वीरेन्द्र सिंह परिहार
स्वामी विवेकानन्द उस समय अमेरिका और यूरोपियन देशों में हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की ध्वजा फहराकर और भारतवर्ष का दौरा करके कलकत्ता वापस आए ही थे, और अपने देशी-विदेशी सहकारियों के साथ बेलूड़ में रामकृष्ण परमहंस मठ की योजना में संलग्न थे। इन्ही दिनों कलकत्ता नगर में महामारी प्लेग का प्रकोप फैला। प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्तियों पर उसका आक्रमण होने लगा। जनसामान्य पर आई इस घोर विपत्ति को देखकर स्वामी जी मठ-स्थापना का कार्य छोड़कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़ें और बीमारों की चिकित्सा तथा सफाई की एक बड़ी योजना बना डाली। सहयोगियों ने जब पूछा कि इतनी बड़ी योजना के लिए धन कहां से आएगा तो स्वामी जी ने उत्तर दिया-आवश्यकता पड़ेगी तो इस मठ के लिए जो जमीन खरीदी है, उसे बंेच डालेंगे। सच्चा मठ तो सेवा कार्य ही है।हमें तो सदैव सन्यासियों के नियमानुसार भिक्षा माॅगकर खाने तथा पेड़ के नीचे निवास करने को तैयार रहना चाहिए।
सेवा-व्रत को इतना उच्च स्थान देने वाले स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था। उनके जन्म के समय से ही तीव्र गति से अंग्रेजी राज्य और ईसाई संस्कृति का प्रसार हो रहा था। देश के पढ़े-लिखे और उच्च- तबके का विश्वास स्वतः ही अपने धर्म और संस्कृति से उठ गया था। ऐसा लगने लगा था कि ईसाईयत और अंग्रेजी सभ्यता हमारी पूरी विरासत को निगल जाने को तत्पर है। उस अवसर पर विवेकानन्द ने हिदुत्व की मात्र रक्षा ही नहीं कि बल्कि संसार में उसकी विजय-पताका भी फहराई। विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्र था। ब्रह्मसमाज ने उस समय हिन्दू धर्म की बहुत सी मान्यताओं जैसे मूर्ति-पूजा, अवतारवाद, सती-प्रथा, बाल-विवाह आदि के विरूद्ध आन्दोलन खड़ा किया था। इसमें स्त्री-शिक्षा, जातियों की समानता आदि का समावेश था। जिसमें प्रभावित होकर विवेकानन्द भी बचपन से ही ब्रह्मसमाज के कार्यक्रमों में जाने लगे थे। एक दिन उन्होंने ब्रह्म समाज के अध्यक्ष महषि देवेन्द्रनाथ ठाकुर से प्रश्न किया-महाशय आपने ब्रह्म को देखा है? पर वह कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके। एक कार्यक्रम में एक दिन नरेन्द्र की भेट रामकृष्ण परमहंस से हो गई। परमहंस जी नरेन्द्र को देखकर एकाएक उनकी ओर आकर्षित हो गए और एक दिन उन्होंने उन्हे दक्षिणेश्वर आने को कहा। दक्षिणेश्वर जाने पर नरेन्द्र ने श्री रामकृष्ण से भी वहीं प्रश्न किया कि ‘‘क्या आपने ईश्वर को देखा है’’ उन्होंने कहा-हाॅँ देखा हैं जिस प्रकार मै तुम सबको देखता हूॅँ और तुम्हारे साथ बात करता हूॅँ, उसकी प्रकार ईश्वर को भी देखा जा सकता है, और उसके साथ बातें की जा सकती है। उन्होंने कहा कि यदि मनुष्य उसी पं्रकार व्याकुल हो जाए जैसे स्त्री-पुत्र आदि के लिए हो जाता हेै, तो वह अवश्य ईश्वर के दर्शन कर सकेगा। इसके पश्चात् नरेन्द्र का संपर्क परमहंस देव से क्रमशः बढ़ता ही गया और इससे आध्यात्मिक क्षेत्र मंे उनकी प्रगति होती गई। एक बार श्री परमकृष्ण ने नरेन्द्र को अपनी कठोर तपस्या से प्राप्त सभी सिद्धिया सौंपनी चाही। पर नरेन्द्र ने कहा कि अत्यन्त चमत्कारिक विभूतियों और सिद्धियों को अगर अभी से लेकर ईश्वर-प्राप्ति के ध्येय को भुला दिया जाए ओैर स्वार्थ की प्रेरणा से उनका अनुचित प्रयोग किया जाए, तो यही बड़ी हानिकर बात होगी। 