राजनीति

यह बालक गुस्सा नहीं, उपेक्षा का पात्र है

-पंकज झा

एक कहावत है, कभी भी किसी जीवित व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करें. पता नहीं कब आपको अपने कहे पर पछतावा होने लगे. ऐसे ही पछतावे का अवसर इस लेखक को हाल के राहुल गांधी के बयान ने दिया है. मध्यप्रदेश में राहुल ने बयान दिया कि संघ और सिमी में कोई फर्क नहीं है.

कुछ महीने पहले की बात है जब इस लेखक ने राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से परे जा कर राहुल की इस बात के लिए तारीफ़ की थी कि वो दलितों के घर जा कर एक नए तरह का पहल कर रहे हैं. तब राहुल के उस काम को ‘नाटक’ कहने वालों के लिए अपना यह सवाल था कि अगर यह नाटक ही है तो शेष राजनीतिक दलों को ऐसा करने से कौन रोक रहा है? मोटे तौर पर अपनी यह समझ बनी थी कि उस मामले में राहुल की आलोचना वैसा ही है जैसे किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले का ये कह कर आलोचना की जाय कि यह कोई पढ़ने वाला लड़का नहीं है. चुकि इसको आईएएस बनना है इसलिए पढ़ रहा है. आशय यह कि भले ही लक्ष्य भौतिक हो, आपका कदम भले ही प्रतीकात्मक हो, फ़िर भी अगर आप कोई बड़ी लकीर खीचने के लिए प्रयासरत हों, आपके किसी उचित कदम हाशिए के लोगों को मुख्यधारा में लाने में मदद मिल रही हो तो उसकी तारीफ़ की जानी चाहिए. राजनीति में कई बार प्रतीक ही भविष्य का मेरुदंड बन जाता है. अन्यथा किसको पता था कि ‘असली गांधी’ द्वारा दांडी में एक मुट्ठी नमक उठाना अंग्रेजों के नमकहरामी की ताबूत में अंतिम कील साबित होगा. खैर.

तो इस नकली गांधी ने ऐसा कोई बयान दिया होगा पहले तो सहसा विश्वास करना ही मुश्किल था. अपनी स्थापना से लेकर आज तक दुष्प्रचारों को झेलता रहा संघ निश्चय ही हर अग्नि परिक्षा में कुंदन बन कर निकला है. लेकिन संघ के कटु से कटु आलोचकों ने कभी इस सांस्कृतिक संगठन की राष्ट्र के प्रति निष्ठा पर कोई शक नहीं ज़ाहिर किया है. गांधी-नेहरु-पटेल सभी ने अलग-अलग समय पर इस संगठन की तारीफ़ की है. जहां संघ द्वारा उठाये गए हर विषय, उसके द्वारा जताई गयी हर चिंता कल हो कर देश के लिए बड़ी समस्या के रूप में साबित हुआ है. जहां उसके द्वारा हाथ में लिए गए हर कामों को समय-समय पर न्यायालय भी मुहर लगाता रहा है, वही ‘सिमी’ किस तरह हर आतंकी दलों के लिए गुंडों की फौज बना हुआ है यह किसी से भी छुपा नहीं है. उस गिरोह को राहुल के केन्द्र सरकार ने खुद ही प्रतिबंधित किया हुआ है. जैसा कि सब जानते हैं अभी के केन्द्र के खेवनहार ने राहुल के लिए अपने गद्दी को ‘खडाऊ’ के रूप में सम्हाल कर रखा हुआ है. इसकी बागडोर प्रत्यक्ष रूप से राहुल की मां के पास ही है. तो अगर उसके इशारों पर नाचने वाली केन्द्र सरकार ने जिस सिमी पर नकेल कसी है क्या उसकी तुलना किसी देशभक्त संगठन से की जा सकती है?

संघ और सिमी को एक तराजू पर तौलने वाले किसी नेता की आंख में कौन सा चश्मा लगा हुआ है यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है. हां इस तरह का बयान देने वाले कांग्रेस के एक और महासचिव दिग्विजय सिंह जैसे लोग अगर इस तरह की बात करते तो यह अपेक्षित था. वास्तव में सिंह ने हमेशा ऐसे ही बयान दे कर जनता द्वारा बार-बार ठुकराए जाने के बाद भी स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने की कोशिश की है. लेकिन जिस तरह से मध्य प्रदेश में जा कर ही राहुल यह बयान दिया है तो यह मानने का पर्याप्त कारण है कि दिग्विजय अपनी बात राहुल के मूंह से कहाने में सफल सफल हुए है. तो इस आलोक में यह बात समझी जा सकती है कि राहुल के आस-पास किस मानसिकता के लोग हैं और भविष्य में हमें किस तरह की राजनीति से दो-चार होना पर सकता है.

