सुप्रीम कोर्ट ने दिया विदेशी चंदे की वैधता को जांचने का आदेश

विदेशी राजनीतिक चंदे की वैधता की होगी जांच
प्रमोद भार्गव
राजनीतिक दलों को मिलने वाला विदेशी चंदा एक बार फिर कठघरे में है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस चंदे की वैधता को जांचने के आदेश दिए हैं। दरअसल नरेंद्र मोदी सरकार ने विदेशी चंदा लेने के नियमों में जो बदलाव किए हैं, उन्हें जांच के दायरे में लेते हुए सरकार से जबाव तलब किया है। यह मामला 2016 में बने विदेशी चंदा नियमन कानून और 2018 में उसमें किए गए संशोधन से जुड़ा है। निर्वाचन बांड द्वारा लिया गया विदेशी चंदा भी इस जांच के दायरे में आएगा। इस बार मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, एएम खान वलकर एवं डिवाई चंद्रचूड़ की खंडपीठ ने गृह मंत्रालय को नोटिस जारी किया है। यह मामला जनहित याचिकाओं के परिप्रेक्ष्य में संज्ञान में लिया गया है।
वैसे राजनीतिक चंदा हमारे देश में हमेशा ही सुर्खियों में बना रहकर विवाद के रूप में सामने आता रहा है। इसलिए 1976 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विदेशी चंदा लेने पर पूरी तरह रोक लगा दी थी। यह प्रतिबंध उन कंपनियों से चंदा लेने पर भी था, जिनमें 50 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सेदारी विदेशी धन की थी। 2010 में मनमोहन सिंह सरकार ने इस कानून में संशोधन कर इस रोग को समाप्त कर दिया। यह इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि आर्थिक उदारवादी प्रक्रिया के चलते प्रवासी भारतीय देश की अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका निभा रहे थे। इसी विधेयक में 2016 व 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार ने दो ऐसे संशोधन किए, जिनके जरिए राजनीतिक दलों को विदेशी चंदा लेने की शत प्रतिशत छूट मिल गई। यही नहीं इस छूट को 1976 के बाद के सभी विदेशी चंदों पर लागू कर दिया गया। मसलन जो दल गैर-कानूनी तरीके से विदेशी चंदा लेकर संदेह की स्थिति में थे, वे इस संदेह से मुक्त हो गए। इसी के साथ दलों को निर्वाचन बांड के जरिए चंदा लेने की सुविधा भी दे दी गई।
इन प्रावधानों से स्वस्थ होता है कि केंद्र की राजग सरकार राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के हक में नहीं है। हालांकि राजनीतिक दलों और औद्योगिक घरानों के बीच लेनदेन में पारदर्शिता के नजरिए से 2013 में संप्रग सरकार ने कंपनियों को चुनावी ट्रस्ट बनाने की अनुमति दी थी। ऐसा इसलिए किया गया था, जिससे उद्योगपतियों के नाम किसी दल विशेष के साथ न जोड़े जा सकें। नतीजतन चंद ही दिनों में ऐसे कई ट्रस्ट वजूद में आ गए, जो धर्मार्थ एवं लोक-कल्याण के बहाने दलों को चंदा देने लग गए। इन्हीं में से एक ट्रस्ट में एक ऐसी कंपनी भी थी, जिसका स्वामित्व विदेशी था और इस ट्रस्ट ने लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों को चंदा दिया था। गोया, इस जटिल मामले की वैधता की जांच जरूरी थी। दरअसल एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक राइट्स नाम के एनजीओ ने इन्हीं ट्रस्टों द्वारा दिए चंदे का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए यह सार्वजनिक किया था कि साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में किस दल को कितना चंदा मिला। इस दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों को 2100 करोड़ रुपए का चंदा मिला हैं। इसका 63 प्रतिशत नकदी के रूप में लिया गया। इसके अलावा पिछले 3 लोकसभा चुनावों में भी 44 फीसदी चंदे की धनराशि नकदी के रूप में ली गई। राजनीतिक दल उस 75 फीसदी चंदे का हिसाब देने को तैयार नहीं हैं, जिसे वे अपने खातों में अज्ञात स्रोतों से आया दर्शा रहे हैं। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2014-15 में व्यापारिक घरानों के चुनावी ट्रस्टों से दलों को 177.40 करोड़ रुपए चंदे के रूप में मिले हैं। इनमें सबसे ज्यादा चंदा 111.35 करोड़ भाजपा, 31.6 करोड़ कांग्रेस, एनसीपी 5 करोड़ बीजू जनता दल 6.78 करोड़, आम आदमी पार्टी 3 करोड़, आईएनएलडी 5 करोड़ और अन्य दलों को 14.34 करोड़ रुपए मिले हैं। सुप्रीम कोर्ट ने चंदे की इसी गड़बड़ी की वैधता को जांचने के आदेश दिए हैं। ट्रस्टों द्वारा दिए चंदे और व्यक्तिगत चंदे को आसान बनाने के लिए ही चंदे में बांड की सुविधा दी गई है।

