मनोज कुमार
मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ राज्य के राजनीतिक इतिहास में 1 नवम्बर की तारीख बेहद महत्वपूर्ण है। 15 साल पहले इसी तारीख पर मध्यप्रदेश का विभाजन कर नए राज्य छत्तीसगढ़ की बुनियाद रखी गई थी। इस डेढ़ दशक के अंतराल में दोनों राज्यों के समक्ष अनेक किस्म की चुनौतियां आयीं, राजनीतिक उतार-चढ़ाव भी देखे। दोनों राज्यों में डेढ़ दशक से गैर-कांग्रेसी सरकारों का बने रहना तथा राजनीतिक स्थायित्व दोनों राज्यों के विकास की पहचान बनी। मध्यप्रदेश में आरंभ के दो साल अस्थिरता के दिखे जब उमा भारती के बाद बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री का पद गंवाना पड़ा लेकिन शिवराजसिंह चौहान के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद राजनीतिक स्थिरता आयी तो छत्तीसगढ़ में लगातार डॉ. रमनसिंह का मुख्यमंत्री बने रहना रिेकार्ड है। लगातार नक्सली हिंसा से जूझते हुए छत्तीसगढ़ अपनी सुदृढ़ पीडीएस के लिए सुप्रीमकोर्ट की वाहवाही पा रहा है तो लोकसेवा गारंटी योजना तथा लाडली लक्ष्मी योजना पूरे देश के लिए आदर्श योजना साबित हुई है।
अटलविहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने छोटे राज्यों के गठन पर मुहर लगायी थी। इसी फैसले के चलते छत्तीसगढ़ को पृथक राज्य का दर्जा मिला। झाबुआ से बस्तर तक फैला मध्यप्रदेश विभाजन के बाद भौगोलिक रूप से सिमट गया। राजनीतिक हैसियत पर भी आंच आयी। 320 विधानसभा सीटों वाले मध्यप्रदेश के हिस्से में अब 230 विधानसभा सीटें रह गयी थी। 40 लोकसभा सीटें भी घटकर महज 29 रह गई। 90 विधानसभा और 11 लोकसभा सीटों के साथ छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आ गया। इस विभाजन से मध्यप्रदेश को राजस्व का भारी नुकसान उठाना पड़ा। यही नहीं, खनिज, लौह अयस्क, बिजली के साथ ही भारी भरकम वन क्षेत्र विभाजन में मध्यप्रदेश से छिन गया। मध्यप्रदेश बचा रहा तो नक्सली हिंसा से । वहीं विपुल प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न छत्तीसगढ़ के लिए नक्सली हिंसा आज भी चुनौती बना हुआ है।
इन 15 सालों में दोनों राज्यों में राजनीतिक स्थिरता का कायम रहना न केवल राजनीति दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बल्कि मध्यप्रदेश के 60 साल की उम्र में 12 वर्षों से गैर-कांग्रेसी सरकार का स्थायी रहना भी एक बड़ी राजनीतिक घटना है। नये-नवेले छत्तीसगढ़ राज्य के शुरूआती 3 साल कांग्रेस के रहे और इसके बाद के 12 वर्षों से कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में है। मध्यप्रदेश के लिए 12 सालों की गैर-कांग्रेसी सरकार का होना इसलिए भी मायने रखता है क्योंकि पहले भी गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आयीं और आयाराम-गयाराम की भूमिका में रही। एक के बाद एक मुख्यमंत्री बदले जाने के बाद गैर-कांग्रेसी सरकारों के पक्ष में संदेश अच्छा नहीं गया था और कांग्रेस की वापसी हो रही थी। दिग्विजयसिंह लगातार दस साल तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड बनाया तो उनके शासन की नाकामी ही कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का आधार बनी।
