विनोद कुमार सर्वोदय
लोकतांत्रिक प्रणाली को अधिक सार्थक करने के लिये हमारे नीतिनियन्ताओं को राजनीति पर चर्चा को मुख्य विषय बना कर देशवासियों को उनके कर्तव्य के प्रति सजग करना होगा। अन्यथा राजनीति के वर्तमान नकारात्मक स्वरूप से अधिकांश प्रबुद्ध वर्ग धीरे धीरे उदासीन होने को विवश होता जा रहा हैं। जबकि 2014 के चुनावों में अनेक कष्टों के उपरांत उपजी सकारात्मक आशाओं ने इसी वर्ग को सर्वाधिक सक्रिय किया था। यह सपष्ट है कि नकारात्मक दृष्टि कभी भी मंगलकारी नही होती और नकारात्मक दृष्टिकोण धीरे धीरे सकारात्मक सोच को प्रभावित करके समाज में प्रतिकूल वातावरण बना कर उसको भ्रमित करने में सफल हो जाते है । अतः क्षणिक नकारात्मकता से उदासीन न होकर आशावादी बनकर लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सुदृढ़ रखने के लिये राजनीति और चुनावों में सक्रिय होना प्रत्येक देशवासी का एक पवित्र दायित्व है।जब प्रश्न राष्ट्रीय सुरक्षा व उसकी संप्रभुता एवं सांस्कृतिक धरोहर का हो तो कुछ तो संयम रखना ही चाहिये।निसन्देह आचार्य चाणक्य के अनुसार “राजनीति” एक पवित्र व उच्च कार्य है जिससे राष्ट्र सर्वोपरि की भावना व राष्ट्रीय स्वाभिमान की सर्वोच्चता बनी रहे। इसलिये “राजनीति परिचर्चा का मुख्य विषय बने” ऐसा प्रयास करते रहना हम सबका सामूहिक दायित्व है ।
प्रायः राजनीति में कोई भी नेता पूर्णतः न तो स्वयं संतुष्ट हो सकता है और न ही अन्यों को पूर्ण संतुष्ट कर सकता है। यह मानवीय चरित्र का मुख्य लक्षण है, जो सामान्य समाज के अनुरूप ही है। निःसंदेह लोकतंत्र में नेताओं की राजनीति धार्मिक व जातिगत आधार के अतिरिक्त भाषण शैली पर भी आधारित होती है।जिससे उनकी कथनी और करनी में बड़ा अंतर होना उनके अस्पष्ट व ढुलमुल स्वभाव का परिचय कराती है। सामान्यतः अच्छा दिखना सब चाहते है परंतु अच्छा बनना नही। वैसे भी मन की वास्तविकता को छिपाने के लिये अच्छे विचारों की ओट ली जाती है। कुछ विशिष्ट लेखक राजनेताओं के वक्तव्य व भाषण लिखते है जिससे देश की जनता भ्रमित भी होती है। वैसे भी विश्वासघातियों और कृतघ्नों का विशेष वर्ग वर्तमान युग में अधिक तेजी से पनप रहा है। इसीलिए अधिक विवशताओं वश धरातल पर अस्पष्टता बनी रहती है। पूर्वाग्रहों से भरे हुए कुछ बुद्धिजीवियों व राजनेताओं ने देशवासियों को इतना अधिक भ्रमित कर दिया है जिससे सत्य व न्याय की सार्थकता संदेहास्पद होती जा रही है।अनेक अवसरों पर निष्पक्ष न्याय व सत्य के प्रमाण को भी साम्प्रदायिकता का चोला पहना कर राष्ट्रवाद को झुठलाया जाता है। इसीलिए चुनावों में लाभ उठाने के लिए झूठे व निंदनीय शब्दों व वाक्यों का प्रचार अधिक सशक्त होता जा रहा है। लोकतांत्रिक राजनीति में अपने – अपने सिद्धांतों को तिलांजलि देकर चुनावों में केवल विजय प्राप्त करना ही राजनैतिक दलों का एकमात्र लक्ष्य बन गया है। जिससे अल्पकालिक राजनैतिक लाभ दीर्धकाल में राष्ट्रीय समस्याओं के निदान के स्थान पर अनेक प्रकार की समस्याओं का कारण बन जाता है। जबकि राष्ट्रीय एकता व अखंडता के मूल तत्व भारतीय संस्कृति की उपेक्षा होती जा रही है।
वर्तमान परिस्थितियों में भाजपा गठबंधन को 2019 के लोक सभा चुनावों में पुनः विजयी बनाना सभी राष्ट्रवादियों के लिए गंभीर चितन का विषय बन गया है। लेकिन विकल्प के रूप में एकजुट होने वाली विपक्षी दलों को स्वीकारना तो हानिकारक ही होगा है ।क्योंकि पिछले 60-65 वर्षों में जिस प्रकार की राजनीति अन्य राजनैतिक दलों विशेषतः कांग्रेस ने विकसित करी है उससे समाज में धार्मिक, चारित्रिक, नैतिक व राष्ट्रभक्ति का घोर पतन ही हुआ है। यह भी विशेष ध्यान देने योग्य बिंदु है कि प्रदेशीय व क्षेत्रीय दलों में प्रायः राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति कोई रुचि नही होती। वे अपने अभियानों में राष्ट्रीय बिंदुओं पर विचार ही नही करते। क्षेत्रीय दल अपने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों को ही राष्ट्र मान लेते है। कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों में राष्ट्रीय हितों की अवहेलना इस तथ्य का प्रमाण है।