भेड़िनियों द्वारा पालित कमला और अमला की कहानी

अविकसित मानव बच्चों की सच्ची कहानियाॅं (दो)

डा.राधेश्याम द्विवेदी

साहित्य में जंगली बच्चों के अनेक किस्से व कहानियां पढ़ने व देखने को मिलते है। कोई भेड़ियों के बीच रहता है तो कोई बन्दरों के, कोई्र शेर के बच्चों में रहता है तो कोई हिसक पक्षियों के साथ अपना बचपन गुजारता है। कोई लम्बी छलांग लगा लेता है तो कोई पानी को अपना आवास ही बना लेता है और वाहर की हवा की सांसे भी नहीं लेता है। किसी के दांत बहुत तेज पाये गये है तो किसी में और कोई अन्य अमानवीय या दैवी गतिविधियां देखी गयी है।

आगरा के दीना शनीचर की तरह पश्चिम बंगाल के मिदिनापुर जिले में भी कमला व अमला नामक दो बच्चियां ना जाने किस तरह से अपने मां व बाप से बिछुड़कर भेड़िनियों के चंगुल में पहुंच गई थीं। इनकी कहानी भी वहुत प्रसिद्ध तथा विवादास्पद रही है। इन्हें पश्चिम बंगाल के मिदिनापुर जिले में भेड़िये के एक मांद में 1920 ई. में मुक्त कराया गया था । दोनो बहने नहीं थी परन्तु एक दूसरे से काफी घुल मिल गयी थीं। इनमें कमला 8 साल की थी और अमला 18 माह की थी। उन्हे भेड़ियों ने अलग अलग उठाया था। दोनों लड़कियां गोदामूरी गांव के निकट जंगल में एक भेड़िनी की देखरेख में रहती थीं। इन्हें पहले मिदिनापुर में भी देखा गया था।

जंगल में यहां एक खोखला पेड़ था। जिसके सहारे दीमक द्वारा दस फिट ऊंचा मिट्टी एक का टीलानुमा मांद बन गया था। इसी में छिपकर ंभेड़िनी अपने शावकों तथा मानव बच्चियों के साथ रहती थी। इन्हें 9 अक्त्ूाबर 1920 को भेड़िये के मांद से बचाया गया था । इसकी पालन करने वाली भेड़िनी का स्वभाव उदात्त, क्रूर और स्नेह पूर्ण था। जो अपना दूध पिलाकर अपने बच्चे की तरह इसे पालती थी।

मिदिनापुर अनाथालय के प्रभारी रेवरेंड जोसेफ सिंह ने देखा था कि उस भेडिनी के उलझे हुए बाल थे। उसके दो शावक भी थे। काफी प्रयास के बाद इनके कब्जे में दो मानव जीवों को उनके चंगुल से मुक्त कराया जा सका था। ये मानव बच्चे भी ठेठ भेड़ियों जैसी ही हरकतें करते थे। ये हथेलियों व घुटनों के बल से ही चलते थे। वे रात में ज्यादा देखते तथा सक्रिय रहते थे। दिन में उन्हें कम दिखाई देता था। वे कच्चा मांस का भोजन करते थे तथा पका भोजन नहीं करते थे। दोनो लड़कियां मोटी तथा विकसित थी। इनकी सूंघने और सुनने की क्षमता भी ज्यादा रही। तीन एकड़ दूर मांस की गंध का आभास उन्हें हो जाता था। उनके जीभ पर एक तरल पदार्थ रहता था। उनके लाल हांेठ थे तथा जीभ को होंठ के बाहर किये रहती थी। वे गिलहरी की तरह फूरतीली थी। उनसे कोई आगे निकल नहीं सकता था। कच्चा मांस ही खाना पसन्द करती थी। जमीन पर रखे कटोरंे के खाने को वे वाहर खीचकर जानवरों की तरह खाती थी। उनके दांत बहुत तेज थे। रात में अपने भेडिया परिवार को उन्हीं की आवाज में बुलाती थीं। वे मानव की तरह बातें नहीं करती औेर मानव के सारे व्यवहार को त्याग कर रखी थी। उनसे मिलने जुलने पर वे अपना मुह बनाकर गैर रजामन्दी दिखाती थी। गर्मी तथा ठंढी का उन पर असर नहीं पड़ता था। वे एक एक करके मांद से बाहर निकलती है।

