
21वीं सदी के अभी दो दशक भी नहीं बीतें कि देश के पूर्व,पश्चिम उत्तर, दक्षिण देश के हर कोने से मांगों की आवाजें कभी मौन जुलूस के रूप में तो कभी आक्रामक हल्ले या फिर धरती कँपाती चीत्कारों के रूप में दिशाओं को बहरा बनाती दिखती हैं। अपनी सधी सी ठहरी सी जिन्दगी में शांति पूर्वक अपनी गृहस्थी को सुस्थिरता देने वाला सरल सा आम नागरिक दिशाओं में काल के इन नगाड़़ों की कान फोडू़ आवाजों से सहम सा जाता है और समझने की कोशिश करता है कि यह सब क्या है? और क्यों है ? तो उसके सामने मांगों की फेहरिस्तों की लंबी- लंबी सूचियों वाली पर्चियाँ लहरा दी जाती है
हाथों में इन कागजों को घूरकर वह सोचने लगा कि क्या मांगने से सब कुछ मिल जाता है ! उसने तो सुना और पढ़ा था कि ’बिन मांगे मोती मिले मांग मिले न भीख’ ! पाठशाला के गुरू जी ने भी समझाया था कि’ मांगने भर से कुछ नहीं मिलता। मांगने से तो हम अपना आत्म सम्मान खो देते हैं और अपनी ही नजरों में गिर जाते हैं। हम जो कुछ चाहते हैं और जैसा चाहते हैं वैसी योग्यता हममें जरूर होनी चाहिए। माना कि मांगने पर आपको कुछ मिल गया तो उसे बनाए रखने वाले सामर्थ्य को तो आपको खुद ही पाना होगा और फिर अपने को उस मुकाम पर पहुँचाना होगा जहाँ हम माँगने वाले नहीं देने वाले बन जाएँ ! कमजोर, दुर्बल और सदा मांगते रहने वाला समाज, समर्थ होने पर ही अपनी तथा दूसरों की नजरों में सम्मान का पात्र बन पाता है। मैंने देखा है मेरे गाँव का छोटी जात का मेरा सहपाठी जब डी.सी. बन कर गाँव के अपने घर आया तो मंदिर के पुजारी ने उसका अभिषेक किया और जमींदार साहब ने उसे अपने घर दावत दी और गाँव के सभी सम्मानित और रसूखदार व्यक्तियों में, उससे हाथ मिलाने की होड़ सी लग गई थी! और तो और मैंने यह भी देखा कि चौधरी साहब का बेटा उससे चपरासी की नौकरी की गुहार लगा रहा था !
मुझे सहसा ध्यान आया कि उस दिन गंदे नाले के पास की बस्ती में कोई चंदन का टीका लगाए युवक कह रहा था कि बाबा साहब ने कहा है, शिक्षित बनो, निडर बनो लक्ष्य प्राप्ति तक आगे बढ़ते रहो। अगर आप शिक्षित हो गए और आपका परिवार शिक्षित हो गया, परन्तु, यदि आपका समाज अशिक्षित रह गया तो आप खुश नहीं रह सकते। आपको निरन्तर प्रयास करना है तब तक, जब तक कि समाज और राष्ट्र का अंतिम व्यक्ति भी शिक्षित, समझदार और विवेकवान नहीं हो जाता।
सामने मेरी बेटी पूरे मनोयोग से कापी में गणित के सवाल में उलझी दिख रही थी और मैं सोच रहा था सच ही शिक्षा ही वह हथियार है जो सभी प्रकार के बंधनों को काट सकता है। शिक्षा का प्रकाश होते ही रस्सी की असलियत सामने आ जाती है और अज्ञान का साँप गुम हो जाता ह। डॉ.अम्बेडकर ने भी तो उच्च शिक्षा पा करके ही तो अज्ञान के साँप की सच्चाई को पहचाना और कुछ समय तक आरक्षण के प्रावधान को रखते हुए समाज के इस वर्ग विशेष को अपनी योग्यता, क्षमता और सामर्थ्य अर्जित करने का अवसर जुट पाया था। मेरी समझ को आश्वासन तो मिला पर ये जो आवाजें दिन पर दिन कर्कश-बिसुरी और भाड़े सी होती जा रही है क्यो? क्यों सड़कों पर तोड़- फोड़, ऊधम और धमाचैकड़ी मचाई जा रही है? पता चला सबको नौकरी चाहिए वो भी सरकारी! क्यों ?
