समाज

मंदिर-मस्जिद विवाद का अंतिम अध्‍याय

-धाराराम यादव

लगभग 6 दशकों से न्यायपालिका के समक्ष लंबित राम मन्दिर -बाबरी मस्जिद विवाद के सम्बन्ध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का निर्णय आगामी सितम्बर, 2010 में सम्भावित है। निर्णय की सम्भावना को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रदेश भर में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया है। पुलिस और गुप्तचर एजेंसियाँ उन स्थानों पर विशेष सतर्कता बरत रही हैं जहाँ न्यायालय का निर्णय घोषित होने के बाद विवाद की संभावना बलवती है। वैसे कहा तो यह जाता है कि लखनऊ पीठ के समक्ष लंबित वाद विवादग्रस्त स्थल मिल्कियत से संबंधित है, किन्तु कुछ वर्षों पूर्व मा. उच्च न्यायालय के निर्देश पर विवादग्रस्त स्थल पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा नितान्त वैज्ञानिक विघि से करीब 70 स्थानों पर खुदाई करवाई गयी थी। समाचार माध्यमों से प्राप्त सूचनानुसार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा मा. उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अपनी सीलबन्द रिपोर्ट में यह आख्या दी गयी है कि विवादित स्थल के नीचे एक हिन्दू मन्दिर के अवशेष अब भी विद्यमान हैं। इस बात की शत प्रतिशत संभावना है कि न्यायालय के निर्णय में यह तथ्य अवश्य समाहित होगा जिससे यह स्वतः प्रमाणित हो जायेगा कि मन्दिर को तोड़कर उसी स्थल पर मस्जिद तामीर करवाई गयी थी। निर्णय से असंतुष्ट पक्ष को मा. सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील करने का अवसर सुलभ होगा।

वैसे इस मुकदमे का मूल बिन्दु उस विवादित स्थान का स्वामित्व (मिल्कियत) तय करना है। अब तक किसी स्तर पर यह तथ्य प्रमाणित रुप से सामने नहीं आया है कि बाबरी मस्जिद के पक्षकारों के पास उस विवादित भूमि को क्रय किये जाने का कोई बैनामा या सरकार द्वारा जारी कोई पट्टा मौजूद है। तर्क के लिए केवल लम्बी अवधि के कब्जे को ही आधार माना जा रहा है। इस तर्क को ज्यादा कानूनी महत्व नहीं दिया जा सकता कि जहाँ एक बार मस्जिद बन गयी, वह स्थल सदा के लिए मस्जिद का हो गया, चाहे किसी मन्दिर को जबरन ध्वस्त करके उसके स्थान पर ही वह मस्जिद बनवाई गयी हो। यदि लम्बी अवधि के कब्जे के सिध्दान्त को मान्यता दी जाती है, तो अंग्रेजी (ब्रिटिश सत्ता) द्वारा भी 200 वर्षों तक भारत पर कब्जा करने के सिध्दांत पर पुनः अपनी सत्ता लौटाने का दावा किया जा सकता है। यदि देश के सम्बन्ध में लम्बी अवधि के कब्जे का दावा स्वीकार्य नहीं हो सकता, तो किसी पूजा स्थल के सम्बन्ध में भी कब्जे का दावा मान्य नहीं किया जाना चाहिए। इस तथ्य के अनेक ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाण मौजूद हैं कि मुस्लिम काल में हजारों हिन्दू मन्दिर ध्वस्त किये गये थे और उन स्थलों पर उन्हीं मन्दिरों के मलवे से मस्जिदें तामीर करवाई गयी थीं। उन सबके सम्बन्ध में प्रमाण मौजूद होते हुए भी किसी प्रकार का विवाद किसी पक्ष द्वारा नहीं उठाया जा रहा है। केवल मथुरा के कृष्ण जन्म भूमि मन्दिर और वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के संबंध में प्रश्न उठाया गया है। शीघ्र ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के निर्माणाधीन भवन में एक ‘मध्यस्थता न्यायालय’ स्थापित करने का प्रस्ताव है। उचित यह होगा कि एक बार ‘मध्यस्थता न्यायालय’ की शरण में जाकर यह विवाद सुलझा लिया जाय।

अभी फिलहाल अयोध्या के राम जन्म भूमि मन्दिर विवाद में सितम्बर 2010 में आने वाले मा. उच्च न्यायालय पीठ के निर्णय में निहित बिन्दुओं के संबंध में अनुमान ही लगाया जा सकता है। किसी प्रकार के आरोप से बचने के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ में एक अल्पसंख्यक समुदाय के जज भी शामिल किये गये फैसले में यह तथ्य भी उजागर किया जाता है कि विवादित स्थल के नीचे अब भी एक हिन्दू मन्दिर का ढाँचा मौजूद है तो उसके स्पष्ट निहितार्थ यह होंगे कि उस स्थल पर पहले से निर्मित एक मन्दिर को तोड़कर ही मस्जिद बनायी गयी थी। ऐसे निष्कर्ष पर मुस्लिम समुदाय के साथ-साथ क्या देश के मूर्धन्य पंथनिरपेक्ष राजनेता यह कहने का साहस दिखायेंगे कि मन्दिर तोड़ा गया, तो कोई बात नहीं विगत् 22-23 दिसम्बर,1949 से उस स्थल पर हो रही राम की पूजा-अर्चना का वह ढाँचा क्यों तोड़कर उस स्थल पर मस्जिद बनाने का जायज हक है? किन्तु हिन्दू समुदाय को उसको वापस प्राप्त करने का तनिक भी अधिकार नहीं है अगर ऐसा सोचा भी तो तत्काल साम्प्रदायिकता फैल जायगी। विशेषकर देश के हिन्दू समाज को अपना मन्दिर वापस पाने का अधिकार नहीं माना जाता। इस देश की यह अत्यंत विडंबनापूर्ण सेकुलर सोच है।

