लेख संयुक्त परिवार : मात्र समझौता नहीं, आज की “जरूरत” May 15, 2025 / May 15, 2025 by प्रदीप कुमार वर्मा | Leave a Comment अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस 15 मई पर विशेष… प्रदीप कुमार वर्मा कहते हैं कि परिवार से बड़ा कोई धन नहीं। पिता से बड़ा कोई सलाहकार नहीं। मां के आंचल से बड़ी कोई दुनिया नहीं। भाई से अच्छा कोई भागीदार नहीं। और बहन से बड़ा कोई शुभ चिंतक नहीं। यही वजह है कि परिवार के बिना जीवन की कल्पना करना कठिन है। किसी भी देश और समाज की परिवार एक सबसे छोटी इकाई है। परिवार एक सुरक्षा कवच है और एक मानवीय संवेदना की छतरी भी। एक अच्छा परिवार बच्चे के चरित्र निर्माण से लेकर व्यक्ति की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार से इतर व्यक्ति का बजूद नहीं है। इसलिए परिवार के बिना अस्तित्व के बिषय में कभी सोचा नहीं जा सकता। लोगों से परिवार बनता हैं और परिवार से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व बनता हैं। परिवार के इसी महत्व को जान और समझकर लोग आप संयुक्त परिवार को एक बार फिर से अपनाने लगे हैं। देश और दुनिया में परिवार के दो स्वरूप मुख्य रूप से देखने को मिलते हैं। इनमें पितृसत्तात्मक एवं मातृ सत्तात्मक परिवार शामिल है। किसी भी सशक्त देश के निर्माण में परिवार एक आधारभूत संस्था की भांति होता है, जो अपने विकास कार्यक्रमों से दिनोंदिन प्रगति के नए सोपान तय करता है। कहने को तो प्राणी जगत में परिवार एक छोटी इकाई है। लेकिन इसकी मजबूती हमें हर बड़ी से बड़ी मुसीबत से बचाने में कारगर है। बीते सालों में यह देखने में आया है कि संयुक्त परिवार की जगह अब एकल परिवारों ने ले ली है। समाज के इस नए चलन न केवल परिवारों को बिखराव दिया है, वहीं, समूचे सामाजिक ताने-बाने पर भी संकट छा गया है। हालात ऐसे हैं कि एकल परिवारों के सदस्य अब रिश्तों के नाम तक भूलने लगे हैं, निभाने की बात तो और है। एकल परिवारों में लोग एकाकी जीवन जीने को मजबूर है और इससे उनका मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है । इसी चिंता और देश और दुनिया में परिवार के महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 1980 के दशक के दौरान परिवार से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया। इसके बाद वर्ष 1983 में आर्थिक और सामाजिक परिषद सामाजिक विकास आयोग ने विकास प्रक्रिया में परिवार की भूमिका पर अपने संकल्प की सिफारिश की और महासचिव से निर्णय लेने वालों और जनता के बीच जागरूकता बढ़ाने का अनुरोध किया। इसके साथ ही जनता को परिवार की समस्याओं और आवश्यकताओं के साथ-साथ उनकी जरूरतों को पूरा करने के प्रभावी तरीकों से अवगत कराया। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 9 दिसंबर 1989 के अपने संकल्प 44/82 में परिवार के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष की घोषणा की और 1993 में महासभा ने फैसला किया कि 15 मई को हर साल अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस के रूप में मनाया जाएगा। सामाजिक संरचना के तौर पर परिवार का विवेचन करें तो परिवार जन्म, विवाह या गोद लेने से संबंधित दो या अधिक व्यक्तियों का समूह है, जो एक साथ रहते हैं। ऐसे सभी संबंधित व्यक्तियों को एक परिवार के सदस्य माना जाता है। उदाहरण के लिए यदि एक वृद्ध विवाहित जोड़ा, उनका बेटा ओर बहू,पोता-पोती और वृद्ध जोड़े का भतीजा सभी एक ही घर या अपार्टमेंट में रहते हैं। तो वे सभी एक ही परिवार के सदस्य माने जाएंगे। परिवारों की प्रकृति की व्याख्या करें तो ऐतिहासिक दृष्टि से अधिकांश संस्कृतियों में परिवार पितृसत्तात्मक यानि पुरुष-प्रधान परिवार ही देखने में आते हैं। इनमें परिवार के सबसे बड़े पुरुष द्वारा ही परिवार के सभी कार्यों