अब से कोई पचास-साठ बरस पहले की बात है अपने खेत में लहलहाती फसल को देख कर, हमारे बाबा जी मूंछों पर बल देते हम नौजवानों के नौकरी पेशा होने पर फब्ती कसते थे-’उत्तम खेती मध्यम बाण 1⁄4वाणिज्य-व्यापार1⁄2 । नीच चाकरी कूकर निदान।’ और हम सिर झुकाये कनखियों से एक दूसरे को देखते रह जाते थे। पहले तो भूमि पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों का एकाधिकार जैसा ही था और व्यापार भी मुख्य रूप से कृषि उत्पादों पर आधारित था। इन तीनों की सहायता श्रमिक वर्ग करता था, पर भौतिकतावादी सोच के चलते ये तीनों ने अपने स्वार्थी नजरिए के कारण श्रमिकों को उचित सम्मान नहीं दिया। यहीं से असंतोष की आवाज उठी। समय और राजनीति ने करवट बदली और स्थापित मान्यताओं में जबरदस्त बदलाव आया। औद्योगीकरण, मशीनीकरण और शहरीकरण ने खेतीहर श्रमिकों और छोटे किसानों को बेरोजगारी के हाशिए पर धकेल दिया ,यही नहीं शिक्षा के प्रसार से जो नया शिक्षित वर्ग उभरा उसने कृषि कर्म के स्थान पर सफेदपोश नौकरी को स्वीकारा और खेती जमीन पर कंकरीट के जंगल उगा दिए। परिणाम यह हुआ कि भारत का उत्तम खेती वाला गर्वीला मानक पलट गया अब नौकरी सबसे उत्तम बन गई, कृषि सबसे नीचे आ गई और अब मेरी समझ में नौकरी को लेकर होने वाली इस चीख-पुकार और मांगों के शोर का फंडा आ गया। आज की हमारी पीढ़ी में न श्रम करने की मानसिकता है और न जोखिम उठाने का साहस। वह तो बिना मेहनत जल्दी से जल्दी सत्ता, प्रभुता और ऐश्वर्य ,सभी कुछ, पाना चाहती हैं!
आज स्थिति यह हो गई है कि मांगों के इस शोर और तोड़- फोड़ की जुगाड़ से पद हथियाने की नीति से स्थिति यह आ गई है कि से अपने श्रम और कौशल को बरबाद होने से बचाने के लिए देश की अव्वल दर्जे की प्रतिभा पलायन कर रही है। अपने कर्म की सार्थकता को हासिल करने विदेश की ओर चल दी। इससे दूसरे देशों की समृद्धि और प्रगति में तेजी आई। उनकी प्रतिभा, क्षमता और कौशल की भागीदारी का सुफल देश को नहीं मिल पाया! अव्वल दर्जे के बाद की इसके बाद की प्रतिभा-क्षमता ने अपने व्यवसाय और धंधे को जमा लिए और शेष सरकारी नौकरियों के लिए मारामारी में उलझ गए! चिंता होती है कि प्रतिभा ,कुशलता और योग्यता की दौड से घबराते ये कब तक मांगों की चीख-पुकार या अराजकता फैलाकर अपना हित साधने की जुगत भिड़ाते रहेंगे।
मुझे फिर अपने गाँव वाले बाबा जी की घुड़की याद आ गईं। हम चार भाईयों में से सबसे छोटा सबसे कमजोर था उसका मन कच्चा और पैरों पर खड़े होने की ताकत नहीं थी तो बाबा उसे कंधे पर उठाए- उठाए फिरते थे। सब चीजों में उसका हिस्सा हमेशा सुरक्षित रखा जाता था और हमनें कभी इस पर एतराज जताया या उन सुविधाओं की मांग की तो बाबा जी का प्रवचन शुरू हो जाता,’ बैसाखियों पर चलोगे। अरे इसको भी जमीन पर खड़ा कर दूँगा, जब तक बैसाखी नहीं हटेगी यह घिसटता रहेगा कभी दौड ़ नहीं पाएगाा, जरा इसके तन-मन में ताकत आने दो, जरा तुम् हारे बराबर का हो जाने दो फिर थोड़े इसे कांधे पर लादूँगा और मुझे बेसाख्ता बाबा साहेब अंबेडकर की आवाज सुनाई दी । उन्होने भी तो इसी तरह की बात कही थी। जब विश्व के सबसे बडे गणतंत्र की नींव रखी जा रही थी तब डॉ.भीम राव अंबेडकर ने जो संविधान रचा वह स्वतंत्र भारत की पहचान था। उन्होंन स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि दलित शब्द संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल अनुसूचित जातियां और जन जातियों के पर्याय के रूप में ही शामिल किया गया है। बाबा साहेब ने समाज व्यवस्था का नया विधान रचा। इस संविधान में अनुसूचित जातियों और जन जातियों का उल्लेख है और दलित शब्द उनका पर्याय भर है। इसी प्रकार भारत की प्रचीन समाज व्यवस्था में भी दलित का जाति सूचक उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत संकलन के अनेक आलेखों में दलित शब्द का विवेचन हो चुका है यहाँ उसकी पुनरावृति करने की आवश्यकता नहीं हैं। भारत की प्राचीन वर्ण व्यवस्था वैसी ही थी जैसी किसी भी प्रशासनिक या व्यावसायिक कार्य को करने के लिए की जाती तात्पर्य यही कि आवश्यक विभागों की संरचना और तदनुरूप पदों का विधान आदि।
