कविता

पीड़ा

-बीनू भटनागर-

poem

पीड़ा के खोल कर द्वार,

बहने दो अंसुवन की धार।

धैर्य के जब खुल गये बांध,

पीड़ा ही पीड़ा रैन विहान।

पीड़ा तन की हो या मन की,

सुध ना रहती किसीभी पलकी।

पीड़ा सहने की शक्ति भी,

पीड़ा ही लेकर आती है,

पीड़ा बिना कहे आ जाती,

जाने को है बहुत सताती।

कैसे पीड़ा को अपनाये कोई,

पीडा बहुत सही मैं रोई।

पीड़ा से ध्यान हटे तो कैसे!

पीड़ा जब धनीभूत  हो ऐसे!