2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा ने अविश्वसनीय जीत दर्ज की। यह वह दौर था जब उमा भारती फार्म में थीं। लालकृष्ण आडवाणी की निकट मानी जाने वाली उमा भारती को मध्यप्रदेश में चुनाव की कमान सौंपी गई। दिग्विजय सरकार के खिलाफ आक्रोश तथा उमा भारती के तेवर से मतदाताओं ने सत्ता पलट दिया। मध्यप्रदेश के गठन के बाद यह पहला अवसर था जब किसी गैर कांग्रेसी सरकार को भारी बहुमत हासिल हुआ था। मध्यप्रदेश की यह जीत भाजपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। सत्तापलट महत्वपूर्ण हो चला था लेकिन स्थायित्व पर सवालिया निशान लगा हुआ था। यह सवाल और भी संजीदा तब हो गया जब हुबली में तिरंगा फहराने के मामले में अदालत के आदेश पर उमा भारती को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोडऩा पड़ी। उमा भारती ने जाते-जाते बाबूलाल गौर को अपना उत्तराधिकारी बना गयीं।
रानीतिक प्रेक्षकों की नजर में गौर को अपना उत्तराधिकारी बनाने के उमा भारती के फैसले के बाद उनके और शिवराजसिंह चौहान के बीच दूरी आ गई थी। इस निर्णय से शिवराजसिंह का आहत होना बेवजह नहीं था। कभी उमा भारती, बृजमोहन अग्रवाल और शिवराजसिंह चौहान की तिकड़ी ने मध्यप्रदेश में भाजपा को विस्तार दिया था। लिहाजा मुख्यमंत्री चयन का अधिकार जब उमा भारती को मिला तो शिवराजसिंह के मन में था कि उमाजी उनका ही नाम प्रस्तावित करेंगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अनुशासनप्रिय शिवराज सिंह खामोश रहे लेकिन मन में गांठ पड़ चुकी थी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। खैर, साल बीतते ना बीतते…मुख्यमंत्री की कुर्सी से गौर की विदाई तय हो चुकी थी…इसके साथ ही शिवराजसिंह चौहान को नए मुख्यमंत्री के रूप में चुन लिया गया। उधर भाजपा के भीतर तूफान उठा…। राजनीतिक अस्थिरता को हवा मिलने लगी…।
शिवराजसिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाये जाने से नाराज उमा भारती ने भाजपा को अलविदा कह दिया…। इसके साथ ही एक नए राजनीतिक दल जनशक्ति पार्टी का उदय हुआ…उमा भारती के साथ उनके खास सिपहसलार प्रहलाद पटेल भी साथ हो लिए… 2008 का चुनाव भाजपा के लिए चुनौती था…शिवराजसिंह चौहान ने चुनौती को कामयाबी में बदल दिया। उनके नेतृत्व में भाजपा को अविश्वसनीय जीत मिली। विधानसभा चुनाव में जनशक्ति को आंशिक सफलता मिली तो जरूर इसके साथ ही उमा भारती का जादू खत्म होते दिखने लगा था। उमा भारती भाजपा में अपनी वापसी के लिए लगातार प्रयास करती रहीं लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। उमा भारती की भाजपा में वापसी में बाधा बनने का शिवराजसिंह पर आरोप लगा जिसे नकारा नहीं जा सकता है। आखिरकार 7 सालों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद उमा भारती को भाजपा में सशर्त वापसी मिली। सशर्त वापसी में उमा भारती को मध्यप्रदेश की राजनीति से दूर रहना था। इस तरह उमाजी मध्यप्रदेश की राजनीति से बाहर कर दी गईं और विधानसभा चुनाव उत्तरप्रदेश की चरखारी से लड़ीं और 2014 का लोकसभा चुनाव भी उत्तरप्रदेश के झांसी लोकसभा सीट से जीतीं। इधर 2008 व 2013 का विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीत कर शिवराजसिंह चौहान ने यह बात स्थापित कर दिया कि वे वास्तव में जननायक हैं।
मध्यप्रदेश के राजनीतिक पटल पर दिन-ब-दिन शिवराजसिंह का कद ऊंचा होता जा रहा था। एक तरफ लोकप्रिय जनकल्याणकारी योजनाएं जैसे लोकसेवा गारंटी, लाडली लक्ष्मी योजना, मुख्यमंत्री पंचायत, बेटी बचाओ तथा तीर्थदर्शन से वे आम आदमी के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहचान बना ली तो उनके राजनीतिक कौषल के समक्ष विरोधी घुटने टेकने के लिए मजबूर हो गए। कांग्रेस लगातार हाशिये पर जा रही थी और उनके कई कद्दावर नेता साथ छोडक़र शिवराजसिंह के साथ खड़े थे। जिस तरह और जिस स्तर पर कांग्रेस