विशेषतौर पर शासन-प्रशासन में स्वार्थसिद्धि , सत्तालोलुपता, भ्रष्टाचार आदि की पराकाष्ठा और धार्मिक कट्टरता से उपजी मुस्लिम साम्प्रदायिता ने भारत विरोधी शक्तियों का प्रभाव बढ़ाकर देश की मौलिक संस्कृति पर आघात करके राष्ट्रीय एकता को ललकारा हैं। जिससे राष्ट्रीयता पर जातिवाद, अल्पसंख्यकवाद, क्षेत्रवाद व धर्मनिरपेक्षता आदि का दुष्प्रभाव बढ़ रहा है।
ऐसे ही अनेक कारणों से छल – कपट – झूठ आज समाज को नैतिक व चारित्रिक पतन की ओर ले जा रहा है। भौतिकवाद ने खाओ-पीयो-मौज करो की संस्कृति को विकसित करके समाज व राष्ट्र को अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद व आतंकवादरूपी घनघोर घटाओं से ढक लिया है। परिणामस्वरूप सत्य भूखा है , त्याग दिखावा रह गया तथा समाज सेवा व राजनीति मेवा खाने का माध्यम बन गयी है। जिससे अनेक किंतु-परंतु बिंदुओं ने भारत विरोधी शक्तियों के सशक्त होने से भोगवादी जहरीली विचारधाराओं ने हमारी जड़ें हिला दी है। इससे उत्साहित होकर कुछ कट्टरपंथी ईसाई , मुसलमान एवं वामपंथी आदि हमारे राष्ट्रवादी समाज को शक्तिहीन करना चाहते हैं। हमारा समाज एक घृणित एवं उग्र वैचारिक शीत-युद्ध के निशाने पर है और भयावह भविष्य के प्रति अनभिज्ञ है।ऐसे में सहिष्णुता और उदारता के नाम पर अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह बने रहना कोई आदर्शवादी सोच नही बल्कि आत्मघात का संकेत है। क्या परिस्थितिवश नायकों की आपराधिक तटस्थता से देशवासियों के हितों की रक्षा संभव है? अतः देशवासियों को धर्म व राष्ट्र की रक्षा व भविष्य की पीढ़ियों को सुरक्षित वातावरण देने के लिए जागरूक होना होगा। देश को देशद्रोही व विदेशी शक्तियों के षडयंत्रों से सुरक्षित करने के लिए भाजपा के अतिरिक्त अभी अन्य कोई राजनैतिक दल या गठबंधन सजग नही लगते। कम से कम अभी यह सोचना अनुचित नही लगता की भाजपा राजनीति करते हुए राष्ट्रनीति को आधार न बनाये। इसलिए भाजपा को पुनः 2019 के लोकसभा चुनावों में पूर्व की भांति विजयी बनाना राष्ट्रहित में होगा।
लेकिन 2014 में लोकसभा चुनावों में जीत के बाद से अधिकांश राज्यों के चुनावों में विजयी होने वाली भाजपा अत्यधिक उत्साह में आत्ममुग्धता के कारण धरातल की वास्तविकता से विमुख होकर अपनों की ही उपेक्षा करके उनके भावों का अनादर कर रही है।सामान्य कार्यकर्ता व राष्ट्रवादी समाज भाजपा के प्रति कहीं उदासीन न हो जाय यह भी चिंता का विषय बना हुआ हैं। इसलिए भाजपा व संघ परिवार के उच्च अधिकारियों को गंभीरता से विचार करना होगा और विभिन्न राष्ट्रीय समस्याओं के निवारण के लिये स्वस्थ राजनीति के सशक्त मार्ग अपनाने होंगे।आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में केवल योग्य व सशक्त नेतृत्व ही कुशल राजनीति द्वारा सशक्त राष्ट्र निर्माण के लिये समर्थ हो सकता है ? यह ठीक है कि हमारे मौलिक व मूल अधिकारों की सुरक्षा संविधान के अनुसार शासन का दायित्व है परंतु सत्ता में किसे बैठाना है इसके लिए “राजनीति को परिचर्चा का मुख्य विषय” बना कर व्यापक मंथन करना होगा। जिससे जागरूक समाज चुनावों में अपने यथासंभव योगदान से राष्ट्रहित की सरकार के गठन में निर्णायक भूमिका निभा सकें। जरा विचार करो कि जब भारत भूमि हमारी धर्मभूमि, मातृभूमि, पितृभूमि, व कर्मभूमि है तो यहां उत्तम शासन व्यवस्था स्थापित करना भी तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। विदेशियों, देशद्रोहियों व धर्मांधों के अत्याचारों से अपनी पूण्यभूमि की रक्षा के लिए किया गया योगदान किसी भी तीर्थ व पूजा से अधिक श्रेष्ठ होता है।