सियाचिन नहीं अखंड कश्मीर पर हो वार्ता

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प्रवीण दुबे

सियाचिन में पाकिस्तान सेना के 140 जवान क्या मरे पाक सैन्य प्रमुख कयानी को इस क्षेत्र को सैन्य मुक्त करने और टकराव टालने की बात याद आ गई। आश्चर्य तो तब हुआ जब भारत ने भी इस विषय पर सिर हिला दिया और वार्ता का दौर चल पड़ा। इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि सियाचिन दुनिया का सबसे ऊंचा और दुर्गम सैन्य क्षेत्र है, यहां जितने सैनिक लड़ाई में नहीं मरते उससे ज्यादा खराब मौसम और बर्फबारी में मारे जाते हैं। अत: इस स्थिति को टालने के प्रयास होना ही चाहिए, लेकिन जब हमारा पड़ोसी अन्य सीमांत मुद्दों पर बात करने को तैयार नहीं हो, भारत में आतंकवादी गतिविधियों को लगातार संचालित कर रहा हो, आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चला रहा हो और सबसे बड़ी बात तो यह है कि लगातार कश्मीर का राग अलाप रहा हो, वहां अलगाववादी भारत विरोधी शक्तियों को बढ़ावा दे रहा हो और हमारे एक अन्य ताकतवर पड़ोसी चीन को सैन्य अड्डे संचालित करने की छूट दे रहा हो तो क्या ऐसे माहौल में पाक की तरफ से आए वार्ता के प्रस्ताव को मानना चाहिए? यह प्रश्न आज हर देशभक्त भारतवासी को परेशान कर रहा है। शांति कभी बुरी नहीं होती और शांति के लिए किया गया कोई भी प्रस्ताव स्वागत योग्य कहा जा सकता है। लेकिन शान्ति के पीछे यदि एक पक्ष का हित छुपा हो और वह पक्ष केवल एक मुद्दे को छोड़ सभी पर अडिय़ल रुख अपनाए हो तो ऐसी वार्ता ठीक नहीं कही जा सकती। सर्वविदित है कि पाकिस्तान हमेशा से भारत के पीठ में छुरा घोंपता आया है और वार्ता के बाद हमलावर की भूमिका निभाता रहा है, कारगिल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। आज कयानी सियाचिन को सैन्य मुक्त क्षेत्र बनाने के लिए वार्ता की बात कर रहे हैं। उसी पाकिस्तान की सेना ने कारगिल की बर्फबारी और दुर्गमता का सहारा लेकर भारत की जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की थी। पाकिस्तान ने सच छुपाने के लिए उस समय दावा किया था कि लडऩे वाले सभी कश्मीरी उग्रवादी हैं, लेकिन युद्ध में बरामद हुए दस्तावेजों और पाकिस्तानी नेताओं के बयानों से साबित हुआ कि पाकिस्तान की सेना प्रत्यक्ष रुप से इस युद्ध में शामिल थी। अब जरा सोचिए ऐसा देश और उसकी ऐसी दोगली सेना पर कैसे विश्वास किया जाए। आज कयानी को सियाचिन दुर्गम स्थान नजर आ रहा है, वे कह रहे हैं कि इसे सैन्य मुक्त क्षेत्र होना चाहिए। आखिर कैसे मान ली जाए उनकी बात कारगिल भी दुर्गम क्षेत्र था, यहां भारत की सेना इस कारण नहीं थी क्योंकि वहां भारी बर्फबारीथी और पूरी सीमा बर्फ से ढकी थी। पाक सेना ने इसी का फायदा उठाकर गुपचुप घुसपैठ की थी और भारत की पीठ में छुरा घोंपा था, वो तो भारत के सैनिकों की बहादुरी थी जो उन्होंने पाकिस्तानी सेना को यहां से खदेड़ दिया। पाकिस्तान का दोगला चरित्र और भारत के खिलाफ उसकी साजिशों को देखते हुए सियाचिन क्षेत्र को सैन्य मुक्त घोषित किए जाने की उसकी बात कतई मानने योग्य नहीं कही जा सकती वो भी उस समय जब पाकिस्तान आंतरिक कलह से जूझ रहा है और वह अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादियों का सबसे बड़ा अड्डा बना हुआ है। पूरी दुनिया इस बात को जानती है कि उसने मुम्बई बम हमलों के सरगना हाफिज सईद और भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त भारत के भगोड़े डी कंपनी के मालिक अंडर वल्र्ड दाऊद इब्राहिम को शरण दे रखी है। शरण ही नहीं उसे सैन्य सुरक्षा भी प्राप्त है और यह आतंकवादी समय समय पर पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ मिलकर भारत को अस्थिर करने वहां आतंकवादी घटनाएं कराने और नकली करेंसी भेजने जैसे कारनामों को अंजाम देते रहते हैं। ऐसी स्थिति में इस बात की कोई गारंटी नहीं कि पाकिस्तान सियाचिन को सैन्य मुक्त क्षेत्र घोषित कराके कोई नया षड्यंत्र रचने की कोशिश में जुटा हो। भारत को इससे सावधान रहने की आवश्यकता है। अच्छा तो यह होता कि जब पाकिस्तानी सैन्य प्रमुख कयानी की ओर से वार्ता का प्रस्ताव आया था उस समय भारत को भी सशर्त वार्ता की बात करना चाहिए थी। उसे शर्त रखना चाहिए थी कि पाकिस्तान पहले दाऊद और 26 /11 के सरगना हाफिज सईद को भारत के हवाले करे, पाकिस्तान में संचालित आतंकवादी प्रशिक्षण केन्द्रों को समाप्त करे तथा पाक अधिकृत कश्मीर से कब्जा छोड़े और उसे भारत को सौंपे। यहां बताना उपयुक्त होगा कि 1994 में भारत की संसद ने एक प्रस्ताव सर्व सम्मति से पारित किया था जिसमें कहा गया था कि पाक अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और हम इसे वापस लेकर रहेंगे। बड़े दु:ख की बात है कि 16 सालों में जितनी भी सरकारें केन्द्र में आई उन्होंने इसके लिए कुछ नहीं किया। आज हमारे देश के कर्णधार नेताओं को जो कि पाकिस्तान में वार्ता के पक्षधर हैं उस प्रस्ताव को याद करना चाहिए और वार्ता से पहले पाक स्थित कश्मीर को वापस भारत में मिलाने के लिए कार्रवाई शुरु करना चाहिए। दोस्ती का हाथ तभी बढ़ाना चाहिए जब दुश्मन अपनी हरकत बंद करे अन्यथा फिर धोखे का सामना करना पड़ेगा।