वित्त विधेयक-2017 में प्रावधान है कि कोई व्यक्ति या कंपनी चेक या ई-पेमेंट के जरिए चुनावी बांड खरीद सकता है। ये बियरर चेक के तरह बियरर बांड होंगे। मसलन इन्हें दल या व्यक्ति चैकों की तरह बैंकों से भुना सकते हैं। चूंकि बांड केवल ई-ट्रांसफर या चेक से खरीदें जा सकते हैं, इसलिए खरीदने वाले का पता होगा, लेकिन पाने वाले का नाम गोपनीय रहेगा। अर्थशास्त्रियों ने इसे कालेधन को बढ़ावा देनी वाली पहल बताया था। क्योंकि इस प्रावधान में ऐसा लोच है कि कंपनियां इस बाॅन्ड को राजनीतिक दलों को देकर फिर से किसी अन्य रूप में वापस ले सकती हैं। कंपनी या व्यक्ति बांड खरीदने पर किए गए खर्च को बहीखाते में तो दर्ज करेंगी, लेकिन यह बताने को मजबूर नहीं रहेंगी कि उसने ये बांड किसे दिए हैं। यही नहीं सरकार ने इन संशोधनों के साथ कंपनियों से चंदा देने की सीमा भी समाप्त कर दी थी। बांड के जरिए 20 हजार रूपये से ज्यादा चंदा देने वाली कंपनी या व्यक्ति का नाम भी बताना जरूरी नहीं रह गया है। जबकि इसी सरकार ने कालेधन पर अंकुश लगाने की दृष्टि से राजनीतिक दलों को मिलने वाले नगद चंदे में पारदर्शिता लाने की पहल करते हुए आम बजट में नगद चंदे की सीमा 20000 रुपए से घटाकर 2000 रुपए कर दी थी।
हालांकि केंद्र सरकार ने यह पहल निर्वाचन आयोग की सिफारिश पर की थी। आयोग ने इसके लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन का सुझाव दिया था। फिलहाल दलों को मिलने वाला चंदा आयकर अधिनियम 1961 की धारा 13 (ए) के अंतर्गत आता है। इसके तहत दलों को 20000 रुपए से कम के नगद चंदे का स्रोत बताने की जरूरत नहीं है। इसी झोल का लाभ उठाकर दल बड़ी धनराशि को 20000 रुपए से कम की राशियों में सच्चे-झूठे नामों से बही खातों में दर्ज कर कानून को ठेंगा दिखाते रहे हैं। इस कानून में संशोधन के बाद जरूरत तो यह थी कि दान में मिलने वाली 2000 तक की राशि के दानदाता की पहचान को आधार से जोड़ा जाता, जिससे दानदाता के नाम का खुलासा होता रहता। किंतु ऐसा न करते हुए सरकार ने निर्वाचन बाॅन्ड के जरिए उपरोक्त प्रावधानों पर पानी फेर दिया। मजे की बात यह है कि इन संषोधनों का विरोध किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं किया है। इससे लगता है कि सभी दल हमाम में नंगे हैं। क्योंकि सभी दल उद्योगपतियों से नामी-बेनामी चंदा लेकर ही अपना राजनीतिक सफर तय करके मंजिल पर पहुंचते हैं।
एक मोटे अनुमान के अनुसार देश के लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर 50 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च होते हैं। इस खर्च में बड़ी धनराशि कालाधन और आवारा पूंजी की होती है। जो औद्योगिक घरानों और बड़े व्यापारियों से ली जाती है। आर्थिक उदारवाद के बाद यह बीमारी सभी दलों में पनपी है। इस कारण दलों में जनभागीदारी निरंतर घट रही है। अब किसी भी दल के कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को पार्टी का सदस्य नहीं बनाते हैं। मसलन काॅरपोरेट फंडिंग ने ग्रास रूट फंडिंग का काम खत्म कर दिया है। इस कारण अब तक सभी दलों की कोषिष रही है कि चंदे में अपारदर्शिता बनी रहे। इस वजह से दलों में जहां आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हुआ, वहीं आम आदमी से दूरियां भी बढ़ती चली गईं। नतीजतन लोकसभा और विधानसभाओं में पूंजीपति जनप्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। वर्तमान लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों की घोशित संपत्ति 10 हजार करोड़ रुपए (एक खरब) से अधिक है। चुनाव आयोग के अनुसार वर्तमान लोकसभा के 543 सांसदों में से 350 सांसद करोड़पति और 18 अरबपति हैं। यही कारण है कि ऐसे कानून ज्यादा देखने में आ रहे हैं, जो पूंजीपतियों के हित साधने वाले हैं।
क्षेत्रीय दल भी चंदे में पीछे नहीं हैं। 2004 से 2015 के बीच हुए 71 विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने कुल 3368.06 करोड़ रुपए चंदा लिया है। इसमें 63 फीसदी हिस्सा नकदी के रूप में आया। वहीं, 2004, 2009 और 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों को 1300 करोड़ रुपए चंदे में मिले। इसमें 55 प्रतिषत राषि के स्रोत ज्ञात रहे, जबकि 45 फीसदी राषि नकदी में थी, जिसके स्रोत अज्ञात रहे। 2004 और 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयुक्त को जमा किए चुनावी खर्च विवरण में बताया गया है कि समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज्यादा चंदा मिला है। चंदे के इन आंकड़ों से पता चलता है कि बहती गंगा में सभी दल हाथ धोने में लगे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress