डॉ0 राकेश राणा
भविष्य के शिक्षक की बदलती भूमिका, उत्तरदायित्व और कार्य निष्पादन की नयी संस्कृति के संकेत 21वी सदी में प्रवेश के प्रारम्भ में ही यूनेस्को की एक रिपोर्ट में व्यापक और बहुउद्देश्यी दृष्टि से रखे गये। जो शिक्षक को नवाचार का नायक बनने की दिशा में प्रेरित करते है। यह रिपोर्ट कहती है कि “भविष्य के शिक्षक को परिवर्तन का प्रेरक बनना होगा। समझ और सहिष्णुता को प्रोत्साहित करने में शिक्षक का महत्व जितना स्वाभाविक रूप में आज अपेक्षित है, उतना शायद कभी न रहा हो। नयी सदी के नये शिक्षक की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावी होने वाली है। वैश्वीकरण के दौर की महती आवश्यकता संकीर्ण राष्ट्रवाद को सार्वभौमवाद मे व जातीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह को सहिष्णुता, समझदारी और बहुलतावाद में बदलने की है। तमाम तरह की निरंकुशताओं को लोकतांत्रिक व्यवहार में बदलने की है। प्रौद्योगिकी से पैदा हुए विभाजनों एवं विश्व में फैलती विषमताओं तथा तकनीकी के परिणामस्वरुप उपज़ी गैर-बराबरी को समझने की जरुरत है”। इस दृष्टि से विश्व एकीकरण और सामाजिक विखंड़न को रोकने का जो महत्वपूर्ण दायित्व शिक्षक की नयी भूमिका से जुड़ चुका है। नई पीढ़ी के चरित्र और मानस निर्माण में अग्रणी भूमिका से जुड़ा है। इसके लिए शिक्षक को उच्च लक्ष्यों का वरण और निर्धारण स्वयं करना होगा। उसे नवाचार का नायक बनना होगा। क्योंकि बचपन में रोपे गए नैतिक मूल्य ही व्यक्तित्व निर्माण का आधार बनते हैं जिनका महत्व जीवन भर बना रहता है। यही एक शिक्षक का राष्टृय दायित्व है और सामाजिक भूमिका भी। एक अच्छे शिक्षक को अपनी इसी भूमिका में संतोषप्रद जीवन जीते हुए भावी पीढिय़ों का निर्माण करना होता हैं। शिक्षक राष्ट्र-निर्माता के दायित्वों और जिम्मेदारियों से भी आगे बढ़कर, जब अपने स्नेह और प्रेम के दायरों का विस्तार करता है तो समाज में उसके विराट व्यक्तित्व से जो आलोक फैलता है वह उसकी रचनाधर्मिता को आधार उपलब्ध कराता है। तभी एक शिक्षक अपनी सर्वांगिण शक्तियों के साथ नवाचारों का उद्यम करता है। नये सिरे से समाज और राष्टृ को गढ़ने का काम करता है। नवावार के नायक के रुप में यही वह भूमिका है जो शिक्षक को राष्ट्र-प्रहरी के साथ राष्टृ-शिल्पी बनाती है और समाज में उसके प्रति अगाध आस्था और श्रद्धा पैदा करती है।
भारतीय इतिहास अनगिनत घटनाओं का साक्षी है जहां सफलताएं गुरु-शिष्य परम्परा के अनवरत प्रवाह से उपतजी रही है। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियों की एक ही कसौटी है वह है शिक्षक की नवाचारी दृष्टि। शिक्षा की चाहे कोई भी प्रणाली हो, विशेषकर स्कूली शिक्षा व्यवस्था तो एक व्यवहारिक और व्यावसायिक दृष्टि से सम्पन्न, सक्षम, प्रज्ञ और प्रेरित तथा नवोत्साह से भरे शिक्षक और उसके सक्रिय सहयोग एवं उसकी सुनियोजित-समुचित मौजूदगी के बिना फल-फूल ही नहीं सकती। केवल शिक्षक ही ऐसे सभ्य-सुशिक्षित मानवीय बोध वाले बीज मानव मस्तिष्क में अंकुरित कर सकता है जिससे ‘विविधता में एकता’ के बहुलता आधारित समाज का विकास हो सकें। एक सजग और सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न शिक्षक की उपस्थिति से स्कूल सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक व धार्मिक सद्भाव तथा नयें मूल्यों के निर्माण के केंद्र बन जाते हैं। आज शिक्षा में ऐसी पद्धति को अपनाने की प्रबल आवश्यकता है जिसके नए और युवा शिक्षक अधिक अनुभवी एवं ज्ञानवान शिक्षकों के साथ गहन संवाद जारी रख सके। नये और पुराने के बीच सेतु स्थापित कर सके। परम्परा को नवाचारों की चासनी में पकाकर नये स्वाद और संवाद के साथ नयी पीढ़ी में प्रेषित कर सके।