1884 में नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ दत्त का देहान्त हो गया और पारिवारिक झगड़ों के कारण नरेन्द्र के घर की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सोचनीय हो गई। किसी दिन तो घर में चूल्हा भी नहीं जल पाता था। नरेन्द्र ने गुरूदेव के सम्मुख समस्या रखी और उनसे इस समस्या के समाधान के लिए काली-माता के सम्मुख प्रार्थना करने का आग्रह किया। श्री रामकृष्ण ने इस पर कहा तू ही माॅ से क्यों नहीं कहता?परमहंस देव के समझाने पर नरेन्द्र मंदिर के भीतर पंहुचने पर वहां जाकर वह माॅँ से विवेक, वैराग्य और भक्ति मांगने लगे, श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्र को कई बार काली-माता के पास भेजा, पर वह परिवार के निर्वाह के लिए कुछ न मांगकर, विवेक, वैराग्य और भक्ति ही मांगते रहे।
कुछ समय पश्चात् परमहंस देव का स्वास्थ्य अधिक बोलने के कारण बिगड़ गया और नरेन्द्र ने तब घर-बार त्यागकर उनकी सेवा का पूरा भार अपने ऊपर ले लिया। 16 अगस्त 1886 को परमहंस देव का देहांत होने पर उनके समस्त शिष्यों और आश्रम की व्यवस्था का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। उन्होेने कुछ गृहस्थ भक्तों की सहायता से एक खण्डहर जैसा मकान किराए पर लिया और पाॅंच-सात नवयुवक वहीं रहकर आत्म-साधना में संलग्न रहने लगे। सूखे भात,नमक और बेलपत्र पर इन लोगो ने महीनों तक निर्वाह किया।
सन् 1888 में स्वामी जी (नरेन्द्र) देश भ्रमण के लिए निकले। उस समय उन्होने अपने पास एक भी पैसा न लिया और न किसी तरह की सामग्री। इस यात्रा में स्वामी जी को बड़ें अनुभव हुए और उन्होेने विभिन्न भारतीय वर्गो की अच्छी जानकारी प्राप्त की। अलवर, खेतड़ी (राजस्थान), लिम्बडी (गुजरात) और मैसूर में होते हुए वे रामेश्वर होकर कन्याकुमारी पहंुचे। वहांॅ उन्होने समुद्र के बीच निकली एक बड़ी चट्टान को देखा। दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में स्वामी जी तैरकर वहां पहुंचे और शिला में बेैठकर तीन दिन और रात अपने देश की वर्तमान दशा पर विचार करते रहे। अंत में उनके मुख से स्वतः ही ये उद्गार निकले-‘‘हम लाखों साधु, सन्यासी लोगों के लिए क्या कर रहे हैं, अध्यात्म का उपदेश।’’ पर यह तो पागलपन है। भगवान श्री रामकृष्ण ने ठीक कहा था कि भूखे मरते हुए को धर्म का उपदेश व्यर्थ है। इसलिए पहले देशवासियों की आर्थिक व्यवस्था सुधारने के लिए वैसी ही शिक्षा देनी चाहिए, इसके बाद वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा लंेगे। पर इस काम के लिए पहले तो कार्यकर्ता चाहिए और फिर धन की आवश्यकता है। पैंसों के लिए इस कंगाल देश में किसी के पास न जाकर समुद्र -पार पश्चिमी देशों में जाऊगा। इसी अवसर पर मद्रास में उनको यह सूचना मिली की अमरीका के शिकांगों नगर में एक सर्व धर्म-सभा होने वाली हेै, और उसमें अभी तक सनातन हिन्दू धर्म की ओर से कोई प्रतिनिधि नहीं गया है। अमेरिका जाने हेतु आवश्यक धन बगैरह की व्यवस्था खेतड़ी नरेश जगत ंिसंह ने किया। इतना ही नही विवेकानन्द नाम भी उन्होने ही प्रस्तावित किया। 31 मई को स्वामी जी मुम्बई के बंदरगाह पर अमरीका जाने वाले जहाज में सवार हो गए।
सन् 1893 की 11सितम्बर को सर्वधर्म-सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। स्वामी जी ने ‘‘लेडीज एण्ड जैंिटलमेैन’’ की जगह ‘भाईयों’ और ‘बहिनों’ शब्द का संबोधन किया , जिसमें कई मिनट तक तालियों की गडगड़ाहट सुनाई देती रही। इस अवसर पर स्वामी जी ने अपने प्रवचन में कहा-‘‘मुझे यह कहते हुए गर्व है, कि जिस धर्म का मै अनुयायी हूॅ, उसने जगत को उदारता और प्राणी मात्र को अपना समझने की भावना दिखलाई है। इतना ही नहीं हमं सब धर्मो को सच्चा मानते है, और हमारे पूर्वजों ने प्राचीन काल में भी प्रत्येक अन्याय-पीड़ित को आश्रय दिया है। जब रोमन साम्राज्य के जुल्मों से यहूदियों का नाश हुआ और बचे-कुचे लोग दक्षिण भारत में पहुंचे तो उनके साथ पूर्ण सहानुभूति का व्यवहार किया गया। इसी प्रकार ईरान के पारसियों को भी आश्रय दिया गया। मै छोटेपन से नित्य कुछ श्लोको का पाठ करता हूॅँ। उनमे ंकहा गया है- ‘‘जिस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानों में उत्पन्न नदियाॅँ अंत में एक ही समुद्र में इकट्ठी होती हैं, उसकी प्रकार हे प्रभु! मनुष्य अपनी भिन्न-भिन्न प्रकृति के अनुकूल पृथक-पृथक जान पड़ने वाले मार्गो से अंत में तेरे ही पास पहुंचते हैं।’’गीताकार न कहा है-‘‘लोग जिन भिन्न-भिन्न मार्गो से अग्रसर होने का प्रयत्न्न कर रहे है, वे सब रास्ते अंत में मुझमें ही मिल जाते है।’’ स्वामी जी ने कहा- पंथ संबंधी द्वेष, धर्मांधता ओैर इनसे उत्पन्न क्रूरतापूर्ण पागलपन-ये सब इस सुंदर धरती को चिरकाल से नष्ट कर रहे है। इन बातों से पृथ्वी पर तरह-तरह के अत्याचार कराए है, बार-बार भूमि को मानव रक्त से सिंचित किया है। संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट किया है, और सब लोगों को निराशा की खाई में धकेल दिया है।
अपने संक्षिप्त भाषण में हिन्दू-धर्म की निहित विश्वव्यापी एकता के तत्व और उसकी विशालता का परिचय करा देने से समस्त सभा स्वामी जी पर मोहित जैसी हो गई और उनकी प्रशंसा में जय-जयकार करने लगी। इसके एक सप्ताह बाद स्वामी जी ने अपना हिन्दू-धर्म नाम का निबंध धर्म -सभा के सामने पढ़ा,जो कुछ ही समय में संसार में प्रसिद्ध हो गयां ।