कहानी आज आया लाँघता मैं ! आज की अभी की June 16, 2018 / June 16, 2018 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment गोपाल बघेल ‘मधु’ आज आया लाँघता मैं, ज़िन्दगी में कुछ दीवारें ; खोलता मैं कुछ किबाड़ें, झाँकता जग की कगारें ! मिले थे कितने नज़ारे, पास कितने आए द्वारे; डोलती नैया किनारे, बैठ पाते कुछ ही प्यारे ! खोजते सब हैं सहारे, रहे हैं जगती निहारे; देख पर कब पा रहे हैं, वे खड़े द्रष्टि पसारे ! क्षुब्ध क्यों हैं रुद्ध क्यों हैं, व्यर्थ ही उद्विग्न क्यों हैं; प्रणेता की प्रीति पावन, परश क्यों ना पा रहे हैं ! जा रहे औ आ रहे हैं, जन्म ले भरमा रहे हैं; ‘मधु’ घृत पी पा रहे हैं, नयन उनके खो रहे हैं ! ’ Read more » आज आया लाँघता मैं ! आज की अभी की ज़िन्दगी झाँकता
कविता माँ ने पूछा,मै आई किसके हिस्से में ? May 15, 2018 by आर के रस्तोगी | Leave a Comment सन्नाटा छा गया बटवारे के किस्से में माँ ने पूछा,मै आई किसके हिस्से में ? कहते है सभी लोग आज माँ का दिन है मै कहता हूँ,कौन सा दिन माँ के बिन है एक अच्छी माँ होती है सभी के पास होती नहीं अच्छी औलाद सभी के पास माँ तो एक सबसे बड़ी नियामत हे […] Read more » औलाद ज़िन्दगी नियामत बहन भाई मां
कविता क्यों आते हैं तूफ़ान जिन्दगी में May 11, 2018 by आर के रस्तोगी | 2 Comments on क्यों आते हैं तूफ़ान जिन्दगी में आये हो जब से तुम मेरी जिन्दगी में एक तूफ़ान आ गया मेरी जिन्दगी में लगता है ये मौसम बेईमान हो गया शायद ये दिल मेरा परेशान हो गया लगता है ये तूफ़ान आगे बढ़ने लगा मेरी रातो की नींद को ये चुराने लगा न दिन में है चैन,न रात को है चैन कयू करता […] Read more » गन्दगी ज़िन्दगी तूफ़ान प्रक्रति मेहमान सदियों
कविता दर्दो को कागजो पर लिखता रहा April 19, 2018 by आर के रस्तोगी | 2 Comments on दर्दो को कागजो पर लिखता रहा जिन्दगी के दर्दो को,कागजो पर लिखता रहा मै बेचैन था इसलिए सारी रात जगता रहा जिन्दगी के दर्दो को,सबसे छिपाता रहा कोई पढ़ न ले,लिख कर मिटाता रहा मेरे दामन में खुशिया कम् थी,दर्द बेसुमार थे खुशियों को बाँट कर,अपने दर्दो को मिटाता रहा मै खुशियों को ढूढता रहा,गमो के बीच रहकर वे खुशियों को […] Read more » Featured कागज गिरगिट ज़िन्दगी दर्दो लिखता
समाज जिन्दगी के गुम हो गये अर्थों की तलाश November 6, 2016 by ललित गर्ग | Leave a Comment जिन परिस्थितियों में व्यक्ति जी रहा है, उनसे निकल पाना किसी के लिए भी आज बड़ा कठिन-सा है। अपने व्यापार, अपने कैरियर, अपनी इच्छाओं को एक झटके में त्याग कर एकांतवास में कोई रह सके, यह आज संभव नहीं है और व्यावहारिक भी नहीं है। तथापि अपनी मानसिक शांति और स्वास्थ्य के प्रति आदमी पहले से अधिक जागरुक हो रहा है क्योंकि भौतिकवादी जीवनशैली के दुष्परिणाम वह देख और भुगत चुका है, इसलिए वह अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय निकालकर प्रकृति की गोद में या ऐसे किसी स्थान पर बिताना चाहता है, जहां उसे शांति मिल सके। Read more » Featured अर्थों की तलाश ज़िन्दगी
समाज ज़िन्दगी से भागते लोग May 24, 2010 / December 23, 2011 by फ़िरदौस ख़ान | 7 Comments on ज़िन्दगी से भागते लोग -फ़िरदौस ख़ान यह एक विडंबना ही है कि ‘जीवेम शरद् शतम्’ यानी हम सौ साल जिएं, इसकी कामना करने वाले समाज में मृत्यु को अंगीकार करने की आत्महंता प्रवृत्ति बढ़ रही है। आत्महत्या करने या सामूहिक आत्महत्या करने की दिल दहला देने वाली घटनाएं आए दिन देखने व सुनने को मिल रही हैं। कोई परीक्षा […] Read more » life ज़िन्दगी
विविधा ज़िन्दगी तो तभी जी ली, जब साथ-साथ खेलें है : kanishka July 3, 2009 / December 27, 2011 by कनिष्क कश्यप | Leave a Comment उपर दूर आसमां तन्हा सामने गुजरगाह तन्हां जिस्म तन्हा, जां तन्हा आती हुई सबा तन्हा पहले भी हम थे तन्हा आज भी अकेले हैं सुना हर यूं लम्हा क्यूं? मेरा मुकद्दर तन्हा क्यूं? खुद को पल-पल ढूंढ रहा मेरे चारो तरफ़ मेले हैं और जीने की चाह कहां? बुझने की परवाह कहां? ज़िन्दगी तो तभी […] Read more » Love ज़िन्दगी