का संचालन अथवा निर्णय लिए जाते हैं। इसके साथ ही आदिवासी समाज सहित कुछ अन्य समाजों में मातृ सत्तात्मक परिवारों की पृष्ठभूमि देखने को मिलती है। ऐसे परिवारों में परिवार की बुजुर्ग महिला की प्रधानता रहती है तथा परिवार एवं समाज के सभी निर्णय लेने में बुजुर्ग महिलाएं मुख्य भूमिका निभाती है। यह सभी परिवार संयुक्त परिवार का एक रूप है जहां तीन पीढ़ियां एक साथ रहती हैं। लेकिन समय के साथ संयुक्त परिवारों की यह संकल्पना अब धूमिल हो रही है। औद्योगीकरण के साथ-साथ शहरीकरण ने जीवन और व्यावसायिक शैलियों में तीव्र परिवर्तन लाकर पारिवारिक संरचना में कई परिवर्तन उत्पन्न किए हैं। लोग,विशेषकर युवा,खेती छोड़कर औद्योगिक श्रमिक बनने के लिए शहरी केंद्रों में चले गए। इस प्रक्रिया के कारण कई बड़े परिवार बिखर गए। इसके साथ ही युवाओं में अपने निर्णय खुद लेने की प्रवृत्ति तथा रोजी रोजगार के चलते अपने परिवार से दूर रहने के कारण भी एकल परिवार की संख्या बढ़ रही है। परिवार नियोजन के चलते हुए परिवार के सदस्यों की संख्या कम हो रही है। जिसके चलते भी परिवारों को आकर संयुक्त परिवार के सिकुड़ कर अब एकल परिवार के रूप में सामने आया है। यही नहीं बुजुर्गों की टोका-टाकी तथा अपना निर्णय खुद लेने की चाहत के चलते भी युवाओं की चाहत अलग अपना संसार बसाने की है। जिसके चलते भी परिवारों में बिखराव है और एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है। एकल परिवार के दुखद पहलू के रूप में एकाकीपन तथा परिवार के सदस्यों की सहायता नहीं मिलने से कामकाजी महिला पुरुष अब यह सोचने पर मजबूर हो गए कि अगर वह संयुक्त परिवार का हिस्सा होते तो उनके कामकाज पर रहने के दौरान परिवार के बुजुर्ग तथा अन्य सदस्य उनके बच्चों का ध्यान रखते और बच्चों को डे-केअर सेंटर में छोड़ने की मजबूरी न सामने आती। इसके साथ ही जब एकल परिवार में रहते हैं तो बच्चों को उनके माता-पिता के अलावा और किसी रिश्ते की जानकारी होती है और ना ही अनुभव। देश की भावी पीढ़ी को ना दादा-दादी की कहानी सुनाने को मिलती हैं और ना ही चाचा और बुआ का दुलार। यही नहीं घर के कामकाज में ना तो महिला को अपनी सास और ननद की मदद मिलती है और ना ही पुरुष को अपने पिता और भाई की सहायता। इसके चलते भी एकल परिवार में रहने वाले महिला और पुरुष खुद को असहाय और अकेला महसूस करते हैं। हालात ऐसे हैं की दादी-दादी से लेकर चाचा चाचा बुआ फूफा मामा मामी तथा भैया भाभी के रिश्तो से यह नई पीढ़ी अनजान है। यही वजह है कि देर से ही सही लोग अब फिर से संयुक्त परिवारों की ओर लौट भी लगे हैं। जिसके चलते संयुक्त परिवार की संकल्पना अब धीरे-धीरे ही सही लेकिन वापस अपने मुकाम पर आने लगी है। इसके साथ ही अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि संयुक्त परिवार अपने हितों के लिए मजबूरी में किया गया समझौता भर नहीं है। संयुक्त परिवार आज की जरूरत भी है। प्रदीप कुमार वर्मा Read more » a "need" of today Joint Family: Not just a compromise अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस 15 मई संयुक्त परिवार
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विविधा संस्कृतियों को बचाने के लिए संयुक्त परिवार जरूरी May 16, 2015 by आदर्श तिवारी | 1 Comment on संस्कृतियों को बचाने के लिए संयुक्त परिवार जरूरी –आदर्श तिवारी- महान समाजशास्त्री लूसी मेयर ने परिवार को परिभाषित करते हुए बताया कि परिवार गृहस्थ्य समूह है. जिसमें माता –पिता और संतान साथ –साथ रहते है. इसके मूल रूप में दम्पति और उसकी संतान रहती है. मगर ये विडंबना ही है कि, आज के इस परिवेश में दम्पति तो साथ रह रहें, लेकिन इस […] Read more » Featured परिवार संयुक्त परिवार संस्कृति संस्कृतियों को बचाने के लिए संयुक्त परिवार जरूरी