इसके आरंभ में उन्होने अद्धैत सिद्धांत का वह रहस्य बतलाया, जहांॅ आधुनिक विज्ञान क्रमशः पंहुचता जा रहा है। इसके पश्चात् उन्होने अनेक देवी-देवताओं की उपासना और मूर्ति पूजा का औचित्य भी साबित किया। स्वामी जी इन आंरभिक भाषणों ने ही उनकी श्रेष्ठता की छाप समस्त धर्मो की अधिकांश प्रतिनिधियों और अमरीकन श्रोताओं के ऊपर लगा दी। संसार भर के और विशेषतः अमेरिका के प्रमुख पत्रों में उनकी प्रशंसा में कालम रंगें जाने लगे। अमरीका में सर्वाधिक प्रचारित ‘न्यूयार्क हेराल्ड’ ने लिखा – ’’शिकागों धर्म सभा में विवेकानन्द ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है।उनका भाषण सुनकर ऐसा लगता है कि ऐसे उच्च श्रेणी के देश (अर्थात भारत ) में ईसाई धर्म प्रचारकों को भेजना बिल्कुल मूर्खता है। ’’ ‘दि प्रिंस आॅफ अमरीका’ ने टिप्पणी की-स्वामी विवेकानन्द धर्म – सभा में उपस्थित सभासदों में अग्रगण्य है। उन्होने सम्पूर्ण मण्डली को मानो सम्मोहिनी शक्ति द्वारा मुग्ध कर रखा था। वहाॅ पर प्रत्येक ईसाई चर्च के प्रतिनिधिगण उपस्थित थे, पर स्वामी जी के भाषणेां की आंधी में उनके वक्तव्य न जाने कहाॅं उड़ गए। सत्र सम्पाति पर वैज्ञानिक सत्र के सभापति श्री मरविन-मेरी स्नैल ने लिखा है-’’कुछ भी हो, हिन्दुुत्व के सबसे बड़े महत्वपूर्ण और अनूठे प्रतिनिधि तो स्वामी विवेकानन्द थे जो वास्तव में, सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रभावशाली व्यक्ति थे । अमेरिका उन्हे यहाॅ भेजने के लिए भारत का कृतज्ञ है और प्रार्थना करता है कि ऐसी और विभूतियाॅ भेजे ।
इस प्रकार स्वामी जी ने धर्म-सभा के 17 दिन के अधिवेशन में हिन्दू धर्म की वह सेवा कर दिखाई, जिसको हजारों तथाकथित धर्म के ठेकेदार पूरे जीवन भर नहीं कर सके थे। उस समय ईसाईयत के हमले के चलते हिन्दू धर्म की नींव हिलने लगी थी, पर स्वामी विवेकानन्द ने ईसाई धर्म प्रचारको के भीतर घुसकर उनके ऊॅचें महल के ऊपर हिन्दू-धर्म का पताका लहरा दी। इससे भारतीय शिक्षित-जनों की आॅखें भी खुल गई और उनकी समझ में आ गया कि हम विदेशियों के भुलावें में पड़कर व्यर्थ ही अपने श्रेष्ठ धर्म से विमुख हो रहे थे। वस्तुतः लोगों का मानस इस तरह से बदलना स्वामी जी की ऐसी सफलता थी, जिसके लिए देश सदैव उनका ऋणी रहेगा। अंत में 27 सितम्बर को स्वामी जी ने धर्म-सभा के अंतिम अधिवेशन में घोंषणा की-संघर्ष नहीं वरन् पारस्परिक सहयोग, विध्वंस नहीं वरन् एकता, विरोध नहीं वरन् समन्वय और शांति।’’
धर्म-सभा का अधिवेशन समाप्त होने पर विवेकानन्द धर्म की नवीन व्याख्या करने वाले पैगम्बर के रूप में जगत विख्यात हो गये। बडे़-बड़े धनकुबेर उन्हे अपने महलों में रहने का निमंत्रण देने लगे। स्वामी जी एक भक्त के विशेष आग्रह से उसके मकान पर जाकर ठहर गए। पर राजाओं जैसे ठाठ-बाट वाले महल में रहने के बाबजूद उन्हे सुख के बजाय दुःख का ही अनुभव होता था। भारतवर्ष की घोर कंगाली और दुर्दशा उनके सामने जैसे साकार खड़ी हो जाती। रोते-रोते वे कहने लगे-‘‘माॅ! जब मेरी जन्मभूमि गरीबी में पड़ी हुई सिसक रही है, तब मै इस नाम और यश को लेकर क्या करूॅगा? हमारे देश में लाखों अभागे एक मु्ट्ठी अनाज के बिना मर जाते है, जबकि यहाॅ केवल ऊपरी शान-शौकत के लिए लाखों करोड़ों धन पानी की तरह बहा दिया जाता है। भारत के गरीबों का उद्धार कौन करेगा? मुझे वह रास्ता दिखला, जिससे मैं उनकी सहायता कर सकूॅ।