5 भारतीय समाज हजारों साल पुराना समाज है। हजारों बरस पहले इसने प्रकृति के संसाधनों के महत्व को समझ लिया था और अपने समाज और प्रकृति में संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने के उदेश्य से कर्म और श्रम की व्यवस्था की थी। इस व्यवस्था को सब का बताने-समझाने की दृष्टि से एक रूपक बाँधा था। मनुष्य का स्वभाव है कि उसे सबसे ज्यादा प्यार अपने रूप-स्वरूप से ही होता है। मानव मनोविज्ञान के इस रहस्य को समझते हुए तब के विद्वान चिन्तकों ने समाज की व्यवस्था और प्रगति के प्रति सबको जागरूक बनाने के इरादे से एक रूपक रचा। समाज रूपी देह में व्यक्तियों का वर्गीकरण किया । जो मन से शुद्ध, वाणी से सत्य और कल्याण बोलने वाला ,बुद्धि से विवेकपूर्ण ,चिन्तन, मनन और अध्ययन में रूचि रखता है वह समाज रूपी मानव का मुख्य है। जिसकी भुजाओं में बल है और मन में सब के प्रति संरक्षण का भाव है और जो सब को विपत्तियों से बचाने का भाव रखता है उसे इस समाज रूपी देह की भुजा बताया। इसी प्रकार जो संसाधनों का समाज हित में प्रयोग करता है और भविष्य के लिए आवश्यक संसाधनों को बहु आयामी बना कर उन्हें भविष्य की निवेश की निधि बना कर रखते हैं। ऐसा कर वे अपने तथा व्यापक समाज के भरण, पोषण और संवर्धन की सामग्री जुटाता है। उसे समाज का उदर यानी पेट बताया और जो मेहनत के काम करता हुआ इस मानव देह को गति, और सिर ऊँचा कर गतिशील बने रहने का आधार देता है वह वर्ग समाज की देह के वे चरण कहलाए। ये चरण ही हैं जिन पर समाज का रूप, इठलाता, संवरता अपनी सशक्त पहचान स्थापित करता हैं। यह सब उदाहरण दे कर समझाने के लिए होने वाला उपक्रम था। अपने स्वरूप में यह समाज व्यवस्था श्रेष्ठ ओर कल्याणकारी थी फिर इसमें जितनी जकडन आई उसके अनेक कारणों का विवेचन करना केवल उन तथ्यों को दोहराना मात्र होगा।
6 हम साधारण प्राणी तो बस यह समझते हैं कि अगर हम अच्छा काम करते हैं तो समाज हमारे गले में फूलों की माला डालता है और कुकर्म करने वाले के गले में जूतो का हार डालता है। हमारे आज की समस्या यह है कि सब के हाथों में जूतों की माला है और वे उनके लिए कंठ तलाशते चिल्ला रहते हैं। जब तक ये कुछ जरूरत से ज्यादा चतुर अपनी रोटियाँ सेंकने के लिए हमें लकड़ियों की तरह आग में झोंकते रहेंग और अपनी सुविधा का पकवान पकाते रहेंगे। यकीन मानिए इस तरह से जो पकेगा वो हमारे-आपके लिए नहीं, केवल और केवल उनके अपने लिए हैं। ऐसा नहीं कि किसी भी समस्या का कोई समाधान नहीं! वे तो समस्या को अपना मुद्दा ही बनाए रखेंगे। अब सोचना और तय हमें ही करना है कि हम कब तक लकड़ी बने उनके मुद्दे को ईंधन देते रहेंगे !
हम जानते हैं कि किसी भी समस्या का समाधन पलक झपकते नहीं होता आवश्यकता है विश्वास के एक ऐसे पुल के निर्माण की है जो दोनों छोरों में नाता जोडे़। संकल्प करें कि हमें अपने आप को और अपने राष्टं के विकास ,समृद्धि और सम्मान के लिए एक जुट हो कर इस कलह की लकड़ी नहीं बनाना है! ! आईए इन भड़ास के भड़कते बगूलों को अपने प्रेम के शीतल फुहारों से शांत कर दें! ऊँ शाँतिः शाँतिः
सतीश कुमार
इंद्रप्रस्थ अध्ययन केन्द्र।