही हिन्दू धर्मं का हिस्सा रही है! पौराणिक काल की बात करे तब भी जाति प्रथा अस्तित्व में थी! जैसे की, परशुराम ने सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों को ही शिक्षा देने की प्रतिज्ञा की थी! अगर ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का वर्गीकरण उनके जन्म की बजाय उनके कर्म के आधार पर होता था, तो आखिर परशुराम जी छोटे छोटे बच्चों ( जिनको वो शिक्षा दिया करते थे) कैसे पता करते थे की अमुक बच्चा ब्राह्मण है या नहीं? कर्ण सूर्य पुत्र था फिर भी उसे हमेशा सूत पुत्र क्यों कहा गया जबकि वो कर्म से क्षत्रिय था! महात्मा विदुर में ब्राह्मत्व के सारे लक्षण होने के बावजूद उन्हें हमेशा दासी पुत्र कह कर ही क्यों संबोधित किया गया? आखिर जब हिन्दू धर्मग्रन्थ ही ऐसे उदाहरानो से भरे पड़े है तो आप जैसे लोगो को अपने धर्म की बाते स्वीकार करने में इतनी शर्म क्यों आती है? इधर कुछ दिनों से अपने धर्म में व्याप्त बुरइयो का ठीकरा बस मुग़लों और ब्रितिशेर्स पर ही फोड़ा जाने लगा है! ये कही से भी उचित नहीं है! कि आप अपने धर्म को बदलने के प्रयत्न में इतना नीचे गिर रहे है!

  10. कुछ तथाकथित शिक्षित लोग केवल अपने गढ़े तर्कों के आधार पर ही हिन्दू धर्म में छिद्र खोजते रहने में ही अपनी विद्वता का प्रदर्शन करते रहते हैं…..यह आत्मघाती दुष्प्रचार है. ऐसे लोगों से निवेदन है कि धर्मपाल जी को पढ़ने की कृपा करें जिन्होंने अंग्रेजों के बयानों के आधार पर उन्हीं के विचारों और तथ्यों को अपनी पुस्तकों में स्थान दिया है. खुद अंग्रेजों ने लिखा है कि भारत में जातिप्रथा इतनी सुदृढ़ और समाज को बांधने वाली है कि इसको तोड़े बिना भारतीयों पर विजय पाना संभव नहीं है. भारतीय समाज में यदि ब्राह्मणों का इतना ही वर्चस्व था तो ब्राह्मणेतर लोगों द्वारा लिखे गए ग्रंथों और उनके कृत्यों का ब्राह्मणों द्वारा इतना सम्मान कैसे मिलता रहा ? आज का सच तो यह है कि जातिगत कानूनी सुविधाओं के दुरुपयोग से ब्राह्मण त्रस्त और भयभीत है. कमाल है, धन से दरिद्र कोपीनधारी ब्राह्मण के प्रति लोगों की दुर्भावनाओं का अंत नहीं. क्या केवल इसलिए कि वह कभी राजसत्ता का स्वामी नहीं बन सका और सदा सुदामा का जीवन जीता रहा ?
    जैन और बौद्ध मत तत्कालीन समाज की धारा के विरुद्ध विद्रोह के परिणाम हो सकते हैं …हिन्दू धर्म की यही तो विशेषता रही है कि जब-जब धर्म की हानि हुयी है किसी न किसी ने समाज में परिवर्तन के सफल प्रयास किये हैं. इस परिवर्तन की ऊर्जा भी उन्हें सनातन धर्म से ही मिलती रही है. जिस स्रोत से ऊर्जा मिलती रही है उसे ही हेय स्थापित करने का प्रयास समाज को तोड़ने का षड्यंत्र है. शंकर शरण के तर्क ग्राह्य हैं. पूर्वाग्रही होकर टिप्पणी करना स्वस्थ्य विचारधारा का परिचायक नहीं है. समाज को जोड़ना सीखिए तोड़ना नहीं.