प्राचीन भारतीय वाड.गमय के वायु पुराण के अनुसार सरयू की भीषण बाढ़ में तबाह हुई अयोध्या को श्रीरामचन्द्र के पुत्र महाराजा कुश द्वारा फिर से बसाया गया था जिसमें श्रीराम के जन्म स्थल का महल भी शामिल था। ध्वस्त महल के प्रमुख स्थानों को चिह्रित करके अपने पिता श्रीराम की कीर्ति को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके जन्म स्थान पर एक भव्य मन्दिर का भी निर्माण महाराजा कुश द्वारा कराया गया था। लोमश रामायण से ज्ञात होता है कि वह भव्य मन्दिर कसौटी के 84 स्तंभों पर बनवाया गया था। समय के थपेड़ों और बाढ़ के प्रकोप से अयोध्या बार-बार उजड़ती रही। अंततः लगभग दो हजार वर्ष पूर्व उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य ने अयोध्या आकर वहाँ की उजाड़ हालत को देखकर न केवल दुःख प्रकट किया, वरन् नाज-जोखकर महाराज कुश द्वारा निर्मित और बाद में ध्वस्त हुए राम जन्म स्थान मंदिर को पुनर्निर्माण कराकर भव्य रूप प्रदान किया। विक्रमादित्य द्वारा निर्मित भव्य राम मन्दिर को ध्वस्त करने का प्रथम विजातीय प्रयास महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार महमूद गांजी द्वारा सन् 1033 में किया गया जिसे राजा सुहेलदेव ने बहराइच में खदेड़कर मार गिराया। अयोध्या की महिमा सुनकर फकीर जलाल शाह दरवेश और फकीर फजल अब्बास कलंदर अयोध्या पहुंचे जिनकी आंखों में राम का वह भव्य मन्दिर खटकने लगा।

सन् 1528 में विदेशी आक्रांता बाबर बिहार जाते समय अयोध्या में रुका था। उससे फकीर फजल अब्बास कलंदर ने राम मन्दिर को ध्वस्त कराकर उसी स्थान पर एक मस्जिद बनवाने का आग्रह किया। ‘लाइडेन मेमोरीज वाल्यूम ईसेजी (1877)’ के अनुसार बाबर ने थोड़ा ना-नुकुर के बाद अपने सेनापति मीर बांकी खां ताशकन्दी को मन्दिर ध्वस्त करके उस स्थान पर मस्जिद बनवाने का निर्देश दे दिया और चला गया। हिन्दुओं ने इसके विरोध में 17 दिन तक युध्द किया किन्तु मुगल सेना के हाथों मारे गये। मरने वालों में मन्दिर के पुजारी श्याम नन्दन भी थे। लखनऊ गजेटियर, अंक 36, पृष्ठ-3 के अनुसार राम मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए मीर बांकी की फौजों ने तोप के गोले दागकर उसे गिराने में सफलता पायी थी। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह हुआ कि श्रीराम का वह मन्दिर अत्यन्त सुदृढ़ था।

आइने अकबरी के अनुसार शाहंशाह अकबर को जब अपने दादा बाबर द्वारा राम मन्दिर को ध्वस्त करवाने की जानकारी हुई, तो उन्होंने अपने सलाहकारों (पार्षदों) राजा बीरबल और टोडरमल से सलाह लेकर यह फरमान जारी किया कि वहाँ एक चबूतरा और छोटा राम मन्दिर बनवा दिया जाए और हिन्दू रिआया की पूजा-अर्चना में कोई व्यवधान न डाला जाए। आलमगीर नामा के पृष्ठ-630 के अनुसार सन् 1680 में औरंगजेब की फौजों द्वारा वह छोटा मन्दिर और चबूतरा नष्ट कर दिया गया।

सुलतानपुर गजेटियर (पृष्ठ-36) और दिल्ली गवर्नमेन्ट गजेटियर (पृष्ठ-174) के अनुसार सन् 1857 में बाबा रामचरण दास और रायबरेली के मुस्लिम रहनुमा अमीर अली ने संयुक्त रूप से मुस्लिम भाइयों से अपील की कि बाबरी मस्जिद जो श्रीराम के पैदाइशी स्थल पर बनवायी गयी है, उसे नाइतफाकी दूर करने के लिए हिन्दुओं को सौंप दी जाय। उस समय अंग्रेजों का भारत पर कब्जा हो चुका था। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का यह प्रयास रास नहीं आया और अंग्रेजों ने दोनों को बागी घोषित कर फांसी पर लटकवा दिया।

कहा जाता है कि सन् 1528 से 1914 तक राम जन्म भूमि के सम्बन्ध में हिन्दू-मुसलमानों के बीच 76 बार संघर्ष हुए जिसमें साढ़े तीन लाख राम भक्ताेंं को अपना बलिदान देना पड़ा। इस सम्बन्ध में 17 जुलाई, 1937 के नवजीवन, लखनऊ के अंक में महात्मा गांधी ने निम्नलिखित अपील प्रकाशित करायी थी ः-

”मुस्लिम बादशाहों ने अनेक मन्दिरों को तोड़ा लूटा और फिर उन्हीं स्थानों पर मस्जिदें बनवाईं। ऐसी बनाई गईं मस्जिदें गुलामी के चिह्र हैं। इन गुलामी के चिह्रों को हटा दिया जाय। मुसलमानों को चाहिए कि वे ऐसे सब स्थानों को हिन्दू समाज को खुशी-खुशी वापस कर दें। हिन्दुओं को भी चाहिए कि यदि मुसलमानों का कोई पूजाघर उनके कब्जे में है, तो वह भी खुशदिली के साथ मुसलमानों को वापस कर दें। दोनों तरफ से ऐसा हो जाने से देश में आपसी सच्ची एकता स्थापित होगी।”

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति श्रध्दा व्यक्त करने वाले उनके अनुयायियों को उनकी उक्त अपील पर अब गंभीरतापूर्वक सोच- विचार करना चाहिए। निश्चय ही महात्मा गाँधी ने देश में सदभावनापूर्ण वातावरण बनाने के लिए उक्त अपील जारी की थी।

भारत की स्वतंत्रता के तत्काल बाद कांग्रेस के कुछ मूर्धन्य देश भक्त राजनेताओं (जिनमें सरदार बल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं कन्हैयालाल मणिक लाल मुंशी आदि प्रमुख थे) ने मुस्लिम आक्रान्ता महमूद गजनवी द्वारा ध्वस्त किये गये गुजरात के सोमनाथ मन्दिर का जीर्णोध्दार करके भव्य मन्दिर निर्माण के संकल्प व्यक्त किया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु इससे सहमत नहीं थे किन्तु उनकी सहमति न होने के बावजूद प्रमुख राजनेताओं ने अपना संकल्प पूर्ण किया। इसी से प्रेरित होकर अयोध्या में 1528 में निर्मित बाबरी मस्जिद के प्रांगण में 22-23 दिसम्बर, 1949 को अर्ध्दरात्रि के समय कुछ संत महात्माओं द्वारा राम लला की मूर्तियां रखवाकर घंटा घड़ियाल के साथ पूजा-अर्चना शुरू की दी गयी। इस संबंध में स्मरणीय है कि तब तक जनसंघ या भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद का जन्म भी नहीं हुआ था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जरूर था जो महात्मा गांधी की हत्या के काल्पनिक आरोप में 4 फरवरी, 1948 से जुलाई, 1949 तक प्रतिबंधित था। अतः उसकी भी शक्ति शिथिल थी। मजे की बात यह है कि उस समय केन्द्र और राज्य दोनों स्थानों पर कांग्र्रेस का शासन था और दोनों सरकारों द्वारा 22-23, दिसम्बर 1949 को 1528 में बनी बाबरी मस्जिद के राम मन्दिर में रुपान्तरित हो जाने पर कोई आपत्ति नहीं की और प्रकट रूप से कोई कदम भी नहीं उठाया।

यह तथ्य निर्विवाद है कि 22-23 दिसम्बर,1949 को उस विवादित स्थल के राम मन्दिर में रुपान्तरित हो जाने के तथ्य का कांग्रेस द्वारा मौन समर्थन किया गया और न्यायपालिका में दायर वाद में भी यथास्थिति बने रहने दी गयी। राम मन्दिर निर्माण के लिए शिलान्यास का कार्यक्रम नवम्बर, 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सहमति से उनके गृहमंत्री सरदार बूटा सिंह की उपस्थिति में संपन्न कराया गया था। इसके स्पष्ट निहितार्थ तो यही होते हैं कि कांग्रेस भी राम मन्दिर निर्माण की समर्थक है। एक मुस्लिम राजनेता सैयद शहाबुद्दीन ने यह खुली घोषणा की थी यदि यह सिध्द हो जाय कि किसी मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनवाई गयी थी, तो वे मुसलमान भाइयों को उस पर से अपना दावा छोड़ने का आग्रह करेंगे। मा. उच्च न्यायालय के सम्भावित निर्णय से इस रहस्य से भी परदा उठ जायेगा। अब वे अपनी घोषणा का पालन करें।

* लेखक समाजसेवी तथा पूर्व बिक्री कर अधिकारी हैं।