बच्चों के सर्वांगीण विकास पर हो शिक्षकों का विशेष ध्यान।

आज की शिक्षा पहले के जमाने की भांति टीचर्स सेंटर्ड नहीं है। आज की शिक्षा स्टूडेंट सेंटर्ड है। यानी कि स्टूडेंट आज की शिक्षा में सर्वोपरि है। पहले शिक्षा में टीचर्स सर्वोपरि हुआ करते थे। जैसा टीचर चाहते थे वैसा होता था लेकिन आज जैसा स्टूडेंट चाहते हैं वैसा शिक्षा में होता है। मतलब यह कि आज बच्चों को शिक्षा में अधिक महत्व दिया जाता है। दूसरे शब्दों में यह बात कही जा सकती है कि बाल केंद्रित शिक्षा में बालक की मनोविज्ञान के अनुरूप शिक्षण व्यवस्था की जाती है। इसका उद्देश्य अधिगम, जिसे लर्निंग या सीखना भी कहा जाता है, संबंधी विभिन्न कठिनाइयों को दूर करना है। इसमें सीखने की प्रक्रिया के केंद्र में बालक(स्टूडेंट या शिक्षार्थी)होता है। बाल केंद्रित शिक्षा में बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यता के विकास पर अध्ययन किया जाता है।आधुनिक शिक्षा शास्त्र के अनुसार शिक्षक बच्चे के सर्वागीण विकास का प्रयास करते हैं, लेकिन प्राचीन समय में बच्चे के मस्तिष्क में जानकारी या ज्ञान को भरा जाता था। दूसरे शब्दों में कहें तो अध्यापक केंद्रित कक्षा में शिक्षक निर्देश देते हैं और बच्चे सुनते हैं। बच्चों से अपेक्षा होती है कि वे शिक्षक की आज्ञा का पालन करेंगे और अनुशासन में रहेंगे। बहरहाल, आज की बाल केंद्रित शिक्षा के बीच ही दिल्ली के एक स्कूल का मामला हाल ही में प्रकाश में आया है। जानकारी देना चाहूंगा कि दिल्ली के एक स्कूल में महज दो किताबें न ला पाने की वजह एक छात्र की बुरी तरह पिटाई कर दी। क्या एक शिक्षक को मात्र इसलिए एक बच्चे की जमकर पिटाई कर देनी चाहिए कि वह स्कूल में किताबें नहीं ला पाया ? क्या शिक्षक का यह कर्तव्य नहीं बनता था कि वह बच्चे को इसके बारे में समझाते ? यह बहुत ही अफसोसनाक है कि शिक्षक ने बच्चे को बुरी तरह से पीटा। आज की शिक्षा बाल केंद्रित शिक्षा है और बाल केंद्रित शिक्षा बच्चों की समस्याओं पर ध्यान देती है। सरकार और माननीय अदालतों द्वारा समय समय पर इस संबंध में विभिन्न दिशा-निर्देश जारी करने के बाद में भी हमारे समाज में ऐसा हो रहा है, तो वाकई यह बहुत ही दुखद और अफसोसनाक है। क्या शिक्षकों को बच्चों के साथ अच्छे व्यवहार के साथ नहीं पेश आना चाहिए ?बच्चे को किताब न लाने पर समझाया-बुझाया भी जा सकता था, कि यह अच्छी बात नहीं है।अभिभावकों को भी सूचित किया जा सकता था, लेकिन बच्चे को बुरी तरह से पीटने को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है। बच्चे को पीटना तो यही दर्शाता है कि शिक्षक कहीं न कहीं कुंठा का शिकार था। बच्चों को यातना दिया जाना किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता है।यह विडंबना ही है कि आज बाल केंद्रित शिक्षा के इस युग में भी स्कूलों में बच्चों को यातना दिए जाने की समस्या को खत्म करना अब तक भी संभव नहीं हो सका है। मीडिया के हवाले से यह पता चला है कि उत्तर- पूर्वी दिल्ली के तुकमीरपुर में स्थित एक राजकीय स्कूल में छठी कक्षा के एक विद्यार्थी को एक विषय की किताब घर पर भूल जाने की बात पर एक शिक्षक ने बच्चे की इस तरह से पिटाई की कि उसकी गर्दन में सूजन आ गई। बच्चे की तबीयत ज्यादा बिगड़ने पर मामले ने तूल पकड़ा और स्थानीय थाने में प्राथमिकी दर्ज हुई। बताया जा रहा है और अब मामले की जांच की जाएगी, लेकिन यहां यक्ष प्रश्न यह है स्कूलों में बच्चों के उत्पीड़न पर(शिक्षकों द्वारा बच्चों के साथ बुरी तरह से मारपीट, बुरा बर्ताव) रोक क्यों नहीं लग पा रही है ? यहां यह उल्लेखनीय है कि स्कूलों में किसी भी कारण से बच्चों को शारीरिक या मानसिक दंड पर सख्त पाबंदी है। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि भारत में बच्चों के लिए लाए गए नि:शुल्‍क और अनिवार्य बाल शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009 में शारीरिक सज़ा और मानसिक प्रताड़ना को रोकने का प्रावधान किया गया है।अगर बच्चे को शारीरिक सज़ा या मानसिक प्रताड़ना दी जाती है तो इस पर आरटीई का सेक्शन 17(1) रोक लगाता है और इसके सेक्शन 17(2) में इसमें सज़ा का प्रावधान किया गया है।अगर कोई इन प्रावधानों का उल्लंघन करता है तो उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ मौजूदा सेवा नियमों के तहत अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। बहरहाल, पाठकों को यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि शिक्षकों को प्रशिक्षण के दौरान भी यह बताया जाता रहा है कि कक्षा में उन्हें बच्चों के साथ बेहद मानवीय और साफ्ट तरीके से पेश आना चाहिए। शिक्षक द्वारा बच्चे को किसी भी तरह की शारीरिक सज़ा जिससे बच्चे को दर्द हो, चोट लगे, बैचेनी होने लगे, नहीं दी जा सकती है। यहां तक कि बच्चे को बेंच पर या दीवार के सहारे खड़ा करना मानसिक प्रताड़ना में शामिल किया गया है।इसके अलावा बच्चे पर तंज कसना, अलग-अलग नाम से बुलाना, डांटना, डराना, अपमानजनक शब्द का इस्तेमाल करना या नीचा दिखाना, शर्मसार करना आदि को भी इसमें शामिल किया गया है।अगर स्कूल में बच्चे के प्रति व्यवहार पूर्वाग्रह से ग्रसित होता है तो वह भी भेदभाव की श्रेणी में आता है। इसमें जाति, जेंडर, व्यवसाय, क्षेत्र, 25 फ़ीसद आरक्षण में दाखिला, कमज़ोर तबके में शामिल होने आदि के आधार पर किसी तरह का पक्षपात किया जाता है तो वो भी इसमें शामिल माना जाता है। सच तो यह है कि किसी भी शिक्षक को किसी भी बात पर पिटाई तो बहुत दूर की बात, डांट-फटकार से भी पूरी तरह बचना है। यह विडंबना ही है कि आज बाल केंद्रित शिक्षा के इस युग में भी दिल्ली ही नहीं अपितु देश के दूसरे हिस्सों में आए दिन ऐसी घटनाएं मीडिया के हवाले से सामने आती रहती हैं। यहां उल्लेखनीय है कि दिल्ली में पिछले साल दिसंबर में एक शिक्षिका ने पांचवीं कक्षा की एक बच्ची की न सिर्फ पिटाई की, बल्कि उसे पहली मंजिल से नीचे भी फेंक दिया था। यह बहुत ही संवेदनशील है कि देश भर से स्कूलों में कभी बच्चों द्वारा गृहकार्य न करने तो कभी किसी अन्य छोटी छोटी बातों पर बच्चों के खिलाफ शिक्षकों के हिंसक बर्ताव की खबरें अक्सर आती रही हैं। यह बहुत ही संवेदनशील व दुखद बात है कि ऐसी कुछ घटनाओं में तो बच्चों की जान भी जा चुकी है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों के व्यवहार में परिवर्तन लाना है। दरअसल, व्यवहार में परिवर्तन ही तो शिक्षा है। अंत में यही कहूंगा कि बाल केंद्रित शिक्षा का अर्थ यह है कि शिक्षण की संपूर्ण कार्य योजना बालक के चारों ओर रहनी चाहिए । दूसरे शब्दों में यह बात कही जा सकती है कि कोई भी निर्णय शिक्षा से संबंधित लिया जाता है तो वह बालक को केंद्र मानकर किया जाना चाहिए। बालकों के संबंध में शिक्षक को उनके व्यवहार के मूल आधार, आवश्यकताएं, मानसिक स्तर, योग्यता, रुचि, व्यक्तित्व इत्यादि का विस्तृत ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य बालकों की व्यवहार में परिमार्जित करना है।बालकों को यदि उनकी रूचि के अनुसार शिक्षण मिलेगा तो वह पढ़ने में के प्रति अधिक जागरूक एवं उत्सुक होंगे। बालको अभिरुचि को ध्यान में रखकर ही शिक्षण कार्य करना चाहिए‌। सच तो यह है कि शिक्षकों को बालकों में उसके सभी पक्षों को सामाजिक,सांस्कृतिक, चारित्रिक, खेल, नेतृत्व विकसित करने पर बल देना चाहिए क्यों कि इसके माध्यम से ही बच्चों का सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है।

सुनील कुमार महला

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