व्यंग्य/पार्टी दफ्तर के बाहर

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पार्टी दफ्तर के बाहर बैठ नीम की कड़वी छांह। एक नेता भीगे नयनों से देख रहा है दल प्रवाह। सामने पार्टी दफ्तर रहा पर अपना वहां कोई नहीं। सबकुछ गया, गया सब कुछ पर आंख फिर भी रोई नहीं। कह रही थी मन की व्यथा छूटी हुई कहानी सी। पार्टी दफ्तर की दीवारें सुनती बन करके अनजानी सी। हारा खिलाड़ी सा वह बैठा करता नया कोई संधान। बरसों जिस दल में रहा आज उसी को हुआ अनजान। दूर दूर तक कोई नहीं जो अपना ले बनाए। अपनी जगह से उखड़ के नेता दांत पूजा न जाए। चिंता कातर मन हो रहा क्या करे कहां को जाए। वह उपेक्षा घोर उपेक्षा क्या पीए, क्या खाए। नेताओं के इतने दल हैं देश में सभी ने चुप्पी साधी। कहीं शरण जो न मिली तो हो जाए बरबादी। चिंता कातर बदन हो रहा दम जिसमें था ओतप्रोत। उसको बाहर का रस्ता दिखा हो रहे अपने ही लोटपोट। किससे कहें वह वेदना जो दी मुलायम ने डटकर। मन कर रहा नया दल बना पुराने दल से नेता कटकर। उनके मन की कर्म वेदना फिल्मी नायिका की कहानी सी। मीडिया अकेला सुन रहा हंस रो के पहचानी सी।

चिंता करते वे जितनी पार्टी के उस अतीत की उस सुख की। नई पार्टी बना अध्यक्ष हो जा मन में उठती ये हूक सी। आह पार्टी के महासचिव तुम असफल हुए आउट हुए। बोरा खुद को रहे मानते पर अब तुम तो पाउच हुए। रे कुर्सी के चमकीले पुतले खत्म तेरे सब जयनाद। कल तक तेरे कहार थे जो तुझे डूबा गए सारे आज। राजनीति में कोई किसीका नहीं मैं भूला था मद में। भोला तो नहीं था पर तिरता था अपनी हेकड़ी के मद में। पार्टी में वह रास रंग स्वपन हुआ या छलना थी। समझ रहा था जिसे सूर्य वह टयूब की कलना थी।

गए दिन जब चलते थे मेरे कहने से मधु निश्‍वास। सुख इतनी जल्दी जाता है नहीं था मुझको ये विश्‍वास। निकलता था जहां से मैं वहीं होती थी जय जय कार। आज जहां भी जाता हूं देख मुझे है हा हा कार। पार्टी दफ्तर में घंटों वह ठहाके हुए विलीन। हर कोई मुझको नचा रहा ले हाथों में टूटी बीन। गई वह चेहरे की लाली मुख से निकले केवल भाप। न जाने कब आए दर्जी लेने अब खद्दर का माप। समाजवादी दल में रहकर केन्द्रीभूत हुआ क्यों इतना। दूध दही में पानी का सघन मिलन हो रहा जितना। सबकुछ थे मुलायम दल के बल वैभव आनंद अपार। किस पार्टी में रही आज तक एक म्यान में दो तलवार। मुलायम रहे मुलायम ही दल जिनके पद तल में विश्रांत। कांपते सदस्य उनकी हुंकार से होकर प्रतिदिन ही अक्रांत। कुछ ज्यादा ही हो गया था मैं भी फिर क्यों न दल से निकाला जाता। भले कट रहे थे दिन अपने पर दल में दूजा क्यों पाला जाता।

गया सभी कुछ गया दिन रात कान फाड़ते सब मल्लहार। बुढापे का वह चिरयौवन मधुप सदृश वह मस्त विहार। दल में रहकर हंसी ठहाके प्रेस कांफ्रेंस हुए विलीन। मौन हुई बहकी तानें आवाज हुई मरी महीन। आह समय था वो भी क्या हिलते थे छाती पर हार। मुखरित था समाजवाद गीतों में और पार्श्‍व में सिपहेसालार।

कुर्सी के साथ जुड़े थे सब मुंह फेरे चले गए। सुनो अमर तुम दल के हाथों एकबार फिर छले गए। अब तो प्रबल थपेड़े नए दल का कुछ पता नहीं। जरा इशारा जो कर दे देख नियति पग बढ़ा वहीं। ये सच है कि जब कोई दल से निकाला जाता। दर दर की ठोकर खाता है कौन कहां कब सुख पाता।

ओ राजनीति की मरू मरीचिका सत्ता मोह के अलस विशाद। तूने किसे रूलाया नहीं मोहभंग जर्जर अवसाद। दल से छिटक बस एक अंधेरा सबसे बड़ा चमचों का अभाव। यही सत्य है अरे अमर! यह दल नहीं था तेरा ठांव।

मीडिया पी रहा शब्दों को अमर की उधर उखड़ी सांस। टकराती है दीन प्रतिध्वनि अब हर दल के आसपास।

एडजेस्ट करावेगी तू कितना हे राजनीति की भूख। नेता नेता है नेता रहेगा नहीं सकेगा कभी वो टूट। दलों से दल दल देश है एडजेस्ट कर ही लूंगा। वक्त मेरा जब आएगा जवाब हरेक को दूंगा।

…….. हे मेरे प्राण! हे दल तुम! कोई तो है ऐसा होता ज्ञान! ले तेरी गोद में बैठ गए मिटे विगत दल से मिली थकान।

-डॉ. अशोक गौतम

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अशोक गौतम
जाने-माने साहित्‍यकार व व्‍यंगकार। 24 जून 1961 को हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला की तहसील कसौली के गाँव गाड में जन्म। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से भाषा संकाय में पीएच.डी की उपाधि। देश के सुप्रतिष्ठित दैनिक समाचर-पत्रों,पत्रिकाओं और वेब-पत्रिकाओं निरंतर लेखन। सम्‍पर्क: गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड,नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन, 173212, हिमाचल प्रदेश

2 COMMENTS

  1. Prasaad ji ki Kamayaani jaise gambhir mahaakaabya ko bhi aadhaar banaa kar itni achhi byanga rachnaa ho sakti hai ,aisa to main soch bhi nahi saktaa tha . Itni sashkta byanga rachnaa ke liye saadhubaad.

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