व्यंग्य/ मैं तो कुतिया बॉस की

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-अशोक गौतम

वे आते ही मेरे गले लग फूट- फूट कर रोने लगे। ऐसे तो कभी लंबे प्रवास से लौट आने के बाद भी मेरी पत्नी जवानी के दिनों में मेरे गले लग कर भी नहीं रोई। हमेशा उसके मन में विरह को देखने के लिए मैं ही विरह में तड़पता रहा। पता नहीं उसमें विरह का भाव रहा भी होगा या नहीं। ये रसवादी तो कहते फिरते हैं कि मनुश्य के मन में सभी भाव मौजूद रहते हैं और अवसर पाकर जाग उठते हैं। पर कम से कम मुझे अपनी पत्नी को लेकर आज तक वैसा तो नहीं लगा। वैसे भी अब हृदय में भावों का अभाव कुछ ज्यादा ही चल रहा है। अब अभाव भी कहां रहने आएं जब किसी के पास हृदय ही न हो। भाव भी कहां रहें जब मन में दूसरे हजारों अभाव पूर्ति होने के बाद भी डेरा जमाए बैठे हों। बाजार के भावों के चलते मन के भाव तो आज मन के किसी कोने में मुर्गा बन कुकड़ू कूं कर रहे हैं। अब तो अपने वे दिन आ गए हैं कि खुद ही खुद के गले लगने का मन भी नहीं करता। गले लग कर दिखावे को ही सही, रोने की बात तो दूर रही।

मैंने उन्हें अपने गले से किनारे कर उनकी जेब से उनका रूमाल निकाल उनके आंसू पोंछने के बाद हद से पार का उनका हमदर्द होते पूछा,’ मित्र कहो! इतने परेशान क्यों? माना आज की जिंदगी भाग दौड़ के सिवाय और कुछ हासिल नहीं। पर कम से कम तुम्हें तो रोना नहीं चाहिए। अच्छी नौकरी में हो। एक क्या, चार – चार बीवियां रख सकते हो, ‘तो वे और भी जोर से रो पड़े मानों वे मेरे नहीं, अपनी मां के गले लग रो रहे हों। आखिर काफी समय के बाद उनका रोना बंद हुआ तो वे सिसकियों की भीड़ के बीच से अपनी जुबान को गुजारते बोले, ‘मेरे प्रभु!बड़े भाई!! मेरे बाप!! बॉस से परेशान हूं। बॉस को नहीं पटा पा रहा हूं। इसलिए बस केवल वेतन से ही गुजारा चला रहा हूं। और आप तो जानते हैं कि आज के दौर में कोरे वतन से कौन खुश हो पाया? बीवी हर चौथे दिन मायके जाने की धमकी देती है। जग जानता है कि बॉस से परेशानी दुनिया की सबसे बड़ी परेशानी होती है। इसी परेशानी के चलते इतिहास गवाह है कि कई आत्महत्या तक कर गए। आज तक किसीको कुछ न बता सका। मन ही मन घुटता रहा। दूर- दूर तक अपना कोई नजर नहीं आ रहा था’ और देखते ही देखते उनमें कबीर की आत्मा पता नहीं कहां से प्रवेश कर गई,’ऐसा कोई नां मिलै जासू कहूं निसंक। जासू हृदय की कही सो फिरि मांडै कंक। आप तो तत्व ज्ञानी है। पहुंचे हुए हैं। बॉस के इतने करीबी रहे हैं जितने बच्चे अपने बाप के निकट भी नहीं होते। पति- पत्नी तो खैर आज निकट हैं ही नहीं। बस इसीलिए सबको छोड़ आपकी शरण में आया मेरे मामू! सच कह रहा हूं कि ऐसा कोई न मिला जो सब बिधि देई बताई। पूरे दफ्तर मैं पुरूशि एक ताहि कैसे रहे ल्यौ लाई। बॉस उस्ताद ढूंढत मैं फिरौं विष्वासी मिलै न कोय। चमचे को चमचा मिलै तब हरामी जनम सफल होय।’और पता नहीं मेरे भीतर उस वक्त कैसे किस कवि की आत्मा आ गई। ये दूसरी बात है कि मेरे भीतर अब मेरी आत्मा भी नहीं रहती। उस आत्मा ने देखते ही देखते मुझे कवि कर दिया। बंधु! ये सच है कि गो धन गज धन बाजि धन और रत्न धन खान। पर बंदा जब पावै बॉस धन तो चढ़यौ परवान। बॉस नाम सब कोऊ कहै पर कहिबै बहुत विचार। सोई नाम पीए कहै सोई कौतिगहार। अंत में यही कहना चाहूंगा बंधु कि बॉस मातियां की माल है पोई कांचै तागि। जतन करो झटका घंणां टूटैगी कहूं लागि। हे नौकरी पेशा आर्यपुत्र! जाओ, मेरे आशीर्वाद से बॉस भक्ति के नए युग में प्रवेश कर नौकरी के संपूर्ण सुखों के अधिकारी बनो। याद रखो! अधीनस्थ जब बॉस के प्रति अपना सब न्यौछावर कर देता है, बॉस के आगे अहंकार षून्य होने का नाटक कर अपनी रीढ़ की हड्डी निकलवा उनके चरणों में से चाहकर भी उठ नहीं पाता तो हर किस्म के बॉस ऐसे बंदे को पा उसे गले लगाने के लिए के लिए दफ्तर के सारे काम छोड़ आतुर रहते हैं। जाओ, मानुस देह का अभिमान तज बॉस का पट्टा गले में डालो और पंचम स्वर में सगर्व अलापो,’मैं तो कुतिया बॉस की एबीसी मेरा नाऊं। गले बॉस की जेवड़ी मन वांछित फल पाऊं।

1 COMMENT

  1. भदेश देशज हिंदी शब्दावली में पिरोये गए मानवीय सरोकारों से युक्त आलेख की भूरी -भूरी प्रशंसा के अलावा और ज्यादा क्या कहूँ …बधाई ..

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