वर्तमान पीढ़ी इतिहास के ऐसे मोड़ पर है जिसके लिए भावी शिक्षक और शिक्षा दोनों का दायित्व बढ़ गया है। शिक्षा हर व्यक्ति के लिए आशा की एकमात्र किरण है। विशेष रूप से ऐसे समुदायों के लिए तो, जो घोर गरीबी, अभावों, अन्यायों और अनेक सामाजिक-आर्थिक उपेक्षाओं से उभरने के लिए लालायित हो। इस सामाजिक दायित्व को नवाचार और नेतृत्व की जीजिवीषा से भरा शिक्षक ही पूरा कर सकता है। वहीं नवाचारों के साथ गुणवत्ता को गाढ़ा बना सकता है। गुणवत्ता सतत, समान और स्थायी विश्ेषताओं की वाहक होती है। व्यापक अर्थों में अच्छी गुणवत्ता अनिवार्यतः एक समान बनी रहती है। लेकिन इसके परिणाम समय की मांग के साथ बदलते रहते हैं। सामाजिक-आर्थिक दबावों व बाजार की आवश्यकताओं के परिणामस्वरुप ऐसा होता है। किसी भी समाज में शिक्षा की विषयवस्तु और प्रक्रिया तभी तक प्रासंगिक बनी रहती है जब तक वह मानव व्यवहार और क्रियाशीलता के प्रत्येक क्षेत्र की आशाओं, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं पर खरी उतरती है
दुनियाभर के अनुभवों से अब धीरें-धीरें यह साफ होने लगा है कि सारे तकनीकी परिवर्तनों के बावजूद भी ऑनलाइन-ऑफलाइन शिक्षण विधियों-प्रविधियों में प्रमुख भूमिका शिक्षक की ही है। शिक्षक ही वह केन्द्र है जिस पर पूरी शिक्षा व्यवस्था का दारोंमदार है। ऐसे शिक्षकों का कोई भविष्य नहीं होगा, जो नए ज्ञान और कौशल प्राप्त करने की दिशा में प्रयासरत न हो। तकनीकी की गति इतनी तीव्र है कि मानवीय क्रियाओं को सीधी चुनौती मिल रही है। इसीलिए इस बहस के बलवती होने की गुंजाईशें बढ़ गई है कि गूगल बड़ा या गुरु। कल के शिक्षक अपने विद्यार्थियों से तभी मान-सम्मान पा सकेंगे जब वे इस सच्चाई के प्रति सजग रहें कि उनकी प्रारंभिक शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल जीवनभर उनके लिए उपयोगी नहीं हो सकता। शिक्षकों को समयानुसार परिवर्तित विषयवस्तु के प्रति सचेत बने रहना होगा। अपने अध्ययन-अध्यापन में नवीन तथ्यों और सूचनाओं का समावेशन करते रहना होगा। नए आविष्कारों, अनुसंधानों और नवाचारों को प्रासंगिकता और उपादेयता के साथ अपने सामाजिक मूल्यों-मान्यताओं के अनुरुप पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना होगा। भावी शिक्षक को इस दिशा में भी सचेत रहना होगा कि आईसीटी यानि सूचना-संचार प्रौद्योगिकी में नई खोजें नयी पीढ़ी को आकर्षित करती हैं। इन नवाचारों से उत्पन्न नवोत्साह में कितनी सफलता और प्रवीणता के साथ नवोन्मेष बनानें में एक शिक्षक अग्रणी भूमिका निभाता हैं। भविष्य की शिक्षा शिक्षक और शिक्षार्थी से लोकतांत्रिक व्यवहार, तकनीकीय दक्षता और विश्व-दृष्टि के साथ अंतक्रियात्मक विचार-विमर्श वाली “द्विपक्षीय-शिक्षण” पद्धति की शुभाकांक्षी है। यही सहभागी शिक्षण का वास्तविक स्वरुप होगा। एक अच्छे-सच्चे शिक्षक को विवेकपूर्ण कौशल पर नियंत्रण हासिल करना होता है। आधुनिक विज्ञान और तकनीकी के गरिमापूर्ण युग में मानवीय जीवन-मूल्यों को विश्व कल्याण के विवेक की कला एवं कौशल के साथ समाज में समाहित करना ही आज के शिक्षक का परम् प्राथमिक दायित्व है।