यदि राहुल के इस बयान को उसका जुबान फिसल जाना माना जाय तो बात अलग है. लेकिन यह सभी जानते हैं कि उनकी जुबान इसलिए फिसल नहीं सकती क्यूंकि शब्द उनके अपने कभी होते नहीं. हां कई बार एक राज्य के लिए लिखे गए भाषण को किसी दुसरे सूबे में भी पढ़ने का कमाल ये ज़रूर करते रहे हैं. चंद महीने पहले की बात है. छत्तीसगढ़ के बस्तर दौरे के समय वहां जा कर राहुल कह आये कि प्रदेश की जातिवादी राजनीत ने बस्तर का बहुत नुकसान किया है. लोग ‘बाबा’ के इस बयान पर तब हस-हस कर लोट-पोट हो गए थे. सबको यह बाद में पता चला कि वस्तुतः उत्तर प्रदेश के लिए दिए गए कुछ नोट्स इन्होने यहां पढ़ दिया था. क्यूंकि तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़, खास कर उसके आदिवासी इलाके में ‘जाति’ कभी भी कोई मुद्दा नहीं रहा है.

अगर वर्तमान बयान जैसा कि तथ्य इशारा कर रहे हैं जिसके द्वारा राहुल के मुंह में डाला गया हो उसके सन्देश साफ़ हैं. सब जानते हैं कि अयोध्या फैसले के बाद सभी ‘शर्म निरपेक्ष’ दलों को अपनी राजनीति खटाई में जाती नज़र आ रही है. इस फैसले ने संप्रदायों के फासले को खतम कर सद्भाव की बयार बहाई है. तो ज़ाहिर है, आज-तक तुष्टिकरण को ही अपना आधार बनाने वाली, अपने पुरुखों की तरह, लोगों को बांट कर ही राज चलाने वाली कांग्रेस के लिए यह मुफीद नहीं है. अयोध्या मामले को ही पहले जिस तरह ‘शाहबानो नुकसान’ को कम करने का प्रयास इस दल द्वारा किया गया था उसी तरह का प्रयास ऐसे बयान दे कर कांग्रेस ‘अयोध्या नुकसान’ की भरपाई करने के लिए कर रही है. तो ज़रूरत इस बात की है कि बाजार राहुल पर गुस्सा दिखाने के इनकी उपेक्षा की जाय.

आप एक मिनट के लिए राहुल को उनके ‘गांधी’ उपनाम से अलग करके देखिये. यह भूल जाइये कि वह किसी ‘शाही’ परिवार के हैं. क्या आपको उनमें देश को दिशा दे सकने लायक किसी व्यक्तित्व की छाप दिखेगी? क्या कभी आपने उनका कोई मौलिक विचार, कोई विजन, कोई सोच ऐसा देखा-सुना है जो इस देश को आगे ले जाने में सहायक हो? पिछले कई सालों से आप संसद में उन्हें मीडिया द्वारा बनाये गए किसी ‘स्टार’ की तरह देख रहे हैं. क्या आपको उनके पांच मिनट का भी कोई प्रभावी वक्तव्य याद है? तो आप सोचिये आखिर हम भविष्य में किस कद के नेताओं को देखना चाहते हैं. मैडम के इर्द-गिर्द और युवराज को स्थापित क़रने में लगे लोगों को यह बेहतर पता है कि इस तरह की हरकतों के बाद ही वह राजनीति के केन्द्र में परिवार के नयी पढ़ी को स्थापित कर पायेंगे. लेकिन देश को यह सोचना होगा कि लाख अयोग्यता के बावजूद किसी को नेता ‘लोकतंत्र’ में भी केवल इसलिए चुना जाय कि वह किसी राजवंश का अंग रहा है? यही सवाल एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसके जबाब पर भविष्य के भारत और उसके लोकतंत्र की दिशा तय होनी है.

शासन में वंश की प्रासंगिकता पर एक कथा प्रासंगिक है. पुरी के ऐतिहासिक भगवान जगन्नाथ का भव्य मंदिर वहां के राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा बनाया गया. कहते हैं भगवान ने राजा पर प्रसन्न हो कर उनसे कोई भी वर मांग लेने को कहा. तो ऐसी मान्यता है कि इन्द्रद्युम्न ने भगवान से ये प्रार्थना की कि उन्हें निपुत्र हो जाने का वरदान दें. ऐसा वरदान केवल इसलिए कि वे नहीं चाहते कि उनकी आने वाली पीढियां उनके यश को कभी भुनाने का प्रयास कर पाए. लोकतंत्र के सम्बन्ध में राजा इन्द्रद्युम्न के इस महान विचार को समझने की ज़रूरत है.