शीघ्र ही अमरीका की एक व्याख्यान संस्था के आमंत्रण पर स्वामी जी को समस्त अमरीका में व्याख्यान देना शुरू कर दिया। इन भाषणों का एक बड़ा लाभ यह हुआ कि जो अमरीकी ईसाई पादरियों की उल्टी-सीधी बाते सुनकर भारतवर्ष को बहुत गिरा हुआ और पतित-देश मानने लगे थे, उन्हे वास्तविक स्थिति की जानकारी हो गई।स्वामी जी स्पष्ट रूप से पादरियों और ईसाई धर्म की कमियों को उघाड़नें लगे। उन्होने अमरीकनों से पूछा-क्या सब विलास और तलवार की धमकी ईसा के उपदेशों के अनुसार है?स्वामी जी के भाषणों से ईसाई पादरियों का सम्मान बहुत घट गया साथ ही उनकी कमाई भी आधी रह गई। जिसके चलते वे स्वामी जी के विरूद्ध तरह-तरह का षडयंत्र करने लगे। यहां तक कि कई सुंदर रमणियों को बहुत सा रूपया देकर इसलिए भेजा कि वे स्वामी जी का चरित्र भ्रष्ट कर दें। पर स्वामी जी ने उन्हे दूर से ही प्रमाण कर लिया। फिर भी उनके विरूद्ध सिर्फ अमरीका में नही भारत में भी कट्टरपंथी तरह-तरह का दुष्प्रचार करते रहे। स्वामी जी ने इस पर कहा-ऐसी झूठी बाते फैलानें वाले कायर पुरूषों तथा राजनीतिक झगडों से मेरा कोई संबंध नहीं। ईश्वर तथा सत्य ही मेरी एकमात्र राजनीति है-बाकी जो कुछ है, वह सब केवल कूड़ा-करकट है। स्वामी जी के विद्वतापूर्ण भाषणों के चलते कुछ अमरीकन उनके अनुयायी बन गए और नियमित रूप से योग, वेदांत, गीता, उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त करने लगे। फिर कुछ अमरीकन भी स्वामी जी से सन्यास की दीक्षा लेकर हिंन्दू-धर्म के उच्च सिद्धांतों का प्रचार करने लगें। बाद में वहां न्यूयार्क में एक वेदांत सोसाइटी का गठन हो गया, जिसका प्रचार बाद में अन्य नगरों में भी हो गया। ये संस्था अभी तक अमेरिका में कार्य कर रही है।
अमेरिका के पश्चात् स्वामी जी इंग्लैण्ड गए। दो-चार दिन में ही वे लंदन में ‘हिन्दू-योगी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए और बड़े-बडे़ विद्वान तथा शिक्षित लोग उनके उपदेश सुनने को आने लगे। उन्होने वहां पर अनेक भाषणों में बार-बार लोगों को चेतावनी दी ‘‘यदि शीघ्र उन्नति करने वाली और ऊपर से मनेाहर दिखाई पड़ने वाली पश्चिमी सभ्यता को वेदांत के त्याग और वैराग्य की नींव पर स्थापित न किया गया तो उसका उतना ही शीघ्र नाश होना भी अवश्यभावी है।’’
इंग्लेैण्ड में स्वामी जी की भंेट प्रोफेसर मैक्समूलर से भी हुई, जिन्होने अपना समस्त जीवन लगाकर वेदों को खोजकर प्रकाशित करने का महान कार्य किया था। इस प्रकार चार वर्षों तक यूरोप-अमेरिका में हिन्दू संस्कृति एवं धर्म की ध्वजा फहराकर तथा हजारों पश्चिमी लोगों को वेदांत और भारतीय अध्यात्म का अनुयायी बनाकर स्वामी जी ने स्वदेश वापस आने का निश्चय किया। चलते समय लंदन के पत्र संवाददाता ने पूछा- ‘‘स्वामी जी इस चमकते -दमकते विलास-वैभवपूर्ण पश्चिम में चार वर्ष रहने के पश्चात् आपको अपना देश कैसा जान पड़ता है?