इन्हें मुक्त कराने के बाद इन बच्चियों के संरक्षक व अनाथाश्रम के संचालक श्री सिंह ने उन्हें जब पहली बार देंखा तो वह उसे भूत समझ बैठे थे। परन्तु बाद में उन्हें मानव जैसी आकृति तथा जानवर जैसी हलहल दिखाई दे रहा था। उनमें मानवीयता के लक्षण देखे गये थे। उनपर कपड़ा डालने पर वे उसे फाड़ डालती थी। वे मानव जैसे खड़े होकर नही चल पाती थी। सदा हाथ पैर दोनों की सहायता से ही चलती थी। उन्हें मानव संवेदना नहीं पनपी थी और ना ही उनमें मानव के प्रति कोई आकर्षण का भाव ही दिखता था। उनकी आंखें विल्ली की तरह अलौकिक रूप में चमकती थी।

आश्रमके संचालक श्री सिंह व उनकी पत्नी ने मिदिनापुर के अनाथालय में रखकर उसके पुनर्वास के लिए हर संभव प्रयास शुरू कर दिये थे। वे उसे बागवानी जैसे विधि से सुधारने का प्रयास कर रहे थे। सितम्बर 1921 में दोनों बीमार हो गई थीं। छोटी लडकी अमला गुर्दे के संक्रमण के कारण बीमार पडी  और अपनी जान गवां बैठी थी। इसका असर कमला के जीवन पर भी पडा था। वह लम्बे समय तक अमला के शोक में डूबी रहने लगी थी।

अब श्रीमती सिंह का सारा ध्याान कमला पर गया। वह उसे खाना खिलाने ,सहलाने , मालिश करने, हमदर्दी दिखाने तथा उनका विश्वास जीतने का पूरा प्रयास करने लगी। इस पर सभी का ध्यान पूरी तरह से गया था। वह कुछ शब्द बोलना सीख गयी थी। उसके बहुत तेज दांत थे। उसकी आंखो में बिल्ली की तरह एक गहरे नीले रंग की चमक थी। इससे रात में भी वह आसानी से देख लेती थी।

अनाथालय में 5 साल  बिताने के बाद कमला की बुद्धि में परिवर्तन देखा गया। वह कुछ बच्चांे को पहचानने लगी थी। अब वह केवल थाली में खाना खाती थी। वह अपना गिलास दूसरों के बीच में पहचान लेती थी।  वह कुछ कुछ साफ शब्द बोल लेती थी और निरन्तर सीखती जाती थी। कमला की कहानी फैल चुकी थी। उसे अमेरिका के मनावैज्ञानिक सोसायटी में रखने तथा सुधारने के लिए तैयार कर लिया गया था। उसमें न्यूरो डेवलेपमेंन्टल विकार आ गया था। बाद में तपेदिक से 14 नवम्बर 1929 की सुबह ही उसकी मृत्यु हो गयी।

आज के सभ्य समाज में भी भेड़िये देखे जाते हैं। लोग इन्हें या तो उन्हें मार देते हैं या भगा देते हैं। लोग उनके हिंसक बृत्ति पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं। कोई उसके मानवीय या उदार मनोभावों को ना तो जानने का प्रयास करता है और ना ही उसकी संवेदनायें समझने की कोशिस ही करता है। ये कहानी जंगली जानवरों के मानवीय भावनाओं पर भी प्रकाश डालतीे है। यदि हम इनको नुकसान ना पहुंचाये तो ये हमारे लिए नुकसानदायक नहीं होतें है। हमें जंगली जीवों के संरक्षण में सहयोग करना चाहिए।

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