अब जब हमारा वक्त कंप्यूटर पर ही टिप-टिपाते निकल जाता है। स्याही से हाथ नहीं रंगते, तो कई लोग इसे पूरा सही नहीं मानते। यकीनन, हाथ से लिखे को पढ़ने का अपना आनंद है। यह तब पूरा समझ में आता है, जब मोबाइल फोन से बतियाने के बाद किसी पुराने खत को पढ़ा जाए। हिन्दू कॉलेज से निकलने वाली हस्तलिखित अर्द्धवार्षिक पत्रिका (हस्ताक्षर) की नई प्रति मिली तो मन गदगद हो गया।
पत्रिका की एक कविता आपके नजर-
शब्द
सीखो शब्दों को सही-सही
शब्द जो बोलते हैं
और शब्द जो चुप होते हैं
अक्सर प्यार और नफरत
बिना कहे ही कहे जाते हैं
इनमें ध्वनि नहीं होती पर होती है
बहुत घनी गूंज
जो सुनाई पड़ती है
धरती के इस पार से उस पार तक
व्यर्थ ही लोग चिंतित हैं
कि नुक्ता सही लगा या नहीं
कोई फर्क नहीं पड़ता
कि कौन कह रहा है देस देश को
फर्क पड़ता है जब सही आवाज नहीं निकलती
जब किसी से बस इतना कहना हो
कि तुम्हारी आंखों में जादू है
फर्क पड़ता है
जब सही न कही गयी हो एक सहज सी बात
कि ब्रह्मांड के दूसरे कोने से आया हूं
जानेमन तुम्हें छूने के लिए।
– लाल्टू