-जगदीश्वर चतुर्वेदी
सवाल टेढ़ा है लेकिन जरूरी है कि चेग्वेरा क्यों नहीं बन पाए नामवर सिंह। उन्होंने क्रांतिकारी की बजाय बुर्जुआमार्ग क्यों अपनाया ? क्रांति का मार्ग दूसरी परंपरा का मार्ग है। जीवन की प्रथम परंपरा है बुर्जुआजी की। नामवरजी को पहली परंपरा की बजाय दूसरी परंपरा पसंद है। सवाल यह है कि दूसरी परंपरा क्या है ? दूसरी परंपरा है क्रांति की और क्रांतिकारी विचारों के निर्माण की।
दूसरी परंपरा वह नहीं है जो हजारीप्रसाद द्विवेदी ने खोजी है। वह तो साहित्य की बुर्जुआ परंपरा है। यह परंपरा तो उसी बुर्जुआ साहित्य परंपरा का एक रूप है जिसे रामचन्द्र शुक्ल ने खोजा था। रामविलास शर्मा शुक्लजी की परंपरा में अटककर रह गए और बाद में और भी पीछे चल गए। नामवर सिंह ने दूसरी परंपरा की खोज की और जो बातें कहीं उनमें वे बुनियादी तौर पर बुर्जुआ चिंतन के ढ़ांचे का अतिक्रमण नहीं कर पाते।
चे की पुण्यतिथि के मौके पर नामवर सिंह से हम यह सवाल करना चाहते हैं कि उन्होंने चे की परंपरा में जाने की बजाय बुर्जुआ परंपरा में रहना क्यों पसंद किया ? हम जानते हैं कि नामवरजी और उनके भक्तों के पास इस सवाल का जबाव नहीं है। लेकिन चे और नामवरजी में एक समानता है,चे जिस तरह सारी दुनिया में क्रांतिकारियों के प्यारे थे और हैं, नामवरजी भी प्रगतिशील, क्रांतिकारी लेखकों, युवाओं में आइकॉन की तरह हैं। हिन्दी के छात्रों में आज भी आइकॉन हैं। प्यारे हैं।
सवाल उठता है उनके व्यक्तित्व में ऐसा कौन सा जादू है जो लोगों पर असर डालता है और उन्हें महान बनाता है ? उनसे मिलकर यही लगेगा कि किसी महान व्यक्ति से मिले। बुर्जुआ महानायकों जैसी उदारता उनके व्यक्तित्व में रच बस गयी है।
मैं नहीं जानता कि उनके अंदर क्रांतिकारी विचारों का कौन सा महान पाठ छिपा है लेकिन एक बात उनकी चे से जरूर मिलती है वे चे की तरह असहमत होना जानते हैं और अपनी असहमति को वे बताना,समझाना और व्यवहार में उतारना भी जानते हैं। नामवरजी का यह असहमति वाला गुण क्रांतिकारी विरासत से मिलता-जुलता है। चे से उनके व्यक्तित्व की एक और बात मिलती है कि वे प्रेम के पुजारी हैं। चे की तरह उन्होंने भी प्रेम को अपने संस्कार का हिस्सा बनाया है। इसके बावजूद वे चे क्यों बन पाए यही मेरी मूल चिन्ता है।
चे की जिंदगी और विचारो ने करोड़ों युवाओं को सारी दुनिया में क्रांति के लिए जान निछाबर करने की प्रेरणा दी। क्रांतिकारी विचारों और क्रांति से प्यार करना सिखाया। भारत के युवाओं पर भी चे का गहरा असर रहा है। किसी भी क्रांतिकारी की जिंदगी उसके जनता के प्रति समर्पण,कुर्बानी और विचारधारात्मक स्पष्टता के पैमाने पर देखी जानी चाहिए। चे के विचारों और कर्म में गहरी एकता थी।
उनमें अन्य के प्रति,उसकी मुक्ति के प्रति गहरी निष्ठा थी। चे यह नहीं मानते थे कि वे जनता के मुक्तिदाता हैं बल्कि उनका मानना था “मैं मुक्तिदाता नहीं हूँ। मुक्तिदाता का अस्तित्व नहीं होता। जनता स्वयं को मुक्त करती है।”
हमें देखना चाहिए कि जिस समाज में बुनियादी परिवर्तन चाहते हैं वहां क्रांतिकारी ताकतें,क्रांति के लिए प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी आखिर क्या कर रहे हैं ?क्या वे बुर्जुआ वर्ग के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं या फिर क्रांतिकारियों के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं ? भारत की आयरनी यह है कि यहां के क्रातिकारी बुद्धिजीवी बुर्जुआ एजेण्डे पर फुलटाइम काम करते हैं ,क्रांतिकारी एजेण्डे पर पार्टटाइम काम करते हैं। जाहिर है समग्रता में उनके कार्यों से क्रांति का कम बुर्जुआजी का ज्यादा भला होता है।
क्रांतिकारी कार्यकलाप का प्रेम की धारणा के साथ गहरा संबंध है जो प्रेम नहीं कर सकता वह क्रांति भी नहीं कर सकता। जो प्रेम नहीं कर सकता वह भक्ति भी नहीं कर सकता। ईश्वर उपासना भी नहीं कर सकता। प्रेम हमारे समस्त जीवन की धुरी है। उसका क्रांति के साथ भी अभिन्न संबंध है। क्रांतिकारी भावों-विचारों के प्रति निष्ठा बनाने में प्रेम के प्रति कर्म और व्यवहार में वचनवद्धता जरूरी है।
चे का मानना था”यह हास्यास्पद लग सकता है लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि सच्चा क्रांतिकारी प्रेम से निर्देशित होता है। ”
हम मध्यवर्ग के लोगों की बुनियादी समस्या यह है कि हम जीवन में सब कुछ पाना चाहते हैं। सुखी जीवन चाहते हैं। सारी सुविधाएं चाहते हैं। किसी भी किस्म के सामाजिक परिवर्तन के लिए विचार से लेकर व्यवहार तक हमारे पास समय नहीं है। हम सारी जिंदगी जुगाड़ में लगा देते हैं। जोड़ तोड़, कुर्सी,पद, सम्मान, पैसा, शोहरत आदि हासिल करने में सारी ऊर्जा खर्च कर देते हैं और इस चक्कर में ब्लडप्रेशर से लेकर डायविटीज तक अनगिनत बीमारियों के शिकार हो जाते हैं,खाली समय में अवसाद में भोगते हैं,इससे कुछ बचता है तो निंदा में खर्च करते हैं,इससे समय बचता है तो फिर सो जाते हैं।
हमारे पूरे जीवन के टाइमटेबिल में क्रांति और सामाजिक परिवर्तन के कामों के लिए कोई जगह नहीं होती। यदि हम महान प्रगतिशील आलोचक हुए तो सारी उम्र सेमीनार, चयन समिति,पुरस्कार समिति,अध्यक्षता आदि में आदरणीय नामवर सिंह की तरह खर्च कर देते हैं।
आप कल्पना कीजिए नामवरसिंह जैसे महान पंडित ने क्रांति के बारे में अपने जीवन का आधा समय भी खर्च किया होता तो भारत और हिन्दीभाषी समाज का कितना उपकार हुआ होता। अंत में चे के शब्दों में ” आप सब कुछ खोकर ,कुछ पाते हैं।’’ उसके बाद ही क्रांति कर पाते हैं। नामवर सिंह ने अपने जीवन में सब कुछ पाया। लेकिन बिना जोखिम उठाए। उनके जीवन की चे के मुताबिक सबसे बड़ी असफलता यही है कि उन्होंने कोई जोखिम नहीं उठाया। चे के अनुसार जोखिम उठाए बिना सब कुछ पाना जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति है, और नामवरजी इसके आदर्श पुरूष हैं। नामवरसिंह ने सब कुछ पाया लेकिन कोई जोखिम नहीं उठाया। व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक-राजनीतिक जीवन तक यदि वे जोखिम उठाते तो वे चे बन सकते थे।
जगदीश्वर चतुर्वेदी का लेख वास्तव में अत्यंत तीखा है किंतु उनके स्तर के लेखक का पूरा अधिकार हासिल है कि वह नामवर सिंह जैसे मूर्धन्य आलोचक की सकारात्मक आलोचना करें। चे के माध्यम से यह आलोचना काफी रोचक और शानदार है।
प्रभात कुमार रॉय
चतुर्वेदीजी,आप नामवर सिंह के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हैं ,ज़रा समझाने की कोशिश करेंगे?
नामवरसिंह को हिंदी साहित्य का सुपर आलोचक बन जाना भी वैसे ही है जैसे की चे का लातीनी अमेरिका के जन -मुक्ति संग्रामो का महा नायक …दोनों में अनेक समानताएं हैं …दोनों ही देश के, दुनिया के दमित -पीड़ित शोषित सर्वहारा के हित चिन्तक रहे हैं ….चे तो अब नहीं हैं …किन्तु उनकी झलक नामवरसिंह में देख कर क्रन्तिकारी तत्वों को उर्जा का संचार अवश्य हुआ करता था …अब वे शायद विश्राम कर रहे हैं …