व्यंग्य/ इक्कीसवीं सदी के लेटेस्ट प्रेम

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-डॉ. अशोक गौतम

वे सज धज कर यों निकले थे कि मानो किसी फैशन शो में भाग लेने जा रहे हों या फिर ससुराल। बूढ़े घोड़े को यों सजे धजे देखा तो कलेजा मुंह को आ गया। बेचारों के कंधे कोट का भार उठाने में पूरी तरह असफल थे इसीलिए वे खुद को ही कोट पर लटकाए चले जा रहे थे। पोपले मुंह पर चिपके होंठों पर अपनी घरवाली चमेली की विवाह के वक्त की लिपस्टिक पोते। रहा न गया तो टाइम पास करने को पूछ लिया, ‘भैया जी! इस कातिलाना अदा में कहां जा रहे हो? क्या मेनका को घायल करने का इरादा है?’मेरे मुंह से मेनका का नाम सुना तो घिसी पिटी उनकी नसों में एक बार फिर सनसनाहट सी हुई।

कुछ कहने के लिए वे कुछ देर तक खांसी को रोकते रहे। जब उनसे खांसी वैसे ही नहीं रूकी जैसे सरकार से महंगाई नहीं रूक रही तो चुटकी भर कफ को कुछ देर तक रूमाल में बंद करने के बाद बोले, ‘समाज कल्याण करने जा रहा हूं।’

‘तो अब तक क्या किया??’

‘समाज को खाता रहा।’एक बात बताइए साहब! ऐसा हमारे समाज में क्यों होता है कि बंदा नौकरी में रहते हुए तो समाज को नोच नोच कर खाता है और रिटायर होने के तुरंत बाद उसके मन में समाज के प्रति कल्याण की भावना कुकरमुत्ते की तरह पनपने लगती है? उसका मन समाज सेवा के लिए तड़पने लगता है। ……पर फिर भी मन को बड़ी राहत महसूस हुई कि चलो जिंदगी में कुछ आज तक मिला हो या न पर एक बंदा तो ऐसा मिला जो सच बोलने की हिम्मत कर पाया। वर्ना यहां तो लोग चिता पर लेटे लेटे भी झूठ बोलना नहीं छोड़ते।

‘तो समाज कल्याण के अंतर्गत क्या करने जा रहे हो? दूसरों की पत्नियों से प्रेम या फिर अपनी बेटी की उम्र की किसी गरीब की बेटी से विवाह।’समाज सेवकों के एजेंडे में बहुधा मैंने दो ही चीजें अधिकतर देखीं।

‘कुछ गोद लेने जा रहा हूं।’कहते हुए बंदे के चेहरे पर कतई भी परेशानी नहीं। उल्टे मैं परेशान हो गया। यार हद हो गई! रिटायरमेंट से पहले तो बंदा रोज पूरे मुहल्ले को परेशान करके रखता ही था पर ये बंदा तो रिटायरमेंट के बाद भी कतई ढीला न पड़ा।

‘इस उम्र में आपके पास गोद नाम की चीज अभी भी बची है??? गोद में मंहगाई को हगाते मूचाते क्या अभी भी मन नहीं भरा?’बंदे की हिम्मत की आप भी दाद दीजिए।

‘तो अनाथ आश्रम जा रहे होंगे?’

‘नहीं!!’कह वे छाती चौड़ा कर मेरे सामने खड़े हो मुसकराते रहे। हालांकि उनके पास छाती नाम की चीज कहीं भी कतई भी नजर न आ रही थी।

‘तो किसी रिश्ते दार का बच्चा गोद लेने जा रहे होंगे?’

‘नहीं। चिड़ियाघर जा रहा हूं।’

‘चिड़ियाघर में आदमी के बच्चे कब से गोद लेने के लिए मिलने लगे?’

‘जबसे अनाथ आश्रमों के बच्चों को अनाथ आश्रम के संरक्षक खा गए। उल्लू गोद लेने जा रहा हूं। सोच रहा हूं जो नौकरी में रहते न कर सका वो अब तो कर ही लूं। नौकरी भर तो औरों की गोद में बैठा रहा।’

‘आदमियों ने बच्चे क्या हमारे देश में पैदा करने बंद कर दिये जो तुम…..’

‘भगवान हमारे देश को बच्चे देना बंद भी कर दे तो भी हम बच्चे पैदा करने न छोड़ें। बच्चे गोद लेना तो पुरानी बात हो गई मियां! अब तो विलायती कुत्ते, उल्लू, गीदड़, मगरमच्छ, गोद लेने का युग है। अपने को रोटी मिले या न मिले, पर विलायती कुत्तों को आयातित बिस्कुट खिलाने में जो परमसुख की प्राप्ति होती है, मुहल्ले में जो रौब दाब बनता है उससे सात पुश्तोंह के चरित्र सुधर जाते हैं। मुहल्ले में दस में से पांच ने कुत्ते गोद ले रखे हैं। मैंने सोचा, जरा लीक से हट कर काम हो तो मरते हुए समाज में नाम हो सो उल्लू गोद लेने की ठान ली।’कह वे मंद मंद कुबड़ाते मुसकराते हुए आगे हो लिए गोया बीस की उम्र में कमेटी के पार्क में प्रेमिका से मिलने जा रहे हों।

‘मियां हो सके तो इंसानियत को गोद लो। हो सके तो प्रेम के असली रूप को गोद लो तो यह छिछोरापन कर परलोक सुधारने का दंभ न करना पड़े।’पर वहां था ही कौन जो मेरी आवाज पर ध्यान देता।

1 COMMENT

  1. व्यंग के माध्यम से सामजिक -आर्थिक विषमता पर कुल्हाड़ी चलाने के लिए ढेरों हैं .
    आपसे कुछ ख़ास उम्मीद कर सकता हूँ …व्यंग को और तेज -धारदार और प्रभावी बनाइये .प्रस्तुत पोस्ट भी ठीक ठाक है

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