सहित दूसरे दलों के नेता शिवराजसिंह के साथ आ रहे थे, वह शायद पहले कभी नहीं हुआ। एक चौंकाने वाला वाकया हुआ जब कांग्रेस शिवराजसिंह सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा करने सदन में एकत्र हुई थी। बारी उपनेता प्रतिपक्ष चौधरी राकेश चतुर्वेदी के बोलने की थी लेकिन सदन के भीतर ही अपनी पार्टी कांग्रेस का विरोध करते हुए वे भाजपा से जा मिले। कांग्रेस हक्का-बक्का थी। इसी तरह 2014 के लोकसभा चुनाव में पूर्व आइएएस अधिकारी भगीरथ प्रसाद को कांग्रेस ने टिकट दी थी लेकिन वे इसे ठुकरा कर भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़े। यह वही भगीरथ प्रसाद हैं जिन्हें पूर्व में कांग्रेस की टिकट पर हार मिली थी लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में वे जीत गए। संजय पाठक, उदयराव प्रताप, एवं प्रमुख नाम हैं जिन्होंने बीच में कांग्रेस का साथ छोड़ दिया तो जनशक्ति के प्रहलाद पटेल एवं कुछ विधायक भी भाजपा के साथ हो लिए। दल-बदल और अन्य कारणों के चलते मध्यप्रदेश को 2004 से जून 2015 तक विधानसभा एवं लोकसभा के 20 उपचुनाव का सामना करना पड़ा है। अभी दो और उपचुनाव होना शेष है।
15 साल पहले मध्यप्रदेश से अलग होकर स्वतंत्र राज्य का दर्जा पाने वाले छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री के रूप में अजीतप्रमोद जोगी की ताजपोषी होती है। इस विभाजन के समय मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और इसी सेटअप के साथ छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनी रही। मुख्यमंत्री चयन को लेकर छत्तीसगढ़ कांग्रेस में हंगामा मचा और स्थानीय कद्दावर नेताओं की अनदेखी करते हुए जोगी को मुख्यमंत्री बना दिया गया। 90 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य की पहली सरकार को महज तीन वर्ष का ही समय मिला। नए राज्य में नेतृत्व की मारामारी कांग्रेस में ही नहीं थी बल्कि भाजपा में भी यही आलम था। नेता प्रतिपक्ष के लिए सबसे सषक्त दावेदार बृजमोहन अग्रवाल थे किन्तु उन्हें नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाये जाने पर उनके समर्थकों ने हंगामा मचाया। समर्थकों के बेकाबू हो जाने का खामियाजा बृजमोहन अग्रवाल को भुगतना पड़ा। उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए 6 वर्षों के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। अनुशासित बृजमोहन के लिए यह कार्यवाही एक आघात की तरह थी और इस बात को पार्टी के वरिष्ठ नेता भी जानते थे। लिहाजा थोड़े समय में ही उनके खिलाफ की गई कार्यवाही समाप्त कर दी गई।
2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली और भाजपा ने बहुमत के साथ अपनी विजय यात्रा आरंभ की। भाजपा से मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार थे जिनमें दिलीपसिंह जूदेव एवं रमेश बैस प्रमुख थे। इन दोनों का नाम दरकिनार करते हुए सौम्य डॉ. रमनसिंह को भाजपा हाईकमान ने मुख्यमंत्री का ताज पहनाया। नया राज्य, सीमित संसाधन तथा जनता की असीमित आकांक्षाएं, मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह के लिए बड़ी चुनौती थी। डॉ. रमनसिंह स्थानीय व्यक्ति थे सो छत्तीसगढ़ की नब्ज पहचानते थे। समस्या क्या है और उससे निपटने के रास्ते ढूंढऩा आसान नहीं था तो उनके लिए मुश्किल भी नहीं था। रोजगार के अभाव में पलायन सबसे बड़ी चुनौती थी सो उन्होंने एक रुपये किलो चावल देने की महत्वाकांक्षी योजना का आरंभ किया। साथ में तेल और नमक जैसी जरूरत की दूसरी चीजों को भी रियायती दर पर देना आरंभ किया। अपनी इस योजना को लेकर वे विरोधियों के निशाने पर भी रहे लेकिन पलायन से छत्तीसगढ़ की जनता तौबा करने लगी। अनाज का वितरण में धांधली न हो, इसकी पुख्ता व्यवस्था उन्होंने की और इसका परिणाम यह निकला कि छत्तीसगढ़ के पीडीएस प्रणाली की सुप्रीम कोर्ट ने सराहना की।
