व्यंग्य/ एक डिर्स्टब्ड जिन्न

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jinnरात के दस बज चुके तो मैंने चैन की सांस ली कि चलो भगवान की दया से आज कोई पड़ोसी कुछ लेने नहीं आया। भगवान का धन्यवाद कंप्लीट करने ही वाला था कि दरवाजे पर दस्तक हुई, एक बार, दो बार, तीन बार। लो भाई साहब, अपने गांव की कहावत है कि पड़ोसी को याद करो और पड़ोसी हाजिर। खुद को खुद ही गालियां देते हुए दरवाजा खोलने उठा कि यार! ये किस मुहल्ले में आकर बस गया तू? जहां के आदर्श जनों को ये भी शऊर नहीं कि कम से कम मांगने तो टाइम के आ जाना चाहिए। दरवाजा खोला तो पहचानते देर न लगी। सामने जिन्न! हवा निकल गई। बड़ा चौड़ा होकर उठा था कि पड़ोसी को वो झाड़ूंगा! वो झाड़ूंगा कि सात जन्मों तक मांगना भूल जाएगा। पर सामने जिन्न देखा तो बरसों से याद हनुमान चालीसा एकदम भूल गया।

‘नमस्कार सर!’ उसने ऐसे दोनों हाथ जोड़े जैसे चुनाव के दिनों में वोट मांगने वाले जोड़ते हैं।

‘कौन?? अलादीन का जिन्न? मैं मन नही मन खुष हुआ कि चलो अब अपने दिन भी फिरे।’

‘नहीं सर!’

‘तो कौन सा जिन्न? आलू-प्याज जिन्न?’

‘नहीं सर!’ उसने चेहरे पर ऐसी मुस्कराहट बिखेरी जैसी कभी विवाह से पूर्व अपने चेहरे पर हुआ करती थी।

‘तो चीनी-पत्ती जिन्न?’

‘सर नहीं! वह तो आपके पड़ोस वालों के घर डेरा जमाए बैठा है।’

‘सब्जी -भाजी जिन्न?’

‘नहीं सर!’

‘आटा- दाल जिन्न?’

‘नहीं, साहब नहीं!’ कह उसने अपना सिर पीटा। बडी दया आई मुझे यह करते उस पर। जिस देश में जिन्न की यह दषा हो वहां आम आदमी की क्या दशा होगी? पर यहां है ही कौन जो इस बात का अंदाजा लगाए।

‘तो यार अब ये नया जिन्न कहां से आ गया? अच्छा तो मुर्गीदाना जिन्न?’ मैंने जिन्नों के भार तले दबे दिमाग पर थोड़ा और भार डाल करंट जिन्न याद कर पूछा।

‘नहीं।’ अबके वह मुस्कुराया। मेरी हालत पर ही मुस्कराया होगा। अपनी हालत पर तो यहां कोई नहीं मुस्कराता। और वह तो ठहरा जिन्न।

‘तो जिन्ना का जिन्न?’

‘उसे तो सोए हुए फिर बड़े दिन हो गए। वाह! क्या कमाल का जिन्न था! जागा। पार्टी के कई कभी न सोने वाले बंदों को गहरी नींद सुला फिर सो गया।’

‘तो बाबरी मस्जिद का जिन्न?’

‘नहीं।’

‘तो मेरे बाप हो आखिर कौन से जिन्न? क्या ये देश अब जिन्नों के अधीन ही होगा? क्या इस देश पर क्या अब जिन्न ही राज करेंगे?’

‘नहीं भाई साहब! भीतर आने को नहीं कहोगे? ठंड लग रही है। बुरा न मानों तो भीतर चाय का कप भी हो जाए और बात भी। मैं परेशान करने वाला जिन्न नहीं, परेशान हुआ जिन्न हूं।’ कह वह भीतर झांकने लगा।

‘देखो जिन्न साहब ! आप मेरे यहां गलती से आ गए हैं शायद! ये कब्रिस्तान नहीं। बार्ड नंबर 14 का हाउस नंबर 125 है।’ कह मैंने दरवाजा बंद करना चाहा तो उसने दोनों हाथ एकबार फिर जोड़े। बड़े दिनों बाद अपने सामने किसी को हाथ जोड़े देखा तो अपना मन लबालब दया से भर आया घोर सूखे के बावजूद भी। और मैं न चाहते हुए भी उसे भीतर ले गया। जितने को मैं चाय बना कर लाया तब तक वह हीटर सेक काफी चुस्त हो चुका था। जिन्नों के बारे में जो अब तक मेरी राय थी बदलते देर न लगी। मैंने चाय की चुस्की ले चुटकी लेते पूछा, ‘अच्छा तो एक बात बताओ…..’

‘पर ये मत पूछना कि लूटमार कब खत्म होगी। और जो चाहो पूछो।’ कह उसने गहरी सांस ली। लगा बंदा लूटमार का शिकार हो ही ज्यों जिन्न बना हो।

‘ये जिन्न बोतल से बाहर आते कैसे हैं? जबकि बोतल के ढक्कन पर देश के अति जिम्मेदार लोग जमे होते हैं।’

‘अपराधी जेल से बाहर बिना ताला खुले कैसे आते हैं? और ये तो जिन्न हैं जिन्न! आका ने हुक्म दिया तो आ गए। किसी को मरवा गए तो किसीको संजीवनी पिलवा गए। सरकारी फाइलों और सरकारी पाइपों की लीकेज आजतक कोई रोक सका? असल में ये हमारी फाइलों और पाइपों का वंशानुगत मैन्यूफैक्चरिंग डिफेक्ट है। कुछ समझे?’ हालांकि मैं कुछ न समझा था पर अपने को बुद्धिजीवी घोषित करने के लिए मैंने उसके आगे सहज मुंडी हिला दी, ‘तो तुम किस किस्म के जिन्न हो?’

‘मैं तो आपजिओं का सताया जिन्न हूं।’

‘मतलब!!!’

‘आपजिओं ने अब तो कब्रिस्तान को भी हथियाना शुरू कर दिया है। अब वहां रहें तो कहां? तुम्हारे मुहल्ले में कोई कमरा किराए के लिए खाली हो तो… किराए की चिंता नहीं। बस कोई परेशान करने वाला न हो। कमसे कम मरने के बाद कौन चैन से रहना नहीं चाहता?’ मित्रों! पहली बार एक परेशान जिन्न देखा, वरना आज तक संसद और फुटपाथ वालों दोनों को ये जिन्न परेशान करते रहे।

-अशोक गौतम

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अशोक गौतम
जाने-माने साहित्‍यकार व व्‍यंगकार। 24 जून 1961 को हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला की तहसील कसौली के गाँव गाड में जन्म। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से भाषा संकाय में पीएच.डी की उपाधि। देश के सुप्रतिष्ठित दैनिक समाचर-पत्रों,पत्रिकाओं और वेब-पत्रिकाओं निरंतर लेखन। सम्‍पर्क: गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड,नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन, 173212, हिमाचल प्रदेश

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