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  1. एक बात स्पष्ट है की हमारी वर्तमान सर्कार को न तो देश की चिंता है न पुराणी गलतियों से सीखने की इक्षा. अतीत में नेहरूजी की सनक के कारण आज एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में है जिसमे से कुछ हिस्सा उसने चीन को दे दिया है लेकिन हमारी सर्कार ने चीन से विरोध करने की आवश्यकता नहीं समझी. वास्तव में सियाचिन पर अपना भौतिक नियंत्रण करने के लिए उस समय कार्यवाही करनी पड़ी जब पाकिस्तान द्वारा हमारी गफलत का लाभ उठाकर उस पर कब्जे की साजिश की ख़बरें सामने आयीं. भारत ने लन्दन के कम्पनी से अति शीतल क्षेत्रों के सैनिकों के लिए कुछ उपकरण ख़रीदे. रा ने खबर दी की पाकिस्तान ने भी वैसे ही उपकरण ख़रीदे हैं. भारत ने उपकरण उत्तरी लड़ख में और अर्धसैनिक बलों के लिए ये उपकरण ख़रीदे थे जबकि सामान्य हालत में पाकिस्तान को उनकी आवश्यकता नहीं थी. अतः पाकिस्तान के मंसूबों की भनक लगते ही भारत को पहले रक्षात्मक कदम उठाकर अपने सियाचिन क्षेत्र पर अपना सैनिक दस्ता तैनात क्लारना पड़ा और इसकी कीमत में अबतक भरी क़ुरबानी दी जा चुकी है. अतः पाकिस्तान के किसी झांसे में न आकर अपना सैनिक बल वहां से हटाना नहीं चाहिए. ऐसा करना आत्मघाती होगा.

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