डॉ. रमनसिंह के लिए दूसरी बड़ी चुनौती थी नक्सली हिंसा से निपटना। नक्सलियों के खिलाफ आदिवासियों में सरकार के प्रति विश्वास जगाने के लिए 25 पैसे किलो की दर पर नमक वितरण का कार्य किया। आजादी के लगभग 6 दशक बीत जाने के बाद भी बस्तर के आदिवासी नमक के लिए शोषण का शिकार होते रहे हैं। बहुमूल्य चिरौंजी एवं शहद के बदले व्यापारी उन्हें मुठ्ठी भर नमक थमा देते थे। रमन सरकार ने आदिवासियों को इस शोषण से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका निभाई। यही नहीं, बड़ी संख्या में छोटे-छोटे पुलिस में दर्ज प्रकरणों को वापस लेकर सरकार के प्रति विश्वास का भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया। उनके इस प्रयासों में सलवा जुडुम को वह सफलता नहीं मिल पायी और उन्हें सलवा जुडुम अभियान बंद करना पड़ा।
छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा परवान चढ़ रही थी। राजनांदगांव जिले में एसपी सहित अनेक पुलिस जवान नक्सली हिंसा के भेंट चढ़ गए तो झीरम घाटी में नक्सली हिंसा में राज्य के कई कद्दावर कांग्रेसी नेता मारे गए। देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई लेकिन रमन सरकार के प्रयासों को नक्सली नाकाम नहीं कर सके। नक्सलियों ने बस्तर अंचल के स्कूलों को बंद कराकर बच्चों की पढ़ाई प्रभावित करने की कोशिश की तो रमन सरकार ने अनेक योजनाओं के जरिए बच्चों के भविष्य को संवारने की कोशिश की। रमन सरकार के प्रयासों का परिणाम यह रहा कि दक्षता से बच्चों ने अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं में आगे रहे।
महिलाओं, किसानों एवं आदिवासियों के हित में लगातार काम कर रही रमन सरकार के प्रति लोगों में विश्वास कायम हो चुका था। यही कारण है कि 2003, 2008 तथा 2013 के विधानसभा चुनावों के साथ साथ लोकसभा चुनाव में भाजपा को बड़ी जीत मिली। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का भीतरी झगड़ा उन्हें जीतने नहीं दे रहा था। पहली बार 2003 में कांग्रेस की पराजय के बाद हताश पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भाजपा के निर्वाचित विधायकों को खरीदने की कथित कोशिश की। इक्का-दुक्का दल-बदल भी हुआ।
रमन सरकार आम आदमी की सरकार बन गई थी। रमन सरकार राज्य की जनता को रोजगार और बेहतर जिंदगी देने के लिए ही प्रयासरत नहीं थी बल्कि उसकी कोशिश थी कि छत्तीसगढ़ की जीवनषैली, परम्परा एवं संस्कृति को न केवल संरक्षित किया जाए बल्कि उसे विस्तार भी दिया जाए। इस कड़ी में रमन सरकार ने राजिम कुंभ को विधान रूप धार्मिक गुरुओं की सहमति से मान्यता दिलाने का प्रयास किया। आज राजिम कुंभ छत्तीसगढ़ का प्रतिष्ठा आयोजन बन चुका है। यही नहीं, छत्तीसगढ़ की लोकलाओं को भी शीर्ष पर स्थापित कर दिया है।
इस तरह इन 15 सालों में मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में राजनीतिक स्थिरता के साथ गैर-कांग्रेसी सरकारों का बने रहना, राजनीतिक दृष्टि से परिघटना है। भविष्य में दोनों राज्यों की जनता के समक्ष कोई विकल्प नहीं होता है तो शिवराजसिंह एवं रमन सरकार की वापसी पर कोई संषय नहीं होना चाहिए। लगता नहीं कि जो हालात हैं, वह कोई विकल्प दे पाएगी।