कुमार कृष्णन
उडुपी को दक्षिण भारत का मथुरा कहा जाता है। यहां का कृष्ण मंदिर दक्षिण भारत के सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है। यह मंदिर अपने आप में भक्ति के साथ आश्चर्य को समेटे हुए हैं। भगवान श्री कृष्ण का यह मंदिर आस्था का केन्द्र है। यहां मनोकामना पूरी होने पर भक्त सबसे ज्यादा दर्शन के लिए आते हैं। जन्माष्टमी के मौके पर इस मंदिर की सजावट देखते ही बनती है। मंदिर को फूलों, दीपों और रंग-बिरंगी रोशनी से सजाया जाता है, भक्तों को भगवान की एक झलक पाने के लिए घंटों तक इंतजार भी करना पड़ता है।
यहां की पूरी पूजा की प्रार्थना और प्रक्रिया एक चांदी की परत वाली खिड़की से होती है जिसमें नौ छेद होते हैं जिन्हें ‘नवग्रह किटिकी’ कहा जाता है।इन्हीं छोटी-छोटी खिड़कियों से नंदलाल के दर्शन होते हैं। इसे ‘कान्हा की खिड़की ‘ भी कहते हैं।
यह मंदिर अपनी अनूठी परंपराओं और कनकदास की भक्ति की कथा के लिए भी जाना जाता है।13वीं शताब्दी में वैष्णव संत श्री माधवाचार्य द्वारा स्थापित यह मंदिर भक्ति और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। किंवदंती है कि वास्तुकार, विश्वकर्मा ने भगवान कृष्ण की एक मूर्ति बनाई, जिसे बाद में माधवाचार्य ने खोजा। एक दिन जब संत मालपे समुद्र तट पर सुबह की प्रार्थना कर रहे थे, तो उन्हें पता चला कि समुद्र में नौकायन करने वाला एक जहाज खराब मौसम के कारण खतरे में है। तब श्री माधवाचार्य ने अपनी दिव्य शक्तियों से जहाज को डूबने से बचाया और मिट्टी में ढंके हुए कृष्ण की मूर्ति बरामद की। यहां बालकृष्ण की मूर्ति को भगवान कृष्ण की सबसे सुंदर मूर्तियों में से एक माना जाता है। मंदिर की सबसे खास बात है कनकना किंदी या नवग्रह किटिकी, जो एक छोटी खिड़की है। इसके पीछे एक मार्मिक कथा छिपी है।
एक और किंवदंती के अनुसार 16 वीं शताब्दी में, भगवान के एक भक्त कनकदास रहते थे, जो जातीय व्यवस्था के चलते उनके दर्शन से वंचित थे विरोध के संकेत के रूप में, वह मंदिर के पीछे तीव्र भक्ति के साथ प्रार्थना करने लगा। उनकी भक्ति से अभिभूत होकर, भगवान कृष्ण ने दीवार में एक छेद बनाया और उनकी मूर्ति को पूर्व की ओर मुख करके पश्चिम की ओर कर दिया ताकि कनक भगवान की पूजा कर सकें।आज भी भक्त इसी खिड़की से नंदलाल के दर्शन करते हैं। पास ही कनकदास मंडप में उनकी मूर्ति स्थापित है, जो उनकी भक्ति की गाथा को जीवंत रखती है।पास ही कनकदास मंडप में उनकी मूर्ति स्थापित है जो उनकी भक्ति की गाथा को जीवंत रखती है।
उडुपी कृष्ण मंदिर के बारे में यह मान्यता है कि इस मंदिर में भक्त स्वयं फर्श पर प्रसाद परोसने की मांग करते हैं। कहा जाता है कि जिन भक्तों की मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं वह सभी भक्त फर्श पर प्रसाद परोसने की मांग करते हैं और उसे ग्रहण करते हैं। भगवान कृष्ण के इस प्रसाद को प्रसादम या नैवेद्यम कहा जाता है। इसके अलावा अन्य भक्तों को केले पत्ते और बर्तन में ही प्रसाद परोसा जाता है। इस मंदिर के फर्श को काले रंग के काड्डपा पत्थर से बनाया गया है।
इस स्थान का जिक्र महाभारत से जुड़ी पौराणिक कथाओं में भी आता है। इन कथाओं के अनुसार महाभारत के युद्ध में उडुपी के राजा ने निरपेक्ष रहने का फैसला किया था। वे न तो पांडव की तरफ से थे और न ही कौरवों की तरफ से। अपनी रक्षा के लिए उडुपी के राजा ने कृष्ण की आज्ञा से कहा कि कौरवों और पांडवों की इतनी बड़ी सेना को भोजन की जरूरत होगी इसलिए वे दोनों तरफ की सेनाओं को भोजन बनाकर खिलाएंगें। 18 दिन तक चलने वाले इस युद्ध में कभी भी खाना कम नहीं पड़ा। युद्घ के अंत में जब उनसे इसका रहस्य पूछा गया तो उडुपी नरेश ने इसका श्रेय श्री कृष्ण को दिया। उन्होंने बताया कि जब कृष्ण भोजन करते थे तो उनके आहार से उन्हें पता चल जाता है कि कल कितने लोग काल का ग्रास बनने वाले हैं और वे खाना इसी हिसाब से तैयार करवाते थे।
इस मंदिर की कई विशेषताएं हैं, जिनमें से एक उडुपी पर्याय उत्सव भी है जो हर दो साल बाद मनाया जाता है। यह मंदिर के प्रबंधन को आठ मठों (पुट्टीगे, पेजावर, पलिमारु, अदामारु, शिरुर, सोधे, कृष्णपुरा और कनियुरु) के बीच हस्तांतरित करने का प्रतीक है। इस दौरान भगवान कृष्ण की मूर्ति को स्वर्ण रथ और ब्रह्म रथ पर सजाकर झांकी निकाली जाती है।
मंदिर परिसर में गोशाला भी है, जो भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र है। उडुपी संस्कृत शिक्षा का भी प्रमुख केंद्र है, जहां आठ मठों के माध्यम से यह भाषा सिखाई जाती है। पास ही अनंतेश्वर और चंद्रमौलेश्वर मंदिर भी है, जो श्री कृष्ण मंदिर से पुराने हैं। अनंतेश्वर मंदिर वह स्थान है, जहां माधवाचार्य ने आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त की थी।
कर्नाटक पर्यटन विभाग के अनुसार यहां बालकृष्ण की मूर्ति को भगवान कृष्ण की सबसे सुंदर मूर्तियों में से एक माना जाता है।
मंदिर में कई अनूठी परंपराएं हैं। यहां हर दिन सुबह 4 बजकर 30 मिनट से रात 9 बजकर 30 मिनट तक भक्तों के लिए द्वार खुले रहते हैं। मंदिर में अन्न दान की परंपरा भी खास है, जहां हर भक्त को मुफ्त भोजन दिया जाता है।
उडुपी पहुंचना आसान है। यह बेंगलुरु से 400 किमी और मंगलुरु हवाई अड्डे से 60 किमी दूर है। रेल और सड़क मार्ग से उडुपी अच्छी तरह जुड़ा है। मंदिर शहर के केंद्र में हैं और पास में मालपे, कापू बीच और सेंट मैरी द्वीप जैसे पर्यटक स्थल भी हैं।
कुमार कृष्णन