स्वामी जी ने कहा-‘‘देखों, यहाॅ आने के पहले तो मै भारतवर्ष से प्रेम करता था, पर अब तो वहांॅ की धूल ओैर हवा भी मुझे पवित्र करने वाली जान पड़ती है। अब मैं उसे एक तीर्थ के समान समझ रहा हूॅ।’’
जैैसे ही स्वामी जी का जहाज कोलंबों पहुंचा 2-3 दिन विभिन्न संस्थाओं कीे ओर से उनका स्वागत होता रहा। वह जब रामेश्वर के पास रामनद पहुंचे तो वहां के राजा ने स्वामी जी को एक गाड़ी में बैठाकर अन्य लोगों के साथ स्वयं खींचकर ले गए। उन्होने इस घटना के स्मरणार्थ समुद्र के किनारे एक 40 फिट ऊॅचा कीर्ति-स्तंभ बनवाया, जिस पर निम्न लेख लिखा गया-‘‘सत्यमेव जयते’’
पश्चिमी गोलार्द्ध में वेदांत धर्म का परोपकारी प्रचार-कार्य, ज्वलंत और अपूर्व विजय प्राप्त करके, अपने अंग्रेज शिष्यो सहित परमपूजनीय स्वामी विवेकानन्द ने सर्वप्रथम जहाॅ भारतभूमि को स्पर्श किया, उसी के स्मरण में रामनद के राजा भास्कर सेतुपति ने यह कीर्ति-स्तंभ खड़ा कराया।
मद्रास और कलकत्ता में कई सप्ताहों के स्वागत समारोहों के पश्चात् उन्होने अपने मुख्य कार्य की ओर ध्यान दिया और अपने शिष्यों से कहा-गरीब, निराधार और दुःखी मनुष्यों में ईश्वर का दर्शन करके उनकी सेवा करना, यह अपने उदाहरण से बतलाना चाहिए। दूसरों की सहायता एवं उद्धार के लिए अपना जीवन अर्पण करें, ऐसे सन्यासियों का एक नया संघ भारत में तैयार करना ही मेरा जीवन-कार्य है, तदानुसार मई 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की गई। 1898 में बेलूर मठ की स्थापना की गई तो उन्होने श्री रामकृष्ण के अवशेष वाले ताम्र-कलश को स्वयं कंधे पर उठाया और बडे़ जुलूस के साथ उसे मठ के नए मकान में ले गए। यद्यपि काफी काम से उनका स्वास्थ्य अब निर्बल रहने लगा था, पर उन्हे बार-बार अमरीका से बुलावा आ रहा था, तो वह वहां पहुंच गए तथा अमेरिका, यूरोप होकर दिसम्बर 1900 में पुनः स्वदेश लौट आए।
स्वामी जी मठ के कामों से क्रमशः छुट्टी लेने लगे थे, और सब भार अपने गुरू-भाईयों तथा शिष्यों पर छोड़नें लगे थे। एक आदर्श नेता या गुरू की भांति उनका कहना था ‘‘अनेक बार देखने में आता है कि गुरू अथवा नेता सदैव अपने अनुयायियों के साथ रहकर उनका अहित कर डालता है। मुखिया का कर्तव्य है कि जब अन्य लोग कार्य करना जान जाए तो स्वयं दूर हटकर रहे, जिससे उन सबका भी पूर्ण विकास हो सके।’’ इस तरह से 04 जुलाई 1902 को स्वामी विवेकानन्द महाप्रयाण कर गए। उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि जैसे पूर्व युग के किसी महान् संत के सनातन धर्म के पुनरूद्धार के लिए और संसार में उसकी विजय-पताका फहराने के लिए फिर से जन्म लिया था।