  11. श्री वीरेन्द्र जैन ने लेख के बदले लेखक की आलोचना की है। लेख में दिए गए निष्कर्षों के पक्ष में कई ठोस उदाहरण और तथ्य हैं। उनमें कौन सा गलत है? यह वीरेन्द्र जी ने नहीं बताया। उसके बदले वे लेखक की किसी ‘राजनीति’ पर टिप्पणी करने लगे। लेखक कोई राजनीति करता है या नहीं, इससे लेख की सही या गलत बातों को कोई अंतर नहीं पड़ेगा।

  12. आपने बहुत सी बातें लिखी हैं और आपने बहुत लोगों की तरह अपनी कमजोरी छिपाते हुए जातिवाद का ठीकरा ,अंग्रेजों या मुसलमानों के सर फोड़ा है तो मेरा यह मानना है की बौध धर्म भी अन्य बातों के अलावा सनातन धर्मियों में फैले हुए जाति वाद और यहाँ तक की ईश्वरवाद के विरुद्ध भी विद्रोह था. फिर जब आप लिखते हैं की
    ‘रवीन्द्रनाथ, प्रेमचंद या रेणु की कहानियों, उपन्यासों से हमारे गाँवों में जातीय संबंधों की तरह-तरह की तस्वीरें मिलती हैं’तो यहाँ मैं केवल यह बताना चाहूंगा की प्रेमचंद जो ग्रामीण चरित्रों चितेरा समझे जाते थे,उन्होंने जब ‘ठाकुर का कुआं कहानी लिखी थी तो वे कोई काल्पनिक कहानी नहीं लिख रहे थे.उस समय या उससे पहले हालात ज्यादा खराब थे.ब्राह्मणों का शूद्रों की छाया से भी बच कर चलना मुसलमानों या अंग्रेजों की देन नहीं थी.वास्तविकता न होने पर भी अगर तर्क के लिए आपकी बात मान भी ली जाए तो आपलोगों को अपने दोषी न होकर दूसरे को दोष देने में क्यों अच्छा लगता है?अगर आप की संस्कृति की जड़े इतनी ही मजबूत थी और आप इतने ही चरित्रवान थे तो दूसरे के बहकावे में इतनी जल्द कैसे आ गए?तुर्रा यह की आज भी उन कथित धर्मावलम्बियों में छुआछुत नहीं है.
    ऐसे यह सही है की आम हिन्दुओं के घरों में मनु-स्मृति नहीं दिखती,पर उसी तरह वेद या पुराण भी आम हिन्दुओं के घरों में नहीं पाए जाते,पर यह भी उतना ही सत्य है की पुराने जमाने की हमारी सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था मनु-स्मृति पर आधारित थी.आज भी छुआछुत की शिकार पिछड़ी जातियां नहीं हैं.इसकी शिकार केवलअनुसूचित जातियां है,जो उस जमाने में चंडाल कही ज़ाती थी और जिनको गाँव के एक कोने में या गाँव के बाहर बसने पर विवश होना पड़ता था.यह सत्य है की उस समय के लिखे ग्रन्थों के अनुसार भी ब्राह्मण,छत्रिय या वैश्यों में ज्यादा भेद भाव नहीं था पर शुद्र तो एकदम अलग थलग थे.अभी श्रीमद्भागवत गीता या तुलसीदास का रामचरित्र मानस पढ़े हुए बहुत समय गुजर चुका है अतः मैं विश्वास पूर्वक तो नहीं कह सकता पर जहां तक मुझे याद है इस अलगाव का वर्णन वहां भी है.मेरे कहने का सारांश केवल यही है की आज का जातिवाद पहले के जातिवाद से कम है पर यह कोढ़ अभी भी मौजूद है और इसके जिम्मेवार केवल हमलोग हैं.

  13. इतने प्रमाणों के बाद भी कुछ कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि यूरोपीय ईसाईयों द्वारा जातीवाद के विद्वेष की आग भारत में जानबूझकर लगाई गई. अन्यथा भारत में जातियां तो थीं पर जात-पात नहीं थी. विद्वान लेखक को साधुवाद.

  14. नयी जानकारी मिली सर पदके बहुत अच्छा लगा पर इसकी सुरुवात मुसलमानों के हमले के समय हम हिंदुयों ने ये आत्मघाती कदम उठाया था जातिप्रथा की विकृति मुसलमानों और बिटिश कल मैं ही हुई है सही बताया आप ने

  15. उत्तम श्रेणी का लेख! ऐसा ज्ञानवर्धक और तथ्यात्मक लेख केवल शंकर शरण जी ही लिख सकते हैं। सभी पाठकों से मेरा निवेदन है कि जो भी इसे पढ़े, इसका १०-२० प्रिंट निकालकर अपने मित्रों को दे। हिन्दुओं के लिए यह सबसे कठिन समय है। यह सरकार सोनिया गांधी द्वारा तैयार “सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक” लेकर आ गई है। इसके कानून बनते ही पूरे देश में हिन्दू दोयम दर्जे के नागरिक बन जाएंगे। जागो हिन्दू, जागो, वरना मिट जाओगे।

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